‘‘मैं खूब पढ़ना चाहती हूँ, डाॅक्टर बनना चाहती हूँ क्योंकि हमारे गाँव में बहुत से गरीब और विकलांग हैं जो अपने इलाज नहीं करवा सकते हैं। इनका मुफ्त में इलाज करना चाहती हूँ परंतु स्कूल जाते हुए मुझे बहुत डर लगता है, क्योंकि रोज़ गेट पर आर्मी वाले हमारे स्कूल बैग की तलाशी लेते हैं और एक एक किताबों और काॅपियों को निकाल कर देखते हैं, जैसे हमने कोई चोरी की है। उस वक्त बहुत डर लगता है कि कहीं हमें वह मार न दें‘‘। खौफ और दहशत से भरे यह वाक्य छठी क्लास की छात्रा ज़रीना बी के हैं जो जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती जिला पुंछ स्थित ‘‘किरनी‘‘ गाँव की रहने वाली है। यह गाँव चारो ओर से कंटीले तारों से घिरा हुआ है। जिससे आने जाने के लिए एक गेट से होकर गुजरना पड़ता है। जहां 24 घंटे सेना के जवान तैनात रहते हैं और मर्द हो या औरत सभी की सख्ती से तलाशी लेते हैं। जिसे पार कर ज़रीना बी और उसकी जैसी कई लड़कियां रोज सवेरे मीडिल स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए बाहर जाती हंै।
करीब 700 लोगों की आबादी वाला ‘किरनी‘ पाकिस्तान की सीमा से बिल्कुल सटा हुआ अंतिम इंसानी बस्ती है। भारत और पाकिस्तान के बटवारे के बाद इसका 70 प्रतिषत हिस्सा पाकिस्तान में चला गया है। ‘किरनी‘ की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थिती को करीब से देखने वाले स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि पहले पाकिस्तान का सरहद, इसके बाद ‘किरनी‘ गाँव की आबादी, फिर कंटीले तार और फिर सेना का पोस्ट। एक बार फिर से पूरे परिदृष्य की कल्पना कीजिये। भारत और पाकिस्तान की सीमा पर सेना से पहले आबादी बसती है जिसे सुरक्षा के नाम पर तारों की घेराबंदी के बीच किसी पिंजरे में पंक्षी की तरह कैद कर दिया गया है। जहां के निवासी हर समय पाकिस्तानी फौजियों की बंदूक के निषाने पर होते हैं और अक्सर उनकी गोलियों बेकसूर गांव वालों को अपना षिकार बनाती रहती हैं। सीमा पर तनाव की स्थिती के कारण यहां तैनात जवान न सिर्फ चैकन्ने रहते हैं बल्कि आधुनिक हथियारों से लैस भी रहते हैं। ऐसे में ‘किरनी‘ के निवासियों पर हमेषा उनकी पैनी नजर बनी होती है। सीमावर्ती क्षेत्रों में सेना को विषेशाधिकार प्राप्त होने के कारण कई बार उनकी गतिविधियां भय पैदा करने वाली होती हैं। ऐसे में एक आम इंसान के दिल में इनका डर बैठ जाता है तो बच्चों का क्या हाल होता होगा इसका अंदाजा लगाना मुष्किल नहीं है। वास्तव में दूरदराज़ और तारों के पार होने के कारण यह गांव प्रषासन की नजर से ओझल ही रहता है। जिसके कारण यहां केंद्र और राज्य सरकार की योजनाएं लागू हों या नहीं, किसी को फर्क नहीं पड़ता है। दूसरी ओर नागरिक भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है। जिससे वह योजनाओं से अनजान रहते हुए गरीबी और कठिनाईयों का जीवन जीने को मजबूर हैं। इससे क्षेत्र में षिक्षा का स्तर का आंकलन किया जा सकता है।
गाँव के उप सरपंच मुहम्मद अकबर के अनुसार ‘हमारे बच्चे षिक्षा से वंचित हो रहे हैं, परिवहन व्यवस्था की कमी और बुनियादी सुविधाओं की किल्लत के कारण बच्चे बाहर जाकर षिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं। कुछ ही बच्चे ऐसे हैं जो आगे की पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर निकल पाते हैं। विषेशकर लड़कियां पांचवी के बाद आगे नहीं पढ़ पाती हैं। क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें आर्मी पोस्ट की चेकिंग से होकर गुजरना होता है। जहां पुरूशों द्वारा ही महिलाओं की चेकिंग की जाती है। ऐसे में गाँव में अच्छी षिक्षा के लिए प्राइमरी के साथ साथ मीडिल और उच्च विद्यालय की स्थापना भी समय की जरूरत बन चुकी है। वर्तमान में इस गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय है लेकिन उसकी कोई इमारत नहीं है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि गाँव में षिक्षा व्यवस्था की बदतर स्थिती से कई बार षिक्षा विभाग को आगाह किया जा चुका है, लेकिन अबतक इस संबंध में कोई उचित कदम नहीं उठाया गया है। अलबत्ता आष्वासन जरूर दिया जाता रहता है। आलम यह है कि पांचवीं कक्षा तक करीब 100 छात्र-छात्राएं हैं लेकिन उन्हें पढ़ाने के लिए केवल एक षिक्षक ही उपस्थित रहते हैं। ऐसी परिस्थिती में बच्चों से गुणवत्तापूर्ण षिक्षा प्राप्त करने की आषा कैसे की जा सकती है। आज़ादी के बाद से इस गांव में केवल एक व्यक्ति ही अबतक गे्रजुएट हो पाया है। जबकि एक भी महिला इस सफलता तक नहीं पहुंच सकी है।
गाँव के एकमात्र गे्रजुएट और सामाजिक कार्यकर्ता निज़ामुद्दीन मीर के अनुसार पाकिस्तानी सीमा और सेना के चेकपोस्ट के बीच में होने के कारण ‘किरनी‘ वासियों की जिदगी किसी नर्क से कम नहीं है। एक तरफ वह पाकिस्तानी फौजियों के निषाने पर होते हैं तो दूसरी ओर भारतीय सेना की पैनी निगाह होती है। स्कूल जाने वाले लड़के लड़कियों के स्कूली बैग के अतिरिक्त सर्दियों में उनके गर्म कपड़े उतरवाकर भी तलाषी लिये जाने के कारण अधिकतर बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है। इसके अतिरिक्त आर्थिक तंगी भी इन बच्चों को षिक्षा प्राप्त करने में एक बड़ी रूकावट बन जाती है, क्योंकि हर साल होने वाली जबरदस्त बर्फबारी लोगों के मकानों को खस्ताहाल कर देती है और कई बार अत्याधिक बर्फबारी में ऐसे मकान ढ़ह जाते हैं जिन्हें बनाने में निम्न आय वाले ऐसे लोगों को अतिरिक्त आर्थिक बोझ का सामना करना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर खेती लायक जमीन पर सेना की हलचल और घुसपैठ रोकने के लिए बिछाए गए बारूदी सुरंग के कारण होने वाले नुकसान भी उन्हें प्रभावित करती रहती है। धीरे धीरे अच्छी फसल देने वाली उपजाउ जमीन भी बंजर और चारागाह के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया है। लेकिन प्रषासन अथवा सेना की ओर से कोई मुआवज़ा भी नहीं मिला है। इस संबंध में पीडि़त कई बार सेना के स्थानीय अधिकारियों से मिल चुके हैं लेकिन अभी तक मुआवज़ा के नाम पर केवल आष्वासन ही मिल सका है। अब तो मुआवज़े की उनकी उम्मीद भी खत्म हो चुकी है।
देष में सुरक्षा के नाम पर सीमावर्ती क्षेत्रों में लगाए गए कटीले तारों ने देष के अंदर ही जमीन के दो टुकड़े कर दिये हैं। यहां अपने परायों का आना दुषवार हो चुका है। अपनों से मिलने के लिए उन्हें पहले सेना के अधिकारियों से मिलना होता है और आने का कारण बताना होता है। जो मानसिक रूप से काफी कठिन होता है। इसका परोक्ष रूप से नकारात्मक प्रभाव यहां जीवन बसर कर रहे लोगों की रोजमर्रा की जि़दगी पर पड़ता है। कठिनाईयों और विशम परिस्थिती के कारण दूसरे गांव के लोग यहां अपनी बेटी भी ब्याहना नहीं चाहते हैं। ‘किरनी‘ में पिछले कई वर्शों से कई गैर सरकारी संस्थाएं कार्य कर रहीं हैं अथवा कर चुकी हैं जिनके माध्यम से यहां के लोगों को आजीविका के साधन उपलब्ध हुए हैं। लेकिन सिर्फ गाय और बकरी देकर ही उनका विकास नहीं किया जा सकता है। ऐसे में आवष्यकता है कि यहां ऐसी योजनाओं का संचालन किया जाए जिससे कि उनका दीर्घकालिक विकास मुमकिन हो सके। केवल आष्वासन देने से ही ‘किरनी‘ के जख्म नहीं भर जाएंगे।
मो. अनीसुर्रहमान खान
(चरखा फीचर्स)
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