हमारी तमाम प्रकार की शक्तियों की दो सुस्पष्ट धाराएँ हैं। एक संहार की क्षमता से परिपूर्ण है और दूसरी सृष्टि की। जहां संहार लक्ष्य है वहाँ कम समय लगता है और संहारात्मकता असर कर जाती है। यह कुछ ही क्षणों में अपना प्रभाव दर्शा दिया करती है।
दूसरी ओर सृष्टि का सामथ्र्य है जिसमें समय लगता है लेकिन ऎसा सुनहरा आकार सामने आता है कि युगों तक इसकी गंध बनी रहती है। इसीलिए रचनात्मक क्रियाशीलता को सर्वोपरि स्वीकारा गया है और इसके लिए हर युग में प्रेरणा संचार होता रहता है।
संहार के लिए किसी को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, चाहे वह संबंधों के मामले में हो या फिर जड़-चेतन कोई सा विषय हो। हर इंसान के पास दो साफ विकल्प खुले होते हैं। एक नकारात्मकता है जिसमें वे सारे काम समाहित हैं जो आदमी के लिए करना वज्र्य माना गया है और इनमें से अधिकांश कर्म निंदित तथा अंधेरे में करने योग्य हुआ करते हैं। दूसरी तरफ सकारात्मक कर्मों का अपना विराट संसार।
इन दो पहलुओं के बीच कभी आदमी का धु्रवीकरण हो जाता है, कभी वह अपने हिताहितों को देख कर पेण्डुलम की तरह हो जाता है। कई बार आदमी अपने आपे में नहीं होता, कई बार आपे में तो होता है लेकिन परिस्थितियां उसके साथ नहीं होती।
हमेशा अनुकूल परिस्थितियां चाहना इंसान के स्वभाव में रहा है और इस कारण से वह इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि किस प्रकार वह जीवन के हर पक्ष में अनुकूलता का समावेश करे। इस पूरी यात्रा में अक्सर कई बार कुछ अहंकारी और गंदे लोग उसके पीछे पड़ जाया करते हैं और ऎसी-ऎसी हरकतें करने लगते हैं जिनसे लगता है कि ये लोग वाकई या तो वर्णसंकर हैं या पूर्व जन्म के पशु अथवा असुर।
इन लोगों की नापाक और गिरी हुई हीन हरकतों की वजह से सज्जनों को हमेशा हर युग में प्रताड़ित होना पड़ा है । जब तक इंसानों में असुर छिपे बैठे रहेंगे, कमीन लोगों को तवज्जो मिलती रहेगी, समाज में भिखारियों, हरामखोरों और लोभियों-धूर्तों का प्रतिशत ज्यादा बना रहेगा तब तक ऎसे दुष्टों को अस्तित्व भी रहेगा, जो जमाने की नज़र में अपने आपको दैवदूत या रहनुमा मानकर चलते रहे हैं और पूरे समाज की छाती पर मूंग दलना अपना जन्मसिद्ध और परिवारसिद्ध अधिकार मानते रहे हैंं।
आजकल ऎसे आसुरी लोगों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही है। इन सबके बावजूद ऎसे असुरों के बारे में स्पष्ट मान लें कि अन्ततः इनका वही हश्र होना है जो पापियों और दुष्टों का होता है। एक तीसरी शक्ति ईश्वरीय है जो अच्छे लोगों को हमेशा संरक्षित करती है और हौसला भी बढ़ाती है। इस शक्ति का अनुभव तभी होता है जब हमारी सहनशीलता जवाब दे जाती है और हम हालातों से थक-हार जाते हैं।
परिस्थितियां चाहे कैसी विषम क्यों हों। नालायकों के प्रति किसी भी प्रकार कोई प्रतिशोध कभी न रखें क्योंकि इससे नवीन कर्मबंधन का निर्माण होता है और प्रतिशोध में हमारी संचित ऊर्जा इतनी ज्यादा खत्म हो जाती है जिसका कोई पैमाना नहीं होता।
प्रतिशोध में लगायी जाने वाली अपनी ऊर्जा को सकारात्मक दिशाओं की तरफ मोड़ें और रचनात्मक क्रियाशीलता को अपनाएं। इसके लिए एकान्तिक साधना, निष्काम समाजसेवा, लेखन, संकलन, पर्यटन और श्रेष्ठ तथा सज्जनों को प्रोत्साहित करने जैसे काम किए जा सकते हैं। इससे एक तो हमारी ऊर्जाओं का फालतू लोगों के लिए क्षरण नहीं होगा, दूसरे समाज के उस वर्ग की दुआएं प्राप्त होंगी जिनके लिए हम सेवा के भाव से काम करते हैं। ये दुआएं हमारे जीवन के लिए वो परमाण्वीय शक्ति पुंज होती हैं जिनकी तुलना दुनिया की किसी और शक्ति से नहीं की जा सकती।
यह तय माना जाना चाहिए कि निःस्पृह और ईमानदार कर्म का प्रतिफल भगवान किसी न किसी रूप में देता ही है और यह इतना अधिक देता है कि हमारी कल्पनाओं से भी परे होता है। इसलिए प्रतिशोध का सर्वथा त्याग करें क्योंकि सज्जनों के शत्रुओं के खात्मे के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, हम अगर निहत्थे हो जाएं और उनके बारे में चिंतन करना त्याग दें तो वे अपने आप खत्म हो जाते हैं और वह भी ऎसे कि कोई उनका नामलेवा तक नहीं बचता। इसलिए अपनी पूरी ऊर्जाओं व शक्तियों को अच्छे कर्म में लगाएं, सकारात्मक चिंतन करें और निष्काम समाजसेवा की भावना से अपने कर्मयोग को गति दें, ईश्वर हमें विराट फल देने को हमेशा उतावला रहता ही है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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