आलेख : नौटंकी न बनाएँ चातुर्मास को !!! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 13 जुलाई 2014

आलेख : नौटंकी न बनाएँ चातुर्मास को !!!

चातुर्मास भगवान का शयनकाल है। प्राकृतिक दृष्टि से यह चार माह वर्षाकाल में गिने जाते हैं इसलिए आवागमन अवरूद्ध रहता है आने-जाने में दिक्कतें आती हैं और सुख-सुविधाओं में कई सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो ये चार माह पूरे वर्ष भर में इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इन चारों माहों के एक-एक क्षण का उपयोग बस्ती से दूर, प्रकृति के बीच बिताकर ध्यान-धारणा, समाधि और उपासना-साधना में होना चाहिए ताकि साल भर में जो ऊर्जा क्षरित होती है, उसका पर्याप्त पुनर्भरण हो सके और आने वाले आठ माहों के लिए हम जगत के लिए कुछ दे पाने की स्थिति में आ सकें।

मूल रूप से सांसारिक कर्मों और काम्य कर्मों से अपने आपको एकदम दूर रखते हुए, तमाम प्रकार के शोर-शराबे से दूर किसी एकान्त स्थान में साधना करने के लिए ही चातुर्मास का विधान है। यह चार महीने वह समय होता है जब लौकिक कर्मों से परे रहकर पूर्ण संयम, अनुशासन और परंपरागत विधि-विधान के साथ एकान्तिक साधना की जाती है और इस साधना में न संसार हमारे सामने होता है, न शिष्यों, चेले-चेलियों और दूसरे सांसारिकों की भीड़, इसमें साधक और साध्य के बीच तीसरा कोई नहीं होता।

हमारे और ईश्वर के बीच सीधे संबंध जोड़ने की तीव्र उत्कण्ठा, तितिक्षा और वेग के साथ साधना में रमने का नाम ही है चातुर्मास। चातुर्मास पूरा अलौकिकता से भरा होता है इसमें लोक की बजाय ईश्वरीय आलोक से सीधा संबंध स्थापित करने का भरपूर प्रयास होता है और जो लोग एकान्त सेवन करते हैं वे ईश्वर से अधिक सामीप्य हासिल कर लिया करते हैं।

मूलतः चातुर्मास ईश्वर को पाने का वह समय है जिसमें किसी सांसारिक कामना या निमित्त के कोई काम नहीं होता, जो कुछ होता है वह अपनी अतीन्दि्रय क्षमताओं, दैवीय ऊर्जाओं और दिव्यताओं को पाने के लिए ही होता है। यही कारण है कि चातुर्मास में दूसरे सभी प्रकार के काम्यकर्म वर्जित कहे गए हैं। लेकिन अब चातुर्मास पूरी तरह मजाक बनकर रह गया है।

चातुर्मास के दौरान बैण्डबाजों की धूम, ढोल-नगाड़ों का शोर, अनुष्ठानों की भरमार, प्रवचनों, धर्म व अध्यात्म के नाम पर विभिन्न प्रकार के सामूहिक आयोजनों, यजमानों की समृद्धि को भुनाते हुए उनका पूरा-पूरा लाभ उठाकर होने वाले यज्ञों, अनुष्ठानों और नई-नई परंपराओं के प्रयोग से लेकर जो कुछ हो रहा है उसने चातुर्मास की मूल भावना और इसके लक्ष्य को ही समाप्त कर दिया है।

चातुर्मास भर कोई काम्य अनुष्ठान नहीं किया जाता है लेकिन धर्म के धंधेबाजों ने हर धार्मिक गतिविधि को रुपये-पैसे से जोड़ दिया है और बड़े-बड़े आयोजनों का दौर चल पड़ा है। चातुर्मास के आयोजनों की भरमार ने माईकों से लोक शांति भंग करने का उपक्रम तो किया ही है, आठ महीनों में होने वाले आयोजनों को भी पछाड़ कर रख दिया है। अब चातुर्मास में इतने आयोजन होने लगे हैं कि जो साल भर में भी नहीं हो पाते हैं।

धर्म को भुनाने वाले बाबाओं, पण्डितों और समाज के मार्गदर्शक कहे जाने वाले लोगों के लिए धर्मभीरूओं को गुमराह करने और अपने लाभ के लिए भुनाने का जो धंधा चल पड़ा है वह चातुर्मास में अपने पूरे परवान पर होता है। कथावाचकों से लेकर प्रवचनकत्र्ताओं, पण्डितों से लेकर सारे के सारे मठाधीशों, बाबाओं और सभी किस्मों के धंधेबाजों के लिए चातुर्मास धन बरसाने वाला और सुवर्ण वृष्टि मास होकर रह गया है जिसमें बड़े-बड़े आयोजनों के नाम पर धींगामस्ती और जबर्दस्त शोरगुल मचाते हुए चातुर्मास के मूल मकसद का कबाड़ा ही करके रख दिया गया है।

दुनिया जहान से विश्राम पाकर इन चार माहों को पूरी तरह ईश्वरीय निष्काम साधना में समर्पित कर देने के लिए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने अपनी परंपरा में चातुर्मास का विधान किया हुआ है ताकि शेष आठ माहों में शोरगुल, सांसारिक कर्मों और संसार के सामीप्य की वजह से साधना, एकान्तसेवन और चिंतन का समय प्राप्त नहीं हो पाने की स्थिति में इन चार माहों में संसार से दूर रहकर कुछ उपलब्धि पायी जा सके। लेकिन हमने इन चार माहों को भी नहीं छोड़ा है।

अब चातुर्मास में हम जो कुछ कर रहे हैं, जो दिख रहा है उसने साल भर की गतिविधियों को भी धकिया दिया है। अब चातुर्मास के नाम पर हम धर्म को आगे रखकर इतने धंधे चला लेते हैं कि इनका कोई हिसाब नहीं होता।  बाबाओं से लेकर सांसारिकों तक को अब धर्म की मार्केटिंग के सारे मैनेजमेंट फण्डों का इस्तेमाल करना आ गया है। फिर माईक, टेंट, फूल से लेकर सभी प्रकार के इंतजामों से जुड़े धंधेबाजों के लिए चातुर्मास बरकत मास हो गए हैं जिसमें जितने अधिक आयोजन होंगे, उतनी अधिक कमायी।

जहाँ ईश्वर भी शयन करने को चले गए हों,  वहाँ धर्म के धंधेबाजों की चलायी इस प्रकार के आयोजनों की धूम और शोरगुल कतई जायज नहीं ठहरायी जा सकती। लगता तो यही है कि धर्म के धंधेबाजों को न ईश्वर की परवाह है, न परंपराओं की, इन्हें अपनी ही अपनी पड़ी है। सारे के सारे चाहते हैं कि हर क्षण को कैसे अपने हित में भुनाया जाए, फिर चातुर्मास के नाम पर श्रद्धालुओं को भुनाना तो और भी अधिक आसान है।

धर्म, सत्य, परंपरा और ईश्वर को सामने रखकर सोचें कि हम चातुर्मास के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं, वह जायज है क्या? हमारी आत्मा अपने आप हमें धिक्कारने लगेगी। चातुर्मास को आयोजन, धींगामस्ती और शोरगुल प्रधान बनाना छोड़ें, भगवान को भी तसल्ली से शयन करने दें, और खुद भी एकान्तिक साधना को अपना कर चातुर्मास का पूरा-पूरा फायदा और फल प्राप्त करें।

हम सभी को आज चातुर्मास के उद्देश्य, लक्ष्य और उपादेयता को समझने की आवश्यकता है।  चातुर्मास के मर्म को समझने वाले लोग धर्म को धंधा बनाने से दूर रहते हैं और एकान्त में साधना करते हैं। इनके लिए स्वयं और ईश्वर के बीच न माईक की जरूरत होती है, न प्रवचन के लिए मंचों की, न बैण्डबाजों की, न संसार की, न पब्लिसिटी के फण्डों की। इनके लिए चातुर्मास का एकान्त वह स्वर्णिम काल होता है जिसमें आत्मचिन्तन और ईश्वर चिन्तन ही प्रधान है, उनके और ईश्वर के बीच कोई तीसरा न होता है, न होना चाहिए। 

अबकि बार चातुर्मास में कुछ ऎसा करें कि भगवान भी हमसे खुश रहे, और जगत के लोग भी। अब तक हम चातुर्मास के नाम पर जो कुछ करते रहे हैं उससे न ईश्वर प्रसन्न हो सकता है, न हम स्वयं। चातुर्मास को धंधा न बनाएँ, धर्म के दायरों में ही रहने दें।






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---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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