कायरता है तटस्थ बने रहना ...... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 31 जनवरी 2013

कायरता है तटस्थ बने रहना ......


हर मामले में स्पष्ट भूमिका अपनाएँ !!!


घर-परिवार की बात हो या समाज, अपने क्षेत्र या फिर प्रान्त या राष्ट्र की बात हो, हर मामले में व्यक्ति को अपनी स्पष्ट भूमिकाओं में होना चाहिए।  भगवान की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में आए मनुष्यों में से बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो किसी भी मामले में अपनी स्पष्ट छवि या राय निर्मित नहीं कर पाते हैं। कुछ लोग अंधे अनुचर होते हैं, कुछ में इतनी अकल ही नहीं होती कि उन्हें कब और क्या करना या कहना चाहिए। काफी संख्या में लोग ऐसे हैं जो कहे तो जाते हैं बुद्धिजीवी या प्रबुद्धजन, मगर  किसी भी मामले में वे भौंदू की तरह बने रहते हैं।

ये लोग किसी भी बात को अपनी लच्छेदार शैली में कहने के आदी होते हैं मगर तब जब इनका कहीं कोई रिश्ता या स्वार्थ हो। कई लोग ऐसे होते हैं जो खुद नहीं बोलते, दूसरों के मुँह से बुलवाने का कौशल रखते हैं जबकि कई इतने शातिर हुआ करते हैं कि कभी मुँह नहीं खोलते और चुपचाप सारे लाभों और स्वार्थों भरे कामों में दिन-रात लगे रहते हैं। एक आम आदमी अपनी बात जितने साफ तरीके से सीधे-सादे शब्दों में कहने का सामर्थ्य रखता है उतना सामर्थ्य या साहस उन लोगों का नहीं रह पाता जो खूब पढ़-लिख गए हैं, पद-प्रतिष्ठा और ऊँचे पद या पॉवर पा गए हैं अथवा समृद्धि के द्वार तक दस्तक दे चुके हैं या बड़े कहे जाने लगे हैं। 

बौद्धिक सम्पदा पा जाने के बाद व्यक्ति में विनम्रता और समाज तथा देश के लिए जीने-मरने तथा अच्छे-बुरे के बारे में स्पष्ट राय देने या अभिव्यक्ति करने का जो माद्दा और ज़ज़्बा विकसित होना चाहिए था अब उसका ठीक उलटा हो गया है। कुछ दशक पहले तक लोग सच का पक्ष लेते थे, अच्छे कामों की सराहना किया करते थे और जो काम या विचार समाज के व्यापक हित में नहीं हुआ करते थे उनके प्रति साफ तौर पर नाराजगी के भाव व्यक्त करने और इनसे दूर रहने का साहस रखते थे। उस जमाने में जो बुरा है उसे बुरा कहने का साहस भी था और अच्छे लोगों तथा अच्छे विचारों को संबल और हरसंभव प्रोत्साहन देने की भावना भी। उस जमाने का आदमी परिवेश और संसार से लेकर घर-परिवार और समुदाय के बारे में जो भी सोचता और करता था वह सर्वांगीण कल्याण और मानवीय संवेदनाओं की कसौटी पर कसने के बाद निश्चय करता था।

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हर काम धर्मसंगत और लोकसम्मत हुआ करता था। यही कारण था कि आदमी अपने बारे में भी न्याय करता था और जो कहता व करता था वह भी न्यायोचित ही होता था। इस कारण से सामाजिक एवं परिवेशीय व्यवस्थाएं पूरे संतुलन के साथ काबिज थीं। आज दो किस्मों के आदमियों का हमारे यहाँ बाहुल्य है। एक वे हैं जो भ्रष्टाचार, बेईमानी और हड़प संस्कृति के अभ्यस्त हो गए हैं और इनका मानना है कि संसार में जो भी संसाधन और सुख-सुविधाएँ हैं वे सब उन्हीं के लिए हैं और ऐसे में चाहे जो भी उपाय अपनाना पड़े, अपना कर भी दुनिया भर का भोग-विलासी ऐश्वर्य पा लिया जाए।

इस किस्म के लोगों के लिए न मानवीय संवेदनाओं का कोई अर्थ रह गया है, न मानवीय मूल्यों, आदर्शों और नैतिक चरित्र का। बल्कि यों कहें कि ये लोग लूट-खसोट की संस्कृति को अपना चुके हैं और इसलिए इन्हें मरते दम तक इस बात का कभी अहसास नहीं हो पाता कि ये जो करते आ रहे हैं वह मानवता के लिए कलंक है और इसका खामियाजा समाज को युगों तक भुगतना पड़ सकता है। दूसरी किस्म के लोगों में वे हैं जिन्हें सच और झूठ, न्याय-अन्याय, आचार-अनाचार और अच्छे-बुरे की समझ जरूर है लेकिन ये लोग अपने घर-परिवार और पद-प्रतिष्ठा अथवा बिना मेहनत के खुशहाली पा जाने के फेर में समाज, परिवेश तथा देश में बुराइयों, झूठ, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार और मानवीय मूल्यों का चीरहरण देखते रहने के बावजूद चुप बैठे रहते हैं। 

इनमें उन लोगों की संख्या खूब ज्यादा है जिन्हें बुद्धिजीवी कहा जाता है और समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मोयलों या धुंध की तरह छाए हुए हैं। इनकी पूरी जिन्दगी को एक शब्द में ‘तटस्थ’ कह कर अभिव्यक्त किया जा सकता है। सब कुछ देखने-सुनने और जानते-बूझते हुए भी ये लोग घोर चुप्पी ओढ़े रखते हैं। इसके पीछे दो कारण हुआ करते हैं। एक तो इनके स्वार्थ अपने आप पूरे होते रहते हैं, कभी सामने से या कभी बैक डोर से, पद और प्रतिष्ठा का सुख भी मिलता रहता है और लोगों की वाह-वाह भी। 

ऐसे लोगों के मुँह पर स्वार्थों का बड़ा सा ताला लगा रहता है और इनकी मान्यता होती है कि बेवजह बुराई क्यों मोल ली जाए। इन्हें यह भी लगता है कि स्पष्ट अभिव्यक्ति की दशा में उनके वाजिब-गैरवाजिब लाभ छीनने का भय हमेशा बना रहता है और चुपचाप रहने का फायदा यह है कि सब लोग समझते हैं कि यह उनका आदमी है। ऐसे में आदमी का चरित्र बाहर पता नहीं लग पाता। दूसरी किस्म में वे लोग आते हैं जिन पर समाज की बौद्धिक क्षमताओं के संवहन का जिम्मा होता है। ये लोग बिना किसी स्वार्थ के भी मौन रहने के आदी रहते हैं और अपनी ही मस्ती में रहते हैं। समाज और परिवेश की घटनाओं के प्रति इनकी सारी संवेदनशीलता मर चुकी होती है और ऐसे में ये स्वयंस्फूर्त जड़ता को ओढ़ लेते हैं तथा पूरी जिन्दगी ऐसे ही बने रहते हैं कि जाने उन्हें संसार से कुछ लेना-देना नहीं हो, जब तक कि उनके ऊपर कुछ न आ पड़े।

दोनों ही प्रकार के तटस्थ लोगों का आज भरपूर जमावड़ा हर कहीं है। अपने क्षेत्र में ऐसे खूब लोगों की भरमार है जिनके दोनों ही तट अस्त हो गए हैं और वे तटस्थ बने हुए हैं। समाज और दुनिया की दिशा और दशा बदलने का सामर्थ्य रखने वाली मनु की संतान आज निष्प्राण, बेदम और बिकाऊ होती जा रही है और इस वजह से हर मामले में तटस्थ है। यह तटस्थता ही समाज और देश की तमाम समस्याओं और बुराइयों की एकमात्र जड़ है जो पूरी सभ्यता, संस्कृति और अपने महान देश भारत की जड़ों को खोखला कर रही है।

कहीं कुछ भी हो जाए, अपने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। दो-चार घड़ियाली आँसूओं और बनावटी चेहरा बना लेने के सिवाय हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। तटस्थ होना अपने आप में कायरता है और जो कायरता को अपना लेता है वह मनुष्य होने का स्वाभिमान, गौरव और गर्व भुला देता है। तटस्थता अपना कर कायरता से स्वार्थ पूर्ति का शहद चाटने वाले लोगों को शायद यह पता नहीं है कि उनकी यह कायरता उनकी संतति में भी संवहित होने वाली है और ऐसे में उनकी आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा, यह उन्हें गंभीरता से सोचना होगा क्योंकि आने वाले समय में उनकी पीढ़ियों के लिए उस तरह के संरक्षक या आका भी नहीं रहेंगे जैसे कि आज उनके पास हैं और जिनकी वजह से इन लोगों ने तटस्थता अपना रखी है।

फिर समाज और देश के लिए तटस्थ बने रहने वाले लोगों को इतिहास न सिर्फ भुला देता है बल्कि कोई इन लोगों का बेवजह स्मरण करना भी पाप समझने लगता है। तटस्थ बने रहने वाले लोगों को भगवान भी दण्ड देता है और उन्हें अगले जन्म में विलायती बबूल, बेशर्मी या दूसरे नाकारा जंगली पेड़-पौधों के रूप में पैदा करता है जहाँ पूरी जिन्दगी बिना हिले-डुले तटस्थ बने रहने के सिवा कोई चारा नहीं होता। अपनी मौजूदगी में जो भी बात सामने आए, अपनी बेबाक राय रखें, स्पष्ट भूमिका के साथ सहयोग या असहयोग अपनाएं और जो सही व सटीक है उसी का पक्ष लें, बुरे लोगों तथा बुराइयों को हतोत्साहित भी करें और इनके बारे में जमाने में अपनी साफ राय भी रखें। यह राय अंदर-बाहर सब तरफ एक ही होनी चाहिए और जो बेबाक राय हम सामने रखें वह बिना किसी भय और संकोच के सार्वजनिक रूप में सभी के सामने रखें।

जो व्यक्ति जितना अधिक सरल, सहज और स्पष्ट होता है वही दुनिया में अपना मौलिक प्रभाव छोड़ पाता है, कुटिलताओं और तटस्थता अपना चुके कायर कभी नहीं। तटस्थ रहने वाले लोग वृहन्नलाओं और पशुओं से भी गए बीते होते हैं और इनकी वजह से समाज और देश सदियों पीछे चला जाता है। यह बात दुनिया में स्वतः सिद्ध हो चुकी है। अब यह हम पर है कि तटस्थ बने रहकर अपने मानव जन्म, अपने पूर्वजों, माता-पिता और वंश गौरव को धिक्कारते रहें अथवा हर मामले में स्पष्ट रहकर जमाने में अपने सुदृढ़ और बेबाक व्यक्तित्व की यादगार छाप छोड़ें।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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