जाजम पर बैठने से शर्माने वाले...... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

जाजम पर बैठने से शर्माने वाले......


नहीं होते जमीन से जुड़े हुए !!!!


आजकल लगभग सभी प्रकार के कार्यक्रमों में तीन किस्मों के लोगों की भीड़ नज़र आने लगी है। बात किसी भी धार्मिक, सामाजिक, साँस्कृतिक आयोजन की हो या और किसी प्रकार का कोई अवसर। गोष्ठियों, सभा-समारोहों और सामाजिक रस्मों  से भरे किसी भी अवसर पर पुराने, शालीन और संस्कारित लोगों का समूह जहाँ जाजम पर आसानी से बैठने को ही आनंददायी और गरिमामय मानता है वहीं दूसरी किस्म उन आदमियों की है जो हट्टे-कट्टे और जवान होने के बावजूद जाजम पर बैठने में शर्म महसूस करते हैं और परहेज करते हैं। इन लोगों को जाजम पर बैठना तनिक भी नहीं सुहाता। ऐसे लोगों में अहंकार तो पूरी तरह भरा होता ही है, शालीनता और अनुशासन भी इनकी जिन्दगी से दूर रहते हैं। हर प्रकार के कार्यक्रमों में आजकल बुजुर्गों, अशक्तों और घुटने के दर्द से पीड़ित लोगों के लिए कुछ कुर्सियों का प्रबंध रहने लगा है ताकि इन लोगों को दिक्कत न हो। लेकिन दिख यह रहा है इन कुर्सियों पर भी किशोर और जवान लोग बैठ जाते हैं।

बिना किसी कारण के इस प्रकार का उनका व्यवहार उनके अनुशासनहीन और स्वच्छन्द व्यवहार को दर्शाता है। इन लोगों की इस एकमात्र हरकत से अंदाज लग जाता है कि ऐसे युवाओं या किशोरों को उनके परिवार या समाज से अथवा अपने करीबियों से संस्कार प्राप्त नहीं हो पाए हैं और इनके लिए मर्यादाओं का कोई मूल्य शेष नहीं रह गया है। एक तरफ अपने से आयु में बड़े लोग नीचे जाजम पर बैठे हों, और हम कुर्सियों में धँस जाएं, यह हमारे लिए शर्मनाक तो है ही, इस बात को भी सिद्ध करता है कि हमारा जीवन और वृत्तियां जमीन से जुड़ी हुई नहीं हैं तथा न हममें जमीर रहा है, न हम जमीन पर हैं।  आजकल होने वाले सभी कार्यक्रमों में अक्सर यही देखने को मिलता है। पिछले कुछ वर्ष से शुरू हुआ मर्यादाहीनता का यह दौर अब परवान पर है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह स्थिति अब सामाजिक कार्यक्रमों में भी देखने को मिल रही है।

इसे हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं की मर्यादाओं के हनन तथा नई पीढ़ी की स्वेच्छाचारिता के रूप में देखा जाना चाहिए जहाँ न बड़े-बुजुर्गों का सम्मान रहा है, न समाज की जाजम का, जिसने युगों तक हमें अनुशासन और सामाजिक मर्यादाओं के स्वर्ण सूत्र में बांधे रखा है। यह सामाजिक ग्र्रंथियों का ताना-बाना अब जीर्ण होने लगा है और नई पीढ़ी के लोग जाने इसे किस दिशा में ले जाएंगे, कुछ नहीं कहा जा सकता। जिन लोगों को ईश्वर ने हृष्ट-पुष्ट बनाया है और जमीन से जुड़ कर रहने के मौके दिए हैं, वे लोग असमय बुजुर्गों सा व्यवहार करने लगे हैं और अभी से आरामतलबी के लिए कुर्सियों की तलाश में रहने लगे हैं। लानत है इन पशु-बुद्धि लोगों पर।

इन्हें पता नहीं है कि इनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी न केवल इसी इतिहास को  दोहराती रहेंगी बल्कि इससे भी आगे बढ़कर जाने क्या कुछ नहीं करेंगी। तब कहीं जाकर असमय बुजुर्ग हो चुके हमारे इन जवानों को अहसास होगा, लेकिन तब वे कुछ नहीं कर पाएंगे क्योंकि वे दिन उनकी वापसी के दिन होंगे। पता नहीं कब विकेट उड़ जाए। सामाजिक संस्कारों की पुनर्स्थापना के लिए अभी से प्रयास होने पर ही भविष्य की इन संभावनाओं को समाप्त किया जा सकता है।  जाजम पर बैठने से हिचकने वाले लोगों की मानसिकता कुछ विचित्र ही हुआ करती है। उनका मानना होता है कि ऐसा कर लिए जाने से वे दासत्व बोध या बंधन से बंध जा सकते हैं। इस मानसिकता के लोग जिम्मेदार भी नहीं कहे जा सकते क्योंकि जो लोग किसी भी अवसर पर समर्पित भागीदारी से दूर रहते हैं वे अपनी, परिवार की अथवा समाज या क्षेत्र की किसी भी प्रकार की जिम्मेदारियों को उठा पाने में सक्षम नहीं होते, और इसी कारण दूर-दूर से देखते रहते हैं।

आदमियों की एक तीसरी किस्म और देखने में आती है। जो न जाजम पर बैठ पाती है, न कुर्सियों पर। इस किस्म के लोग दोनों हाथों को बांध कर या बेवजह अभिवादन या मुस्कान मुद्रा में भीड़ की तरह चारों और जमा रहकर ही सब कुछ देखने के आदी होते हैं। इस किस्म के लोगों के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की जाए तो साफ पता चलेगा कि इनमें से अधिकतर लोगों का न कोई जुड़ाव होता है और न किसी प्रकार की संवेदनशीलता। इस किस्म के सारे लोग लगभग टाईमपास और तमाशबीन ही होते हैं जिन्हें अवसरों की उपादेयता, महत्त्व और लक्ष्य से कोई सरोकार नहीं होता बल्कि सिर्फ औपचारिकता के लिए आ धमकते हैं और वह भी इसलिए कि नहीं आने पर कोई उलाहना न मिले।

तीसरी श्रेणी के ये लोग जितने समय समारोह, सभा या कार्यक्रम में रहेंगे, चारों ओर घूम-घूम कर अथवा मुख्य स्थलों पर चक्कर काटते रहकर सभी की नज़रों में आने का प्रयास करते रहते हैं ताकि सभी लोगों की निगाह उन पर पड़ जाए और उनकी पावन और गरिमामय उपस्थिति का एकबारगी अहसास सभी को जरूर हो जाए।  इसी में वे अपनी सफलता मानते हैं। आजकल सभी तरफ पारिवारिक, सामाजिक संस्कारों के अभाव, उन्मुक्त जीवनशैली और अमर्यादित आचरणों का हो रहा खुला प्रदर्शन इस बात को इंगित करता है कि हमारी प्राचीन गौरवशाली परंपराओं का ह्रास इस सीमा तक आ पहुंचा है जहाँ हमें ही कुछ करना होगा अपने परंपरागत आदर्शों को फिर जीवनदान देने के लिए।

ऐसे में हमारी उच्छृंखल पीढ़ी पर कठोरता से लगाम कसने के लिए घर-परिवार के लोगों को ही आगे आना होगा। ऐसा हम अभी नहीं कर पाए तो संस्कारहीनता का प्रदूषण हमारे पूरे समाज और परिवेश को ले डूबेगा। यह स्थिति इस बात को भी इंगित करती है कि संस्कारहीन होते जा रहे लोगों में मूल परम बीज तत्व भी कहीं न कहीं प्रदूषित होता जा रहा है जिसके परिणाम हम भुगतने लगे हैं। वरना परंपरागत शुचितापूर्ण रहे बीज तत्वों में इस प्रकार की अनुशासहीनता और संस्कारहीनता कभी आ ही नहीं सकती।




---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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