चाल सियासत की : चुनावी जंग और राष्ट्रहित - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

चाल सियासत की : चुनावी जंग और राष्ट्रहित


वास्तविक अर्थों के बदलते ही अनर्थ का आगमन आहिस्ते से होने लगता है। जीवन के आयामों की संतुलित गति दिशा विहीन हो जाती है। खुशनुमा माहौल अनजाने धुधंलके में समाने लगता है, ऐसे में किसी अप्रत्यक्ष संकट की आहट सुनाई देने लगी है। कलम की सिपाहियत, समाज की चौकीदारी से ज्यादा कुबेरों की सुरक्षा में लगी है। उसकी नोंक से आइने पर हकीकत की इबारत नहीं उकेरी जा रही है बल्कि आइने को ही खरोंचने का जतन किया जा रहा है। दर्पण का यह दर्द कौन जानता है, सिवाय उसके। दर्पण बनकर समाज को प्रतिबिम्ब दिखाने का काम करने वालों का जमाना लद गया है। ‘सैनिक’ अखबार पर ‘मत्त’ का प्रलाप स्वाधीनता संग्राम में गिलहरी के प्रयास को परिलक्षित कराता रहा। परिणामस्वरूप एक छोटे से अखबार की नन्ही सी कलम ने पहाड सी मंजिल में अपना अनूठा योगदान कर अमरत्व प्राप्त कर लिया।

स्वाधीनता संग्राम में आजादी की सांसों के लिए सभी ने मिलकर प्रयास किया। कलम का लक्ष्य निर्धारित था, गति देने वालों में साधकों की विरादरी का नेतृत्व था और था अनुशासन को स्वीकरने का साहस। कलम धर्म की धारणा ने वास्तविक मूल्यों को अंगीकार किया था। मूल्यों के अर्थ भी आइने पर साफ थे। देशकाल, काल और परिस्थितियों के बदलते ही हम स्वतंत्र नहीं स्वच्छन्द होने लगे। हवा की आजादी ने मन को मनमानियों की तूफानी गति दे दी। दर्शन और दार्शनिकता चिन्दी-चिन्दी होकर बिखर गई। आस्था के अम्बर को प्रदूषण के बादलों ने ढकना शुरू कर दिया। सूरज की लालिमा धरती तक आते-आते लुप्तप्राय होने लगी। नारद के साधक अभावों से दो-दो हाथ करने के लिए मजबूर होने लगे। परिवारिक दायित्व सामाजिक सरोकारों से ज्यादा महात्वपूर्ण होकर उभरा। कलम के सिपाहियों की सेवायें कुबेर के खजानों की चौकीदारी करने वालों के घर गिरवी रखी जाने लगीं। दूसरों के शब्दों को अपनी जुबान देने को मजबूर कलम, कभी अखबार को काला करती, तो कभी किताबों पर अपात्र का यशगान लिखने को बाध्य होती।

समय ने फिर अंगडाई ली, बदलने की नियत ने बदनियती का जामा ओढ लिया। अब लिखे हुये शब्द, कहे हुये बोल बन गये। खबरें लिखने वाले, खबरें दिखाने वालों के लिए खबरें पैदा करने लगे। इस अंधी होड में मानवता का चीरहरण हर दिन नहीं, हर घंटे किसी न किसी रूप में होता। समाज सेवा का गायन करने वालों के गीत स्वार्थ की ताल पर बेसुरे हो गये, मानवता की संगीत सरिता को अपनी-अपनी ढपली, अपने-अपने राग पर बांधने का प्रयास किया जाने लगा और देवदासी का साधनामयी नृत्य, महफिलों की रौनक बनाने लगा। यह कमाल है उस भौतिकता की पट्टी का, जो सब कुछ देख सकते वाली गांधारी के विवेकी चक्षुओं पर खुद उसने ही बांध रखी है। जब खेत की बाड खुद खेत को खाने लगे तो समझ लेना चाहिये कि अब अधोपतन का श्रीगणेश हो गया है। आज हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि वस्त्रविहीन दृश्यों को दिखाने वाले खुद उसे परिवार के साथ देखने से कतराते हैं। जब सत्य से आंखें मिलाने का साहस नहीं है तो फिर सत्य को स्वीकारने की हिम्मत जुटानी चाहिये। धनलोलुपों का बाजारवाद घर-घर में मण्डी लगाने की फिराक में है, परन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि उनका अपना घर भी इसी समाज में है, जिससे चन्द सिक्कों की खातिर वह स्वयं गन्दा करने पर तुले हैं।

व्यापार के भी अपने कुछ उसूल होते हैं परन्तु आज तो उसूलों का ही व्यापार होने लगा है। ऐसे में कलम को दर्द भरी दास्तां की सौगात देने वालों को अपने वीभत्स अन्त के लिए अभी से तैयार रहना चाहिये। अपवादों की जमात हर समय अपनी उपस्थिति का अहसास कराती रही है, सो आज भी करा रही है। गिरवी रखी कलम की आजादी के लिए उसी समाज के हिम्मतजदा लोगों ने शहादत का सेहरा सजा लिया है। इस दीवानगी में अगर मौत भी दुल्हन बनकर आये तो उसे भी गले लगाने के लिए तैयार लोग आगे आने लगे हैं। आज जरूरत है तो केवल नारदीय परम्परा से जुडी कलम के हथियार से सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा की। कलम के बोलों ने भ्रष्टाचार की चूलें हिलाकर दीं, आम आवाम का मानस 13 दिन की कठिन साधना से ही नये परिदृश्य में दिखने लगा, सफेद कपडों में छुपी कालिख का आभास नेत्रहीनों तक को हुआ। ऐसे में आगामी चुनावी जंग में देश को सुरक्षित हाथों में सौपने की जिम्मेवारी हम सब की है, तो आइये संकल्पित हों राष्ट्रहित के मूल्यों की पुनर्स्थापना के भागीरथी प्रयासों के लिए।





रवीन्द्र अरजरिया
ravindra.arjariya@gmail.com



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