डाक्टर की राह देखता एक अस्पताल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 31 अगस्त 2013

डाक्टर की राह देखता एक अस्पताल


rural health
देश में स्वास्थ्य की स्थिती को सुधारने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत देश भर में कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। कहीं 102 तो कहीं 108 नाम से एंबुलेंस सेवा भी प्रदान की गई है। इसका मकसद शहर से लेकर गांव स्तर तक स्वास्थ्य के स्तर को सुधारना है। जम्मू कश्मीर जैसे अति संवेदनशील राज्य में एनआरएचएम की कार्य प्रणाली सर्वोत्तम रही है। जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव नजर आने लगा है। पूर्व की अपेक्षा राज्य में अब मातृ और शिशु मृत्यु दर में जहां काफी गिरावट दर्ज की गई है वहीं किशोरी स्वास्थ्य में भी इस राज्य ने उपलब्धि हासिल की है। जम्मू कश्मीर की तरह पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में भी एनआरएचएम के अंतर्गत स्वास्थ्य योजनाएं चलाई जा रही हंै। ताकि दूसरे राज्यों की तरह इस पहाड़ी राज्य के लोगों का स्वास्थ्य बेहतर हो और देश के विकास में उनका भी योगदान हो सके। लेकिन राज्य के स्वास्थ्य विभाग की ओर बरती जा रही उदासीनता के कारण इस योजना की कामयाबी पर ग्रहण लगने का खतरा मंडरा रहा है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अल्मोड़ा जिला स्थित सैल गांव में संचालित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है। जहां पिछले 18 वर्षों से डाॅक्टर की नियुक्ति नहीं हुई है और मरीजों का इलाज़ भगवान भरोसे चल रहा है। जिला के ताकूला ब्लाॅक स्थित चनौदा पंचायत के अंतर्गत पहाड़ी इलाक़े में बना यह अस्पताल मात्र दो कमरों में संचालित हो रहा है। चैंकाने वाली बात यह है कि यह कमरा भी सरकारी भवन नहीं बल्कि एक किराये के मकान में चल रहा है। जिसका किराया 150 रूपया प्रति माह अदा किया जाता है। 

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अस्पताल में डाॅक्टर नहीं होने के कारण इसकी हालत कैसी होगी अन्दाजा लगाया जा सकता है। यहां डाॅक्टर के नहीं आने के पीछे कई कारण हैं। यूं तो अधिकांश डाॅक्टर पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी सेवाएं नहीं देना चाहते हैं। उनका सीधा सा तर्क होता है कि यहां उन्हें जीवनयापन की सुविधाएं नहीं मिलती हैं। कईयों का तर्क है कि डाॅक्टरी की पढ़ाई में लाखों रूपया खर्च करने के बाद भला पहाड़ पर क्यूं चढ़ें? वैसे भी सुविधाओं के नाम पर जब कागजी दिखावे के अतिरिक्त कुछ मिलना नहीं है। दूसरी बात इन इलाकों में गरीब लोग रहते हैं जिनसे किसी प्रकार की कमाई भी तो नहीं है। ऐसे में सरकार को पहाड़ की स्वास्थ्य व्यवस्था पर गंभीरता से सोचना होगा। अल्मोड़ा जनपद के चनौदा कस्बे में हजारों की आबादी वाले इस अस्पताल को डाॅक्टर का इंतजार है। अलबत्ता डाॅक्टर की जगह एक फार्मसिस्ट के भरोसे अस्पताल की पूरी व्यवस्था निर्भर है। ऐसे में यहां के मरीज़ों के लिए कौसानी एक विकल्प है, या फिर अल्मोड़ा जिला अस्पताल अंतिम रास्ता बचता है। गरीबों के लिए कौसानी या अल्मोड़ा या प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराना काफी मंहगा बैठता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि इस डाॅक्टरविहीन अस्पताल की दुर्दशा के बारे में अल्मोड़ा की सीएमओ को जानकारी ही नहीं थी। उन्हें यह भी पता नहीं है कि पिछले 18 सालों से चनौदा का सरकारी अस्पताल किराये के मकान में चल रहा है और मकान मालिक को 27 माह बाद किराया दिया गया है। 

यह एक ऐसी समस्या है जिसके बारे में न तो सरकार और न ही इलाके के सक्रिय स्वंयसेवी संगठनों की नजर पड़ती है। बात-बात पर चक्का जाम करने वाले और नदी नालों को बचाने वाले लोग भी चनौदा की स्वास्थ्य के प्रति बरती जा रही लापरवाही पर चुुप है। दरअसल इन संगठनों की अपनी दूकानदारी भी है, जरा सा दृष्टिकोण और काम करने का तरीका बदलने पर फंड देने वालों के बिदकने का अंदेशा रहता है। जंगल, जल और जमीन की बात करने वालों को चनौदा के अस्पताल संबंधी कार्य के लिए कौन फण्ड देगा? चिंता की बात यह है कि स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही से लोगों को हो रही कठिनाईयों की ओर पंचायत प्रतिनिधियों का ध्यान भी नहीं जाता है। उनके पास इतना समय नहीं है कि गांव वालों को साथ लेकर अल्मोड़ा मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी और डीएम आफिस में धरना दें, क्योंकि इस काम में एक तो कमाई नहीं है दूसरी मेहनत व धैर्य अधिक है। जो मरीज़ सक्षम हैं वह किसी प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करा लेते हैं। कुल मिलाकर गरीब आदमी ही हर तरफ से मुसीबतें झेलता है। 

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अफसरशाही तो देखी लेकिन इतनी गैर जिम्मेदारी उत्तराखण्ड में पहली बार दिखी है। इन सबके पीछे भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा हाथ है। यह रोग पृथक राज्य बनने के बाद तेजी से फैला है। कभी-कभी लगता है कि एक भारत में कितने देश बसते हैं। एक ओर दिल्ली है जहां माॅल और जगमगाते बाजारों की रौनक है तो दूसरी ओर उत्तराखण्ड के डाॅक्टरविहीन अस्पताल और आवश्यकताओं से महरूम ग्रामीण क्षेत्र। जब जिला मुख्यालय के करीबी क्षेत्रों का यह हाल है तो सुदूरवर्ती क्षेत्रों में तो स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। जहां ना तो सड़के हैं ना कोई और विकल्प। नगरीय अस्पतालों की भी हालत बद्तर है। क्या नैनीताल क्या सीमान्त जिला पिथौरागढ़। सबकी हालत एक जैसी। टाॅयलेट में सफाई नहीं, पानी का अकाल, दवाओं का अभाव, कहीं मशीनें नहीं हैं तो कहीं रखरखाव के अभाव में खराब हो चुकी हैं। आला अधिकारियों से पूछते हैं तो रटा-रटाया सा जवाब मिलता है-कि जाॅच करेंगे, हमें तो इस बात की सूचना नहीं है। देखेंगे उच्चाधिकारियों को लिख दिया है। 

शिक्षा और स्वास्थ तो इंसान की मूलभूत आवश्यकता है। लेकिन दुर्भाग्य देखिये, इन्हीं दोनों क्षेत्रों को सबसे अधिक भ्रष्टाचार का दीमक चाट रहा है। यूपी का एनआरएचएम घोटाला हो या बिहार की दोपहर भोजन की दुखद घटना। दोनों ही बदलते भारत के चेहरे पर बदनुमा दाग जैसे हैं। प्राकृतिक आपदा झेल चुके इस राज्य में स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा के साथ मजाक महंगा भी पड़ सकता है। इन दिनों बरसात का मौसम है प्रदूशित पानी से होने वाले रोग पहाड़ में तेजी से फैलते हैं। ऐसे में इतनी बड़ी आबादी वाले एक मात्र किराये के अस्पताल में किसी डाॅक्टर का न होना और क्षेत्रीय विधायक व सांसद का इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर चुप्पी साध लेना राजनैतिक और सामाजिक अकर्मण्यता का प्रतीक है? जिसे ज्यादा दिनों तक छुपाया नहीं जा सकता है। 




विपिन जोशी 
(चरखा फीचर्स)

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