धैर्य रखें, वक्त दें सीखने-समझने और करने का - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 24 जुलाई 2014

धैर्य रखें, वक्त दें सीखने-समझने और करने का

हर व्यक्ति के लिए यह संसार एक कार्यशाला है जिसमें आकर वह सीखता-समझता है और  प्रयोग करता है। कुछ बिरले ही होते हें जो जल्द ही बहुत कुछ सीख  जाते हैं और इनमें ग्राह्यता क्षमता औरों के मुकाबले हजार गुना होती है। लेकिन सामान्य लोगों के साथ ऎसा नहीं होता। उन्हें सीखने और समझने के लिए वक्त चाहिए और प्रयोग में लाने के लिए उपयुक्त अवसर।

जो ज्ञान और हुनर हमारे पास है उसका पूरा-पूरा उपयोग स्वयं को भी करना चाहिए और इसे आने वाली पीढ़ियों तथा दूसरे लोगोें तक भी पहुँचाना चाहिए। यह हमारी वैयक्तिक जिम्मेदारी है कि हम जो कुछ जानते हैं उसे औरोें को बताएं तथा अपने मुकाबले ऎसे हुनरमंद लोग तैयार करें कि हमारी अनुपस्थिति या हमारे ऊपर जाने के बाद हमारी कमी महसूस नहीं होनी चाहिए बल्कि बाद के लोग इस प्रकार नैष्ठिक कत्र्तव्य निभाएं कि उनके हुनर को देख कर हमारा आदरपूर्वक स्मरण किया जाए, इसी में है हमारा गर्व और गौरव। इसके लिए यह जरूरी है कि जो ज्ञान हमारे पास है उसे पात्र जनों में बाँटें और उन्हें अपने मुकाबले योग्य बनाते हुए समाज की सेवा में समर्पित करें। हर ज्ञानवान और हुनरमंद व्यक्ति के जीवन का यह वो सबसे बड़ा काम है जो समाज और क्षेत्र द्वारा हमेशा याद किया जाता है।

इस ज्ञान को बांटने के लिए हमें विभिन्न मनोवैज्ञानिक पहलुआें पर विचार करने की जरूरत पड़ती है। अक्सर होता यह है कि ज्ञानवान और नौसिखियों के बीच की बौद्धिक खाई इतनी अधिक होती है कि ज्ञान पाने वालों को कुछ समझ नहीं आता, दूसरी तरफ ज्ञान दाता इस बात को लेकर कुढ़ते रहते हैं कि सामने वाले अपेक्षित ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं।

आजकल तकरीबन यही स्थिति सभी मामलों में कही जा सकती है। ऊपर वालों और नीचे वालों के बीच सोच-समझ और व्यवहारिक ज्ञान का अन्तर इतना अधिक है कि कई बार हमारी असफलताओं का मूल कारण यही होकर रह गया है। नीचे वालों की बातों को ऊपर वाले लोग नरहीं समझ पा रहे हैं और ऊपर वाले हवाओं में उड़ने के इतने आदी हो चुके हैं कि वे अपनी ही अपनी विद्वत्ता को झाड़ते हुए ज्ञान को अपने हक में भुनाने को आदत बना चुके हैं।

इन हालातों के निवारण के लिए यह जरूरी है कि ज्ञानप्रदाता संदर्भ समूह और लक्ष्य समूह के बीच बौद्धिक और व्यवहारिक धरातल पर ज्यादा अन्तर न हो। अक्सर विद्वानों के साथ यह बात होती है कि जो कुछ वे परोसने की कोशिश करते हैं वे सामने वाले ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं और हम लोग अपनी ही अपनी विद्वत्ता झाड़ना जारी रखते हैं। इस प्रकार के संवाद, शिक्षण और प्रशिक्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

समझदार लोगों को चाहिए कि वे जिस स्तर के लोगों से चर्चा करते हैं, जिस स्तर के लोगों को समझाना, राय देना या प्रशिक्षण देना चाहते हैं उस स्तर के लोगों के मानसिक धरातल के समीप उतरें, अपनी विद्वत्ता और महानता के दंभ को अलग रखकर चर्चा करें और सादगी, सरलता, सुबोधगम्य भाषा शैली और अपनी सहजता पर पूरा ध्यान दें।

हम किसी भी क्षेत्र में काम करते हों, हमें अक्सर सामने वालों पर इस बात को लेकर गुस्सा आता रहता है कि ये लोग सीख-समझ नहीं रहे हैं और बार-बार समझाने के बावजूद दक्षता प्राप्त नहीं कर पाए हैं। यह अपने आप में स्वाभाविक प्रक्रिया है। हम कुढ़ते और क्रोधित इसलिए होते हैं क्योंकि हम उन नौसिखियों से समय  से पूर्व दक्षता की अपेक्षा रखते हैं और हकीकत यह है कि सीखने की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी  और समय साध्य होती है।

बात सीखने-समझने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया का कोई सा काम हो, यह आकार लेने और उपलब्धि पाने के लिए  पर्याप्त समय की मांग करता ही है। काम दिखने के बारे में दो-तीन तरह के कारक होते हैं। एक तो कई पुराने ढर्रे के काम ऎसे हो चुके होते हैं जिन्हें सुधारने के लिए वक्त चाहिए। दूसरा हर काम को ढंग से करना हो, सचमुच में उपलब्धियां हासिल करनी हों तो इसके लिए समझने की जरूरत पड़ती है। वहीं काम का बढ़िया से बढ़िया क्रियान्वयन करने के लिए श्रेष्ठ कर्मयोगियों की टीम की जरूरत पड़ती है जो निष्ठा और पूर्ण समर्पण के साथ काम करे। ऎसा होने पर ही कार्य की पूर्णता, गुणवत्ता और उपादेयता सिद्ध हो सकती है। इसके बगैर कोई कितना ही अच्छा क्यों न हो, सुनहरा परिदृश्य दिखाना कल्पनाजनक ही होता है।

अपने शिक्षण, प्रशिक्षण में कहीं कोई कमी न हो, आत्मीय माहौल में सामूहिक विकास की सोच का क्रियान्वयन जरूरी है। जो लोग कर्मयोग के किसी भी क्षेत्र में अपने फन आजमाते हैं उन्हें भरपूर अवसर दें तथा धैर्य बनाए रखें। इससे हर कर्म का परिणाम आशातीत सफलता देने वाला और स्थायी भाव लिए हुए रहता है।

आज जरूरत यह है कि हम हर मामले में उतावलेपन को त्यागें और दूसरों से अपेक्षाएं रखने के साथ ही खुद को भी परिवर्तन के लिए तैयार रखें, भागीदारी निभाएं और कुछ न कुछ नया और रचनात्मक करने में अपनी भूमिकाएं तय करते हुए आगे आएं।

कर्मयोग की सफलता, परिवर्तन और धैर्य का सीधा संबंध है।  यह मानकर चलें कि धैर्य का फल हमेशा मीठा ही होता है। लेकिन उन लोगों को इस मिठास से दूर रहने की आदत पड़ी हुई है जिन्होंने पहले से ही मिठास का व्यापार करते हुए मधुमेह को पाल लिया है। भ्रमों और आशंकाओं को त्यागें, कुछ कर दिखाने का समय दें और धैर्य के साथ प्रतीक्षा करें। अच्छा समय दस्तक दे चुका है।






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---डॉ. दीपक आचार्य---
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