जीवन का कल्पवृक्ष: कल्पसूत्र - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

जीवन का कल्पवृक्ष: कल्पसूत्र

जैन धर्म की साहित्यिक विरासत में एक से बढ़कर एक अनेक ग्रंथ हैं। हर ग्रंथ की विषय वस्तु और महŸाा अलग-अलग हैं। कुछ ग्रंथों के प्रति कुछ कारणों से जन जीवन में विषेष स्थान बन गया, उनमें से एक ग्रंथ है - कल्पसूत्र। कल्प का आशय है - नीति, आचार-संहिता, मर्यादा और विधि-विधान। जिस ग्रंथ में इन विषयों का निरूपण हुआ है, वह कल्पसूत्र है। पूर्वजन्म, इतिहास, आचार और संस्कृति विषयक इस ग्रंथ के रचनाकार श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी हैं। ष्वेताम्बर जैन परम्परा के मान्य आगम ग्रंथ दशाश्रुतस्ंकध (आचारदशा) का आठवाँ अध्ययन कल्पसूत्र है। इस अध्ययन का इतना महŸव रहा कि आचारदशा से इसे अलग करके ‘कल्पसूत्र’ नाम से एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में स्थान व सम्मान मिला। ठीक वैसे ही, जैसे गीता महाभारत का ही एक भाग होने के बावजूद स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में समादृत है। कल्पसूत्र की महŸाा व लोकप्रियता के अनेक कारण हैं। उनमें पाँच कारण मुख्य हैं - 
  • प्रशस्ति चूलिका सहित नमस्कार महामंत्र
  • भगवान महावीर का उत्कृष्ट जीवन 
  • महावीर-पूर्व 23 तीर्थंकरों की जीवन-झाँकी
  • हजार वर्ष की आचार्य-स्थविरावली 
  • श्रमण समाचारी


नवकार महामंत्र: 
कल्पसूत्र का मंगलाचरण नमस्कार महामंत्र से किया गया है। पंच नमस्कार की प्रशस्ति चूलिका सहित महामंत्र का यह प्राचीनतम साहित्यिक उल्लेख है। नवकार महामंत्र जैनों का सर्वमान्य तथा सार्वभौम सूत्र है। जैन परम्परा में इसे शाश्वत माना गया है। लौकिक और लोकोŸार सुखों को प्रदान करने वाला, साधना व श्रद्धा का केन्द्र नवकार महामंत्र कल्पसूत्र की महŸाा का एक कारण है। 

भगवान महावीर का जीवन:     
कल्पसूत्र में चैबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर का इन्द्रधनुषी जीवनवृŸा दिया गया है। उनके 26 पूर्वभवों के उल्लेख के बाद, माता द्वारा 14 स्वप्न-दर्शन, जन्म, देवताओं एवं मानवों द्वारा जन्मोत्सव, अनासक्त गृहस्थ जीवन, दीक्षा, दुर्धर्ष उपसर्गों से भरी कठोर साधना, कैवल्य, तीर्थ-स्थापना, धर्म-प्रचार और निर्वाण तक के विस्तृत जीवन में श्रद्धा, प्रेरणा और पुरुषार्थ के अनन्त आयाम खड़े होते हैं।  

तेबीस तीर्थंकरों की जीवन-झाँकी: 
कल्पसूत्र में भगवान महावीर के जीवन के बाद तेबीसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ, बाइसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमी, इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान नमिनाथ इस प्रतिक्रम से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान ऋषभदेव तक की तथ्यपूर्ण जीवन-झाँकी प्रस्तुत की गई है। पुश्करवाणी ग्रुप ने जानकारी लेते हुए बताया कि भगवान महावीर से पूर्व चली आ रही तीर्थंकर परम्परा का यह विवरण जैन धर्म की प्राचीनता और ऐतिहासिकता का सबल प्रमाण है। 

वीर निर्वाण संवत् 1000 तक आचार्य-स्थविरावली: 
तीर्थंकर की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में आचार्य उनकी तीर्थ-परम्परा के संवाहक होते हैं। कल्पसूत्र के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के बाद पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी उनके उŸाराधिकारी हुए। सुधर्मा स्वामी से लेकर आचार्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण तक की प्रामाणिक स्थविरावली (पट्ट परम्परा) कल्पसूत्र में मिलती है। इस स्थविरावली की प्रामाणिकता और ऐतिहासिकता मथुरा के अभिलेखों से भी सिद्ध हो चुकी है। 

श्रमण समाचारी: 
जैन धर्म आचरण-प्रधान धर्म है। कल्पसूत्र में साधु-साध्वियों के लिए आचार-संहिता दी गई है, जिसे समाचारी कहा जाता है। आचार से ही चतुर्विध संघ में मर्यादा, अनुशासन और व्यवस्था का निर्माण होता है। आचार के कारण ही श्रमण श्रावक से ज्येष्ठ तथा श्रमणों में भी पूर्व दीक्षित श्रमण ज्येष्ठ माना जाता है। समाचारी विभाग के कारण ही कल्पसूत्र का एक नाम ‘पर्युषणा-कल्प’ है। सूत्र में वर्णित दस कल्पों में अन्तिम पर्युषणा-कल्प है। इसमें वर्षावास स्थापना और पयुर्षण आराधना का विधान और कालमान बताया गया है। 

महिमा के प्रमाण: 
कल्पसूत्र के प्रति जैन धर्मावलम्बियों के हृदय में अपरम्पार आस्था है। उस आस्था का एक प्रबल प्रमाण यह भी है कि जैन ग्रंथ भण्डारों में प्राप्त कल्पसूत्र की शताधिक प्राचीन प्रतियाँ शुद्ध स्वर्ण की स्याही से लिखी हुई हैं। कल्पसूत्र में वर्णित घटनाओं के आधार पर अनेक दुर्लभ चित्रों से मण्डित ग्रंथ भी भण्डारों में पाये जाते हैं। आस्था, कला, चित्रकला, संस्कृति, इतिहास और पुरातŸव की दृष्टि से इन कलात्मक प्राचीन प्रतियों का अत्यधिक मूल्य हैं। मंत्रों में महामंत्र नवकार, पर्वों में महापर्व पर्युषण, श्रमणों में महाश्रमण भगवान महावीर देवों में देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान और मुनियों में निग्र्रन्थ मुनि श्रेष्ठ हैं। कल्पसूत्र में इन सबका गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है। यही वजह है कि वह ग्रंथों में श्रेष्ठ ग्रंथराज बन गया। जीवन को समग्र और श्रेष्ठ बनाने की मंगल प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही कल्पसूत्र का पर्युषण पर्व के दौरान पठन, वाचन और श्रवण किया जाता है। 

आचार्य देवेन्द्रमुनि के संपादन का वैशिष्ट्य: 
कल्पसूत्र पर शताब्दियों से सैकड़ों टीकाएँ और व्याख्याएँ लिखी जाती रही हैं। श्रुतपुरुष आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने भी सन् 1968 में मूलार्थ के साथ आधुनिक हिन्दी भाषा में कल्पसूत्र का शोधपूर्ण सम्पादन-विवेचन किया था। उनके द्वारा व्याख्यायित कल्पसूत्र का एक ओर साधारण पाठकों और स्वाध्यायियों में अपूर्व स्वागत हुआ, दूसरी ओर विद्वत् जगत में भी उसकी भरपूर सराहना हुई। आचार्य श्री आनन्दऋषिजी ने इसे ‘‘महान आवश्यकता की पूर्ति’’ बताया। आचार्य श्री यशोदेव सूरीश्वरजी ने लिखा कि श्री देवेन्द्रमुनिजी द्वारा सम्पादित कल्पसूत्र में अनुवाद की भाषा सरल, सरस और प्रवाहयुक्त है। शैली चिŸााकर्षक है, प्रस्तावना बहुत ही मननीय तथा शोधप्रधान है। आचार्य श्री हस्ती लिखा, ‘‘कल्पसूत्र के आज दिन तक जितने प्रकाशन निकले हैं, उन सभी में यह सर्वश्रेष्ठ है।’’ उपाध्याय श्री अमरमुनिजी लिखा कि इसमें अन्वेषण और तुलनात्मक दृष्टि से श्रमसाध्य सम्पादन हुआ है। मरुधर केसरी मुनि श्री मिश्रीमलजी ने इसकी मुक्त सराहना करते हुए अधिकाधिक प्रचार की हार्दिक मंगलभावना व्यक्त की। इतिहासकार श्री अगरचन्दजी नाहटा ने लिखा, ‘‘आज दिन तक प्रकाशित सभी संस्करणों की अपेक्षा यह संस्करण अधिक महŸवपूर्ण है।’’ पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने भी इसी प्रकार की भावना व्यक्त करते हुए लिखा, ‘‘मेरी दृष्टि से इतना सर्वांग और सम्पूर्ण जन साधारण के लिए उपयोगी संस्करण दूसरा नहीं निकला है।’’ 

इस प्रकार अनेक आचार्यों, सन्तों और विद्वानों ने आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी द्वारा संपादित कल्पसूत्र की मुक्त मन से प्रशंसा की है। यही वजह है कि अब तक हिन्दी और गुजराती में इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। सुख-दुःख में समता, श्रद्धा और मर्यादा का दिग्दर्शन कराने वाला कल्पसूत्र जीवन के लिए कल्पवृक्ष से भी बढ़कर है, जो इच्छित-अनिच्छित प्रशस्त मनोरथों को पूर्ण करता है, गहरी शीतल छाँव देता है और मधुर सुफल भी। पाठकगण श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, गुरु पुश्कर मार्ग उदयपुर से मूल्य 200 रु. अदा कर कल्पसूत्र मंगवा सकते हैं।    

Director : International Centre For Prakrit Studies & Research
Sugan House, 18, Ramanuja Iyer Street, 
Sowcarpet, Chennai – 600001 






- डॉ दिलीप धींग
(निदेषक: अंतर्राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)

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