चातुर्मास ऎकान्तिक साधना के लिए है !! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 30 जुलाई 2012

चातुर्मास ऎकान्तिक साधना के लिए है !!


धूमधड़ाके और शोरशराबे के लिए नहीं !!!


चातुर्मास का अर्थ है वे चार माह जब व्यक्ति सांसारिक प्रवृत्तियों और परिवेशीय आचरणों से दूर रहकर एकान्त में बैठ कर साधना और चिंतन-मनन करता हुए अपने आपको साधनामय एवं दिव्य बनाए और अकेले में आत्मचिन्तन करता हुआ अपने भीतर जाए। साल भर संसार के विषयों और सांसारिक लोगों के बीच रमण करते हुए ऊर्जा का जो क्षरण होता है उसकी भरपायी और ईश्वर के सान्निध्य का अहसास कराने के लिए है चातुर्मास। पुराने जमाने में वर्षा के इन चार माहों में आवागमन बाधित हो जाता था और देवशयन के बाद सांसारिक एवं कामनापूत्रि्त से जुड़े कर्मों पर करीब-करीब विराम लग जाता था और ऎसे में संत-महात्मा और ऋषि-मुनि एक निश्चित एकान्त स्थान पर बैठकर चार माह तक स्वाध्याय और साधना करते हुए अपने व्यक्तित्व और ऊर्जाओं को ऊँचाइयां प्रदान करते थे। ये चार माह इनके लिए कहीं सहज और कहीं कठोर साधनाओं के माह हुआ करते थे। इसी प्रकार चातुर्मास में आम लोगों के लिए भी स्वाध्याय और साधना का महत्त्व हुआ करता था। चातुर्मास को मोटे अर्थ में लें तो वे चार माह जिनमें उन सारी वृत्तियों पर आंशिक अथवा पूर्ण विराम लग जाना चाहिए जो शेष आठ माह हम किया करते हैं या होती हैं।

यह चातुर्मास संतों, मुनियों, मठाधीशों और बड़े-बड़े लोकप्रिय, पूज्य, महापूज्य, अतिपूज्य, दृश्यमान तथा गोपनीय  साधकों और सिद्धों के लिए बड़े महत्त्व के होते हैं। इनके लिए यह ऊर्जा संरक्षण और भण्डारण का समय होता है जब ये जन से दूर किसी निर्जन या एकान्त में भीड़ भाड़ से परे रहकर शांति और सुकून के साथ भजन-पूजन और स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं साधनाओं को कर सकें। इसीलिए इन लोगों को चारों माह एक ही स्थान पर रहने की पाबंदी थी और इन चार माहों में वे एक ही स्थान पर डेरा डालकर तपस्या करते थे। यह बंधन इनके आत्मिक कल्याण के लिए साल में एक बार जरूरी हुआ करता था। इसके साथ ही संसार से दूर रहने के लिए कई सारी पाबंदियां होती थीं। जो काम आठ माह में होते थे उन कामों से दूरी बनाए रखी जाती थी। यानि कि विशुद्ध रूप से वैयक्तिक और ऎकान्तिक साधना का मार्ग था चातुर्मास। हमारे आदि ऋषि-मुनियों ने चातुर्मास को लेकर कई नियम बनाए हैं, कई पाबंदियां लगायी हैं लेकिन आजकल के संत-महात्मा और मठाधीश इन नियमों का कितना पालन कर रहे हैं वह सभी को पता है। समाज को मार्गदर्शन देने वाले और अनुशासन तथा मर्यादा का पाठ पढ़ाने में सिद्धहस्त इन लोगों का जीवन और चातुर्मास कितना मर्यादित रह गया है, इसे शायद बताने की जरूरत नहीं है। इसे ये लोग भी जानते हैं और वे लोग भी जो किसी स्वार्थ या लालच में अथवा भोलेपन में इनके चेले-चपाटी, भक्त या अनुयायी कहे जाते हैं।

चातुर्मास में सर्वत्र शांति और सुकूनदायी माहौल में भक्तिभाव और साधना करने का विधान है। लेकिन आजकल चातुर्मास सिर्फ नाम का रह गया है। चातुर्मास में वे सारे काम हो रहे हैं जिन्हें वर्जित कहा गया है। चातुर्मास के दौरान् भी जमकर पब्लिसिटी, प्रोपेगण्डों, शोर-शराबों, धूम-धड़ाकों और ऎसी-ऎसी गतिविधियों का बोलबाला हो गया है जिनसे शांति मिलने की बात तो दूर है, शांति भंग ज्यादा होती है। चातुर्मास और शेष आठ माहों की गतिविधियों में कोई फर्क नहीं रह गया है। वही धर्म के नाम पर लोगों की भीड़ जमा करने के जतन, माईक से कानफोडू प्रवचन, धर्म के नाम पर धंधों की बाढ़, सत्संगों, कथाओें और अनुष्ठानों का सिलसिला, हर कहीं भीड़-भाड़ के जरिये शोरगुल, यज्ञ, हवन और दूसरे-तीसरे कई गोरखधंधे। गुरुजी और बाबाजी से लेकर चेलों की फौज और अंध भक्तों का लम्बा जमघट। किसी न किसी बहाने मजमों की बहार और वह सब कुछ जो चातुर्मास के अलावा साल भर होता रहता है। फिर क्या अंतर रह गया है चातुर्मास और शेष आठ माहों की गतिविधियों में। कुछेक निष्काम, निष्प्रपंची, निर्लोभी और निस्पृह संत-महात्माओं और मठाधीशों को छोड़ दें तो हर कोई बाबा या मठाधीश छपास का भूखा दिखता है इसलिए आये दिन चातुर्मास के नाम पर कुछ न कुछ करते रहना इनकी मजबूरी हो गई है।  हमारे अपने इलाकों में ही देखें तो कोने-कोने में चातुर्मास के भौंपू बज रहे हैं और इन पर नाच रहे हैं वे लोग जिन्हें न धर्म से मतलब है न चातुर्मास से।  इन्हें सिर्फ अपने गुरु या बाबाजी की पब्लिसिटी और महिमामण्डन से ही मतलब है। रोजाना ऎसे-ऎसे प्रवचन हो रहे हैं जैसे हमारी पिछली पीढ़ियों ने कभी नहीं सुने। बाबाजी गला फाड़ फाड़कर चिल्ला रहे हैं और उपदेशों की बारिश कर रहे हैं।  यह दिगर बात है कि बाबाजी खुद इनका कभी पालन नहीं कर पाते। कई बाबा चातुर्मास के बहाने भक्तों की भीड़ में इजाफा कर रहे हैं या पैसा बना रहे हैं। कई बाबाजी चातुर्मास स्थल से आए दिन गायब रहकर इलाके में आस-पास से लेकर दूरदराज तक हो आते हैं।

कभी प्रवचन के बहाने, कभी शिष्योें और शिष्याओं के निमंत्रण पर, और कभी किन्हीं और कारणों से। चातुर्मास में भी एक जगह जमकर नहीं बैठ सकने वाले ये बाबाजी साधना और स्वाध्याय में कितना मन लगा पाते होंगे, यह तो इनके इर्द-गिर्द मक्खियों की तरह भिनभिनाते भक्तों को ही मालूम होगा या उस ईश्वर को,जिसके नाम पर वे चातुर्मास का अभिनय करते हैं। चातुर्मास के नाम पर आजकल इतना ढोंग हो रहा है कि लगता है जैसे भगवान अपने पूरे परिवार के साथ यहीं खींचा चला आया हो। चातुर्मास अपना मौलिक स्वरूप खोता जा रहा है और उसकी बजाय दिखने लगा है चकाचौंध मास। शोरगुल इतना कि खुद भगवान भी शयन न कर पाएं। जिन लोगों को चुपचाप बैठकर साधना और ध्यान-भजन करना चाहिए वे खुद भी कुछ नहीं कर रहे हैं और दूसरों को भी भरमा रहे हैं। भीड़ इकट्ठी करने की बजाय यह जरूरी है कि जो लोग जिन मत-मतान्तरों, पंथों और सम्प्रदायों, परम्पराओं के नियमों का पालन करते हैं उनके साथ चातुर्मास करें और चातुर्मास के अनुशासन, नियमों और पाबन्दियों का पूरा-पूरा पालन करें तभी ईश्वर के यहाँ न्याय पा सकेंगे वरना चातुर्मास के नाम पर आजकल जो हो रहा है, उसका तो भगवान ही मालिक है।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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