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शुक्रवार, 1 जून 2012

जो चाहें, माँगें परमसत्ता से.....


भिखारियों से क्या याचना !!!!


आज हर व्यक्ति कुछ न कुछ पाने के फेर में रोजाना लगा रहता है। दुनिया में चाहने वालों की कभी कोई कमी नहीं रही। कुछ ही लोग ऎसे होते हैं जो ईश्वर को चाहते हैं और उसी को प्राप्त करने की कोशिश में लगे रहते हैं। बहुसंख्य लोग समझदार होने के बाद से ही विभिन्न ऎषणाओं की पूत्रि्त में लगे रहते हैं और इसके लिए सारे जतन करने के साथ ही उन सभी लोेगों के करीब पहुंच कर याचनाओं की श्रृंखला जताते रहते हैं जिनसे उन्हें तनिक भी यह अहसास होता है कि वे उन लोगों में से हैं जो उनकी मांग पूरी करने में समर्थ या सहायक हो सकते हैं। लोक समुदाय में एक-दूसरे के काम आना और काम करना कहीं स्वार्थ और कहीं परोपकार के अर्थ में अनवरत चलता रहता है। यह परम्परा सदियों से हमारी सामाजिक व्यवस्था का अंग रही है।

आदर्शों और स्वाभिमान के साथ फक्कड़ी में जीवनयापन करने वाले लोगों के मुकाबले ऎसे लोगों की संख्या खूब ज्यादा है जो जीवन में हमेशा भिखारियों की तरह कुछ न कुछ माँगने-फिरने के आदी हो गए हैं। ये लोग दिन-रात उसी तलाश में रहते हैं कि कहीं कोई दाता मिल जाए जिससे उन्हें मुफ्त में वह सब कुछ मिल जाए जिसकी उन्हें अभिलाषा है। ऎसे लोग किसी एक-दो अथवा दस-बीस अभिलाषाओं से संतुष्ट नहीं होते बल्कि ज्यों-ज्यों इनकी अभिलाषाएँ बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों बड़े लोगों की तलाशी और उनके चरणों में लोटने या चरण स्पर्श करने की आदतों में इजाफा होता जाता है।

क्षुद्र ऎषणाओं और जायज-नाजायज मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए चाहे जहाँ देखें, हम सब भिखारियों के रूप में नज़र आने लगे हैं। कोई किसी से मांग रहा है, कोई किसी के। एक-दूसरे से मांगते रहने का यह चक्र पूरे जीवन में चलता रहता है। यहाँ कोई संतुष्ट नज़र नहीं आता, हर कोई मांगता ही नज़र आता है। छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कहने और बताने वाला भी मांग रहा है। मांगते रहने की गर्वीली परम्परा में लोग कहीं ईश्वर से मांग रहे हैं कहीं उन लोगों से मांग रहे हैं जिन्हें ये ईश्वर समझते हैं। मांगने वालों के लिए ईश्वरों की संख्या भी घटती-बढ़ती रहती है। जहां जिससे कुछ पाने की आशा हो, उसे ईश्वर मान लेते हैं और फिर वे सारे जतन करने लग जाते हैं जिनसे ये बड़े लोग खुश होते हैंंं। मांगने वालों को पता है कि ये देने वाले लोग किससे खुश होते हैं इसलिए उनकी मुराद पूरी करने के लिए वे सारे हथकण्डे इस्तेमाल करते हैं जो कर सकते हैं।

जो कुछ मनुष्य को प्राप्त होता है वह नियति द्वारा निर्धारित होता है लेकिन अज्ञानता या भविष्य को देख पाने की दृष्टि के अभाव में हमें हमेशा जिज्ञासा रहती है आगत को जानने की, और इसी भविष्य को अच्छा बनाने के लिए अपनी सारी हदों को पार कर उस हद तक भी गिर जाते हैं जहाँ होने वाले को पतित कहा गया है। मनुष्यत्व की सारी ऊँचाइयों को छोड़ कर लोग छोटी-मोटी इच्छाओें की पूर्ति के लिए सब कुछ कर देने को आमादा होते जा रहे हैं। ईश्वर की सत्ता से अनजान ऎसे लोग पूरी जिन्दगी इन मानवी ईश्वरों के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते रहने में लगा देते हैं। इस पूरी यात्रा में वे यह तक भी भूल जाते हैं कि वे इंसान के रूप में ढाले गए हैं। हालत यह हो गई है कि मरते दम तक ये भिखारी की तरह कहीं न कहीं मांगने के फेर में लगे रहते हैं।

लगता यही है जैसे एक भिखारी दूसरे भिखारी से मांग रहा है। कहीं कोई भीख में जूठन खाने का आदी हो गया है तो कहीं कुछ और। इस मर्म को समझने की जरूरत है कि जो कुछ प्राप्त हो रहा है वह ईश्वरीय सत्ता से। इसलिए कहीं कुछ मांगना ही है तो ईश्वर से खुद उसी को मांगने का प्रयत्न करें। कहीं कुछ भी मांगने की जरूरत पड़े तो ईश्वर से कहें, भिखारियों से नहीं। ईश्वर जो देता है वह शुचितापूर्ण और दिव्य होता है जबकि भिखारियों के चरण पूजने और उनके कीर्तिगान के बाद जो प्राप्त होता है वह बासी व जूठन से कम नहीं होता। ये उच्छिष्ट भीख ज्यादा समय तक टिक भी नहीं पाती। मानव ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है और ईश्वर को भी कभी यह स्वीकार्य नहीं होता कि उसका अंश भिखारियों से याचना करे।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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