दुनिया का हर व्यक्ति अपने आप में अन्यतम इकाई है और इस दृष्टि से उसके जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। विधाता की यही विचित्र माया है जिसे कोई समझ नहीं सकता। इसके बावजूद हम लोग किसी न किसी को अपना प्रतिद्वन्द्वी मान बैठते हैं और नवीन कर्मबंधनों की स्थापना कर ही डालते हैं।
असल में इंसान कभी भी चुपचाप नहीं बैठ सकता, उसे कुछ न कुछ ऎसा चाहिए जिससे कि उसका मन उसमें रमा रहे। इसलिए इंसान की फितरत में आ गया है कुछ न कुछ हमेशा करते रहना। हालांकि ऎसा करते रहना हम कर्मयोग की श्रेणी में ही शुमार नहीं कर सकते क्योंकि जरूरी नहीं कि इस प्रकार का यह हर कर्म लक्ष्योन्मुखी और उपादेयताजनक हो ही।
हम अपनी पूरी जिन्दगी मेंं खूब सारे काम ऎसे करते हैं जिनका कोई मकसद नहीं होता बल्कि टाईमपास काम ही कहे जा सकते हैं। यही वो समय होता है जब हमारे लिए कोई भी छूटते ही कह सकता है - खाली दिमाग शैतान का घर। इंसान को दो प्रकार की जिंदगी जीनी होती है। एक है कर्मयोग और दूसरी वैयक्तिक।
वैयक्तिक जिंदगी में हर इंसान का व्यवहार, भाषा शैली और अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व जिसमें जो कुछ होता है उसके हम स्वयं उत्तरदायी होते हैं। दूसरा कर्मयोग हैं जो कई बार हम स्वयं पर निर्भर होता है और कई बार हम पूरी व्यवस्था का हिस्सा होते हैं।
ऎसे में कभी हमारी कार्यशैली का प्रभाव हम स्वयं प्रतिबिम्बित कर सकते हैं जबकि आम तौर पर सामूहिक तौर पर हमारी भागीदारी को आंका जाता है। कर्मयोग में जो भी प्रतिस्पर्धा होती है उसे खेल की भावना से लेना चाहिए जो कि जीवन का एक अनिवार्य अंग है।
प्रतिस्पर्धा न हो तो जीने का आनंद नहीं आता और गुणवत्ता या नवीन अनुसंधानों की संभावनाएं समाप्त होकर रह जाती हैं। इसलिए जीवन में प्रतिस्पर्धा होनी जरूरी है लेकिन वह होनी चाहिए पूर्ण स्वस्थ और सामूहिक विकास की भावनाओं से ओतप्रोत ही।
एक दूसरे को नीचे गिराकर आगे बढ़ने का काम नहीं होना चाहिए जैसा कि आजकल खूब लोग कर रहे हैं। अपने हुनर को दिखाते हुए आगे बढ़ने में कोई एतराज किसी को नहीं होना चाहिए लेकिन मन में मलीनता और विद्वेष लेकर चलने वाले लोग हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने और नीचे गिराने की कोशिशें करते हुए अपने आपको आगे करने के षड़यंत्र करते रहते हैं वे बर्दाश्त नहीं होने चाहिएं।
सबका अपना-अपना भाग्य है, सबकी अपनी-अपनी कार्यशैली और व्यवहार। इसी प्रकार सभी के जीवन का लक्ष्य भी अलग-अलग होता है। कोई जिंदगी को पैसे कमाने का साधन ही मानता है और दिन-रात उल्लूओं की तरह धन कमाने में लगा रहता है, गोरखधंधों मेंं रमा रहता है और इसके लिए वह कुछ भी कर सकने को स्वतंत्र है क्योंकि वह अपने इसी एकमात्र लक्ष्य के प्रति समर्पित है।
कुछ लोग भोग-विलास पाने के सारे रास्तों और गलियारों में मुँह मारते हुए आनंद पाने को ही जिंदगी मान बैठे हैं। कुछ लोगों को छपास, भाषण, भीड़, लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का मोह है, कुछ अपने आप में खुद को बहुत बड़ा मान बैठे हैं और आत्म मुग्धावस्था में हैं, कुछ ऎसे हैं जो अपना सब कुछ त्याग कर कर समाज की सेवा में जुटे हैं, तो कोई देश सेवा के लिए अपने आपको समर्पित कर चुके हैं।
तरह-तरह के लोगों की प्रजातियों के बीच एक बात तो यह सामने आती ही है कि परमात्मा ने अनूठी सृष्टि की रचना की है जिसमें पग-पग पर अनेकता और वैविध्य भरे रंग-रूपों के दर्शन होते हैं। हम सारे के सारे लोग कुछ न कुछ पाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे हैं। समुदाय में एक सबसे बड़ी विचित्र समस्या आजकल यह देखी जा रही है कि हर किसी को यह लगता है कि दूसरे लोग उनके प्रतिस्पर्धी और प्रतिद्वन्द्वी हैं। कई समान पेशों वालों में यह बुराई ज्यादा देखी जा सकती है। कई बार हम अपना काम करते चले जाते हैं लेकिन दूसरे लोग इसे भी अपने लिए प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वन्दि्वता की बुनियाद मानने लगते हैं और अपने सारे काम-धाम छोड़कर जुट जाते हैं दूसरों का नीचा दिखाने में, अहित करने में। जबकि अधिकांश बार होता यह है कि हम जिसे अपना प्रतिद्वन्द्वी या प्रतिस्पर्धी मानते हैं उसके मन में हमारे प्रति कुछ नहीं होता। लेकिन हमारे भीतर का मनोमालिन्य, हमारा अपराधबोध , हीन भावना और हमारी क्षुद्र प्रवृत्तियां ही ऎसी हो जाती हैं कि सामने वालों को हम हमेशा अपने विरोधी के रूप में ही देखते हैं और हमारी यह एकतरफा धारणा निरन्तर परिपक्व होकर हमारे लिए चारों तरफ ऎसे कचरा पात्रों का घना घेरा बना डालती हैं जहाँ हमें अपने कामों और हरकतों के प्रति रुचि कम होती है, दूसरों के कामों पर निगाह अधिक।
असल में देखा जाए तो सब लोग अपने-अपने काम करने लगें तो कोई प्रतिद्वन्द्वी हो ही नहीं। यों भी अपनी प्रतिद्वन्दि्वता किसी से होती भी नहीं, सिर्फ हम एकतरफा भ्रमों के भंवर में फंसे हुए खुद को मान लिया करते हैं। जीवन और कर्मयोग में अप्रत्याशित सफलता और असीम आनंद पाना चाहें तो यह भ्रम हमेशा-हमेशा के लिए निकाल देना चाहिए कि हमारा कोई प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है अथवा हम किसी के प्रतिद्वन्द्वी हो सकते हैं।
सबकी अपनी-अपनी शैली है, अपना-अपना भाग्य है। किसी एक की भाग्यरेखा कभी दूसरे की भाग्यरेखा या यश अथवा सम्पत्ति रेखा को कभी नहीं काटती। हम दूसरे लोगों को बेवजह अपना प्रतिद्वन्द्वी और प्रतिस्पर्धी मानकर अपनी जिंदगी के बहुमूल्य क्षणों, बौद्धिक ऊर्जाओं आदि का क्षरण करते हैं। ये क्षरण इतना अधिक हो उठता है कि न हम अपने लक्ष्यों में सफलता पा सकते हैं न जीवन का अपेक्षित आनंद।
इसके साथ ही यह भी मान लें कि अपना कोई विरोधी भी नहीं हो सकता क्योंकि जिस मुकाम और ऊँचाइयों पर हम होते हैं उतने दूसरे नहीं हो सकते। किसी भी अच्छे इंसान का विरोधी अच्छा ही हो सकता है लेकिन जैसे ही कोई इंसान अच्छा होता है उसके भीतर का सारा विरोध अपने आप समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार बुरे आदमी का विरोधी बुरा हो सकता है लेकिन इसमें भी बुराइयों का अनुपात असंतुलित होने से मुकाबला बराबरी का नहीं कहा जा सकता।
विरोधी या समर्थक होने के लिए भी पात्रता की जरूरत पड़ती है और जिन लोगों में यह पात्रता नहीं हो सकती उन लोगों को अपना प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिस्पर्धी या विरोधी मानना एकतरफा भ्रम ही है जो आशंकाओं के बादलों को हमेशा हमारे इर्द-गिर्द मण्डराए रखता है। अपने काम करते चलें, प्रतिक्रियाएं, आलोचना और निंदाएं तो यों ही होती रहेंगी, यह अपने आप में हमारी स्वीकारोक्ति के साथ ही हमारे कर्म की प्रामाणिकता को स्पष्ट करती हैं। जिसकी जितनी अधिक आलोचना होती है वह उतना अधिक स्वीकार्यता के स्तर को प्राप्त करता है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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