संवेदनशीलता लाएं प्रत्येक कर्म में !!
मानुषी सभ्यता और सृष्टि के साथ ही वैषम्य और समानता, सत, रज एवं तम तथा देवासुर वृत्तियों का संयोग बना हुआ है जो हर युग में अपने अनुपात बदल-बदल कर रहता है। इनके साथ ही संघर्षों तथा वैचारिक एवं भौगोलिक परिवर्तनों की लगातार बदलने वाली भावभूमि भरी स्थितियां युग सापेक्ष होती हैं। इनमें सकारात्मक और नकारात्मकता का अनुपात न्यूनाधिक होता रहता है। इसी का परिणाम और प्रभाव समय-समय पर समाज, परिवेश और देश-दुनिया पर दृष्टिगोचर होने लगता है। कलिकाल में नकारात्मक लोगों और आसुरी शक्तियों का बाहुल्य रहता है और आजकल हम परिवेश में जो कुछ देख रहे हैं वह भी इसी का प्रतिफल है। मौजूदा युग मानवीय संवेदनाओं, परोपकार, लोकहितार्थ और समाजोन्मुखी होने की बजाय आत्मकेन्द्रित युग है और ऐसे में स्वाभाविक ही है कि मनुष्य की सारी प्राथमिकताएं बदलकर उनकी पहुंच के लिए बाहर के रास्तों की बजाय जो मार्ग हैं वह अपने लिए ही खुलने के आदी हो चले हैं।
अपने क्षेत्र से लेकर हर कहीं विद्यमान लोगों में अधिकांश ऐसे हैं जिनके लिए जीवन तनावों और उन्मादी स्वभाव से प्रभावित रहता है। लोगों के मनोविज्ञान को समझने और चेहरे पढ़ने की थोड़ी सी कला जान लेने पर ऐसे सभी प्रकार के लोगों के जीवन, कार्य और व्यवहारों को अच्छी तरह आत्मसात किया जा सकता है। यों भी अपने आस-पास तथा अपने क्षेत्र में रहने वाले ऐसे उन्मादी और उद्विग्न किस्म के लोगों के बारे में जानने की उत्सुकता हो तो ऐसे लोगों के हाव-भाव, मुखाकृति और बॉड़ी लैंग्वेज, अभिव्यक्ति के उतार-चढ़ावों तथा मुद्राओं से इनके मन और मस्तिष्क दोनों की थाह पायी जा सकती है। जो लोग चलते-चलते अकेले ही कुछ न कुछ बड़बड़ाते रहते हैं, अपने हाथ हिलाते रहते हैं, सीधे चलने की बजाय इधर-उधर देखते हुए चलते हैं, निरूद्देश्य घूमते रहते हैं, जहां मन हुआ वहां बिना किसी काम के बैठकर घण्टों बेतुके विषयों पर निरर्थक गप्पे और डींगे हांकते रहते हैं, पालतु कुत्तों की तरह थोड़ी सी झूठन पा जाने के फेर में दुम हिलाते हुए कहीं भी अपनी मौजूदगी दर्शा देते हैं, कभी चुपचाप नहीं रह कर हर क्षण बोलते रहने का स्वभाव पाल लेते हैं। सामने वाले में सुनने और समझने की कोई इच्छा न होते हुए भी फालतू का बकवास किए जाते हैं। ऐसे लोग सोने के समय को छोड़ दिया जाए तो शेष पूरे समय आवाराओं की तरह घूमते और व्यवहार करते नज़र आते हैं।
इस किस्म के लोगों के पास अपना कहने को कोई काम नहीं होता लेकिन बिना काम के घर से जल्दी निकल जाने और देर शाम या रात तक लौटने के आदी होते हैं। इन लोगों को कोई भी दूसरे लोग चाय-समोसों या खाने-पीने अथवा खुश कर देने की बात कह कर पालतु पशु की तरह कहीं भी ले जा सकते हैं या बिना किसी काम से घण्टों बिठाये रख सकते हैं। घर-परिवार और समाज से दुःखी और आत्म अवसादग्रस्त ऐसे लोगों की हमारे यहां कोई कमी नहीं है। हमारे आस-पास खूब सारे लोग ऐसे हैं जिनके पास पागलपन और मानसिक रोगी होने का कोई स्पष्ट सर्टीफिकेट भले नहीं हो मगर इनकी कार्यशैली, व्यवहार और अभिव्यक्ति के सारे रंग-ढंग पागलपन से कम नहीं हैं। इन लोगों को कहीं भी डेरा जमाकर अथवा अपने डेरे पर मजमा लगाकर बकवास पुराण बाते हुए सुना जा सकता है। कई लोग हमेशा इतना सारा गांभीर्य ओढ़ लेते हैं कि उनके आदमी होने का पता ही नहीं चलता, सिर्फ पद और प्रतिष्ठा के अहंकार का लबादा हमेशा उनके जिस्म के साथ ही मन-मस्तिष्क और सभी इन्द्रियों पर आवरण की तरह चस्पा होता है। इन लोगों को लगता है कि वे खुद कुछ नहीं हैं, जो है वह पद, बड़े लोगों की चापलुसी, प्रतिष्ठा और पैसे के कारण से है इसलिए इन लोगों को आत्माभिमान कभी नहीं छू सकता बल्कि पराभिमान से तरबतर रहते हुए अहंकार के झण्डे झुकाये हुए शोक और गांभीर्य के साथ जीने को विवश हो जाते हैं।
आम आदमियांे को देखें तो पता चलेगा कि उनमें भी उन्मादी और उद्विग्नों की कोई कमी नहीं है। इन्हें पहचानना तो बड़ा ही आसान है। जैसे रास्ता एकदम खाली होने के बावजूद कई बाइकर्स तेज गति के साथ लगातार तेज हॉर्न बजाते हुए चलते हैं। सामने या आगे-पीछे किसी भी वाहन या राहगीर के नहीं होने के बावजूद कई लोगों की आदत में ही शुमार है कि ये लोग बेवजह प्रेशर हॉर्न बजाते रहते हैं और घनी आबादी वाली बस्तियों और मार्गों पर भी स्पीड़ बढ़ाकर चलते हैं। ऐसे लोग साफ तौर पर उन्मादी होते हैं और अपने जीवन के किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते हैं अथवा खूब मेहनत के बाद भी पूरा फल प्राप्त नहीं कर पाते हैं। कई सारे लोग बिना कुछ सोचे समझे मुख्य रास्तों पर बातें करने खड़े हो जाते हैं या वाहन पार्क कर देते हैं। जो लोग दूसरों की समस्या के प्रति इस प्रकार से संवेदनहीन होते हैं उनके प्रति प्रकृति पूरी जिन्दगी संवेदनहीनता के भाव दर्शाती है। क्योंकि पिण्ड और ब्रह्माण्ड का सीधा रिश्ता है।
भले ही यह दिखे नहीं लेकिन अदृश्य शक्ति रश्मियों से आपस में इस कदर जुड़े होते हैं कि एक-दूसरे का प्रभाव पूरी तरह परिलक्षित होता है। इसलिए यदि प्रकृति के उपहारों को पूर्णता के साथ प्राप्त करना चाहें तो पिण्ड से भी अर्थात अपने स्तर पर भी उन मूल्यों को अपनाएं जिनकी अपेक्षा प्रकृति और समुदाय हमसे रखते हैं। इन दोनों के स्वभाव और लक्ष्यों में समानता होने पर व्यक्ति के सभी कर्मों को पूर्णता प्रदान करने में प्रकृति और ईश्वर तत्व भी मददगार होता है लेकिन इनकी उपेक्षा करने पर व्यक्ति लाख परिश्रम और सामर्थ्य के बावजूद आत्मशांति और सुकून नहीं पा सकता चाहे वह भोग-विलास और ऐश्वर्य के कितने ही संसाधन अपने पास क्यों न जुटा ले। आजकल यही स्थिति चारों ओर है। लोग प्रकृति को समझ नहीं पा रहे हैं और वे सारे काम कर रहे हैं जिनसे प्रकृति और विधाता दोनों कुपित हो जाते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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