गृहस्थी की सफलता के लिए..... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

गृहस्थी की सफलता के लिए.....


जरूरी है अतिथि यज्ञ !!!


जीवन के सभी चारों आश्रमों के लिए अपने-अपने कर्म और फर्ज निर्धारित हैं। इसमें सर्वाधिक कत्र्तव्य कर्म गृहस्थाश्रम से संबंधित हैं और यही सभी धर्मों का वह मूल है जिससे दूसरे सभी आश्रमों को भी सम्बल प्राप्त होता है। गृहस्थाश्रम के सारे दायित्व ही ऎसे हैं जिन पर टिका हुआ है समाज और परिवेश का बहुआयामी प्रबन्धन। गृहस्थाश्रम के और सारे कर्मों को छोड़ भी दिया जाए तो रोजाना के जीवन में अन्य कामों की तरह अतिथि सेवा और अतिथि यज्ञ की नियमितता भी जरूरी है और इसके बगैर न जीवन को पूर्णता प्राप्त हो सकती है और न ही हमारी ऊध्र्व गति संभव है। मनुष्य के लिए सेवा, परोपकार और जरूरतमन्दों को संबल-प्रोत्साहन सबसे बड़े फर्ज के रूप में समाहित हैं। इन सभी में अतिथि यज्ञ को जीवन से निकाल दिया जाए तो मनुष्य के जीवन का कोई मूल्य नहीं है।

अतिथि का अर्थ उस प्रकार के लोगों से है जो बिना किसी पूर्व निर्धारित समय के अपने आप हमारे यहां आते हैं अथवा वे लोग हैं जो किसी न किसी कारण से हमारे मेहमान बनते हैं। इन अतिथियों को भगवान के समान माना गया है और इसीलिए कहा गया है - अतिथि देवो भव। लेकिन आज अतिथि यज्ञ का लोप होता जा रहा है और ऎसे में हम अपने जीवन में जो कुछ कर रहे हैं उसे पूर्णता या सफलता प्राप्त नहीं हो पा रही है। आज हम मैं और मेरे परिवार तथा अपने कुटुम्ब तक ही सिमट कर रह गए हैं और इनके अलावा समाज में या अपने आस-पास क्या कुछ हो रहा है, इससे हमें कोई सरोकार ही नहीं रहा है, न ही हमारी संवेदनशीलता उन लोगों के प्रति रही है जो हमारे आस-पास हैं या हमसे संबंधित हैंं।

विराट आकार पाए समाज और आक्षितिज पसरी हुई प्रकृति के बीच रहते हुए भी हम नितान्त अकेले रहने के आदी हो गए हैं। हमारे स्वार्थों और कछुआछाप वृत्तियों ने हमें इतना सिमटा कर रख दिया है कि हम जहाँ रह रहे हैं वहाँ खुले आकाश और पसरे हुए आँगन के बावजूद नज़रबन्द जैसी स्थितियों में हैं और हताशा इतनी कि कोई पूछे तो कहने लगते हैं कि टाईमपास कर रहे हैं अथवा दिन काट रहे हैं। हमें यह कहते हुए न तो शर्म आती है और न ही उस ईश्वर का ध्यान जिसने हमें सतत कर्मयोग और सृष्टि की सेवाओं के लिए मनुष्य का चौला देकर यहाँ भेजा हुआ है। आज हमारे स्वार्थ हम पर इतने हावी हो चले हैं कि हम अतिथियों की सेवा और सुश्रुषा भूल कर इन संकल्पों को लेने लगे हैं कि अतिथि हमसे दूर ही रहें। हम अतिथियों से दूर भागने लगे हैं तथा भूले-भटके कोई अतिथि हमारे यहां आ भी जाए तो हम इस कोशिश में पूरे मन से जुट जाते हैं कि जितना जल्दी हो वह हमसे दूर चला जाए ताकि हम फिर अपने दड़बे में घुस जाएं अपने स्वार्थों का चिंतन कर उन्हें साकार करने में।

कई लोेग और परिवार तो ऎसे हैं जिन्हें अतिथि नाम तक से चिढ़ होती है और इनके लिए वह दिन जिन्दगी का सबसे बुरा होता है जब कोई अतिथि उनके यहाँ आ धमकता है। जबकि अतिथियों के लिए भोजन-पानी और आराम का प्रबन्ध करना हमारा वह फर्ज है जिसे हर हालत में शास्त्र सम्मत माना गया है। जो ऎसा नहीं करता है उसे चोरी माना गया है। हमारे रोजाना के भोजन से भी अतिथियों के लिए खाना-पीना निकालने के लिए शास्त्र की आज्ञा है और इसे ही अतिथि यज्ञ माना गया है। अतिथि यज्ञ किये बगैर हमें भी भोजन का अधिकार नहीं है। लेकिन आज अतिथि यज्ञ को लोग भुला बैठे हैं और यही कारण है कि हमारी गृहस्थी में समस्याओं, संकटों, व्याधियों तथा दरिद्रता का साया पसरने लगा है। जिन घरों से अतिथि रुष्ट या अतृप्त होकर जाते हैं उन घरों से देवी-देवता भी पलायन कर जाते हैं, इन घरों में लक्ष्मी भी नहीं ठहरती।

गृहस्थी को ठीक-ठाक संचालन करने के इच्छुक लोगों को चाहिए कि वे अतिथियों का सम्मान करें, उनकी सेवा करें और उन्हेें इस प्रकार का आतिथ्य दें कि वे अपने यहाँ से प्रसन्न होकर जाएं। लेकिन यह सब कुछ बेमन से या कुढ़ते हुए नहीं बल्कि आत्मिक आनंद के साथ होना चाहिए। हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अतिथि वहीं जाते हैं जिस घर में सौभाग्य का वास होता है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि अतिथियों का आदर-सम्मान करने से घर-परिवार में सौभाग्य और सुख-समृद्धि आने लगती है और अपने जीवन की समस्याओं का  समाधान होता है। अतिथि यज्ञ का पुण्य अनन्त और अक्षय होता है और इससे ग्रहों तथा नक्षत्रोें से संबंधित बाधाओं का शमन भी होता है। जिस घर की ओर अतिथियों का रुख बंद हेा जाता है उसे श्मशान समान माना गया है। हर गृहस्थ का यह धर्म है कि अतिथि सेवा करे। जो ऎसा नहीं करते उन्हेंं सद्गृहस्थ नहीें माना जा सकता है और ऎसे लोगों की गृहस्थी संकटों से घिरी हुई रहती है भले ही ऎसे लोग बडे़-बड़े ओहदों पर हों या अकूत धन-सम्पदा के स्वामी हों।

जो लोग अतिथियों की सेवा नहीं करते हैं उन्हें धार्मिक गतिविधियों, अनुष्ठानों और यज्ञों का अधिकार भी नहीं है क्योंकि अतिथि यज्ञ दैनंदिन पंच यज्ञ में शामिल है और जो इसका उल्लंघन करता है उसे किसी भी धार्मिक गतिविधि में सहभागी होने का अधिकार नहीं है और ऎसे लोगों को कोई यदि मोह वशात् शामिल कर भी लेता है तो दोनों ही को पाप का भागी होना पड़ता है। गृहस्थी की बुनियाद ही टिकी हुई होती है अपने दैनिक पंच यज्ञों पर। और जो लोग चरम स्वार्थों और अपने ही घर भरने के लिए अतिथि यज्ञ का अवलंबन नहीं करते हैं उनकी गृहस्थी की नींव हिलने लगती है तथा इन लोगों को जीवन का कोई आनंद प्राप्त नहीं होता। इसलिए अतिथियों को सम्मान दें और उनका ख्याल रखें वरना भगवान या प्रकृति रूठ गई तो कहीं के नहीं रहने वाले। फैसला हमें ही करना है।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413006077

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