असली इंसान नहीं आते, औरों के प्रभाव में - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 3 मई 2014

असली इंसान नहीं आते, औरों के प्रभाव में

भगवान ने हर इंसान को बुद्धि दी है और उस न्यूनाधिक बुद्धि का इस्तेमाल कर वह जमाने भर मेंं अपने आपको कहीं न कहीं चला लेता है, कमा खाता है। अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग भी अलग-अलग इंसानों में अलग-अलग तरीकों से होता है।

कोई अपनी पूरी बुद्धि का उपयोग करता है, कोई बहुत ही कम। कई सारे ऎसे होते हैं जो अपनी बुद्धि का उपयोग करना तक नहीं जानते, जिंदगी भर दूसरों के भरोसे ही रहते हैं अथवा अपनी बुद्धि किसी न किसी स्वार्थ या प्रलोभन की तराजू में रखकर किसी के वहाँ गिरवी रख देते हैं जो ताउम्र गिरवी ही रहती है और अन्ततः इनकी बुद्धि बंधक ही हो जाया करती है।

इंसान की दो किस्मे आजकल दिखने में आती हैं। एक तरह के इंसान वे होते हैं जो अपनी बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करना न जानते हैं, न कर पाने की कोशिश करते हैं। ऎसे लोगों की बहुतायत ही वह कारण है कि आजकल हर कहीं  गुड़गोबर होने लगा है।

कई सारे लोग अपनी बुद्धि से कोई काम करने की बजाय दूसरों की अक्ल पर चलते हैं और उन्हीं का अंधानुकरण करते हुए जीवन गुजार देते हैं। कुछ स्वामीभक्त लोग एक ही प्रकार की धाराओं में रमे रहते हुए पूरा जीवन जी लिया करते हैं, खूब सारे ऎसे होते हैं जो धाराओं का रुख तथा प्राप्ति की भूख मिटने की उम्मीदों को लेकर औरों के प्रभाव में आ जाया करते हैं।

कई ऎसे होते हैं जो कि छल-कपट और अभिचारों का शिकार होकर दूसरे-दूसरे लोगों की बातों में आकर काम करते हैं। आमतौर पर दूसरों की बातों में वे ही लोग आते हैं जिनका अपना कोई वजूद नहीं होता, सोचने-समझने और ग्रहण करने की शक्ति नहीं होती, खुद कुछ कर पाने में असमर्थ होते हैं और आत्महीनता इस कदर हावी रहती है कि जो कुछ दूसरे कह दिया करते हैं उसे ब्रह्म वाक्य मानकर स्वीकार कर लिया करते हैं।
आजकल इंसान चारों तरफ से सैकड़ों मोहपाशों और अंधियारों से घिरा हुआ है। कुछ ही लोग बचे हैं जो अपने विवेक और स्वयं की बुद्धि का उपयोग कर पाते हैं और अपने स्तर पर निर्णय लेने का माद्दा रखा करते हैं जबकि बहुसंख्य लोग किसी न किसी मामले में औरों के भरोसे जीते हैं व औरों के कहने पर बेमौत मरते भी हैं।

स्वाभाविक तौर पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि के प्रभाव में आकर लोग अपने आपको भूल जाया करते हैं और परायों के डण्डे से हँकने लगते हैं।  न खुद की कोई सोच होती है, न अपने से संबंधित लोगों, परिवेश और क्षेत्र की। जैसा औरों ने कह दिया, वैसा सोचने लगते हैं और उसी दिशा में बिना सोचे-समझे बढ़ चलते हैं।

आजकल ऎसे लोगों की खूब भरमार है जिन्हें दूसरे लोग चलाते हैं जैसे कि वह उनके अपने ही बाड़े के पालतु और फालतु पशु हों। इनमें खुद के बूते न कुछ करने का माद्दा होता है, न कुछ कर पाते हैं बल्कि जो कुछ हैं वह परायों के भरोसे हैं और दूसरों की दया-करुणा और कृपा पर ही जिंदा हैं।

हमारे आस-पास भी ऎसे खूब सारे लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे हैं तो अच्छे लोग, पर उन्हें चला रहे हैं दूसरे लोग। औरों के भरोसे चलने और काम करने वाले लोग अपने पूरे जीवन में न कभी प्रतिष्ठा पा सकते हैं, न इनकी कहीं कोई बात मानता है। ऎसे लोगों से जब भी किसी को कोई काम निकलवाना होता है तब लोग उन्हीं को पकड़ते हैं जिन्हें इनका रिमोट समझा जाता है। जो लोग रिमोट संचालित हैं वे सारे के सारे मानवीय संवेदनाहीन और धरती पर बोझा है क्योंकि इन्हें न इनका वजूद संरक्षित रख पाने का हुनर आता है, न इंसान के महत्त्व का सार्वजनिक प्रकटीकरण करने का कोई सामथ्र्य।

एक समय ऎसा आता है जब इनकी पहचान दूसरों के नाम से होने लगती है और आम लोग तहेदिल से यह स्वीकार कर लेते हैं कि ये लोग नाकारा, नालायक और निकम्मे हैं तथा इनसे कुछ काम निकलवाना हो या किसी का काम बिगाड़ना हो तो उन लोगों से संपर्क किया जाए जिनके कहने पर ये लोग चलते हैं या जो इनके रिमोट हैं।

इंसानियत के लिए यह दुनिया के सबसे बड़े मजाक से कम नहीं है कि जिस इंसान को भगवान ने बुद्धि देकर भेजा है वह अपना भेजा ही जिंदगी भर गिरवी रखे रहे। ऎसे लोगों से समाज और देश की तरक्की की  उम्मीद करना बेमानी ही है। 

जो लोग असली इंसान होते हैं वे न किसी के झाँसे में आते हैं, न किसी की चिकनी-चुपड़ी बातों में, बल्कि ये लोग हर विषय और विचार को अपनी बुद्धि से सोचते हैं और विवेक के अनुरूप ही कार्य संपादन करते हैं। अपने आस-पास देखें और तलाश करें कि कौन लोग असली इंसान हैं, और कौन वे लोग हैं जो दूसरों के इशारों पर चलते हैं।





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- डॉ. दीपक आचार्य
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