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रविवार, 28 दिसंबर 2014

विशेष आलेख : सांस्कृतिक आक्रमण के प्रतिकार का संकल्प कहां गया

भारत में सांस्कृतिक आक्रमण और संक्रमण के विरुद्ध शोर तो बहुत मचता है लेकिन धरातल पर इसे रोकने के लिए गाल बजाने वाले कोई ठोस प्रयास कभी नहीं करते। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पेटेंट संघ परिवार और भाजपा नेताओं के पास है जिनकी सरकार दिल्ली में कायम हुए छह महीने से ज्यादा का समय हो चुका है लेकिन शक्ति हाथ में आ जाने के बाद में भी उनके द्वारा कुछ ऐसा नहीं किया जा रहा कि वे पाश्चात्य जगत की गुलामी और सम्मोहन से देश को आजाद कराने के लिए कुछ कर रहे हों। उनके लिए ऐसा करना इसलिए संभव भी नहीं है कि वे स्वयं इसकी गिरफ्त में हैं। बहरहाल उनको चीन से पे्ररणा लेनी चाहिए।

चीन के एक शहर के एजुकेशनल बोर्ड ने क्रिसमस के दिन अपनी शिक्षण संस्थाओं में इससे संबंधित किसी भी गतिविधि के आयोजन पर रोक लगा दी। न सिर्फ इतना बल्कि स्कूलों का निरीक्षण करने वालों को हिदायत दी कि वे क्रिसमस के दिन किसी स्कूल में ऐसा न हो पाए इसे सुनिश्चित करने के लिए पूरी मुस्तैदी बरतें। चीनी नेताओं का कहना था कि ऐसा इसलिए किया गया है ताकि देश के लोगों में पश्चिमी त्यौहारों को मनाने के प्रति बढ़ते जुनून को रोका जा सके क्योंकि इस वजह से चीन के पारंपरिक उत्सव फीके हो रहे हैं। यह बात भारत में भी लागू होती है। सर्व धर्म सम्भाव वाला लोकतंत्र होने के नाते भारत में कोई सरकार ऐसा आदेश भले ही जारी करने की स्थिति में न हो लेकिन यह तो हो सकता है कि जो संघनिष्ठ हैं और मुनाफे के लिए कान्वेंट स्कूल चला रहे हैं कम से कम वे तो क्रिसमस मनाने के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के प्रदर्शन से बचें। क्रिसमस के आयोजन के विरोध का मतलब ईसाई धर्म का विरोध नहीं है लेकिन यह बात सही है कि क्रिसमस और न्यू ईयर सेलिब्रेशन जैसे नटखटों का प्रसार पिछले कुछ वर्षों में बुखार के स्तर पर हो गया है। कान्वेंट स्कूल में अगर क्रिसमस डे नहीं मनता तो उसके आधुनिक होने पर प्रश्नचिह्नï लग जाता है यानी उसका बिजनेस प्रभावित होने का खतरा पैदा हो जाता है और बिजनेस में रिस्क लेकर धर्म संस्कृति या राष्ट्र के प्रति वफादारी निभाना शायद हिंदुस्तानियों ने नहीं सीखा जबकि चीन की तरह ही इस बुखार की वजह से यहां भी पारंपरिक त्यौहारों का महत्व घटने लगा है।

जब चीन में उक्त प्रतिबंध जारी हो रहा था तभी एक और खबर सामने आई जिसके अनुसार आस्ट्रेलिया में भारतीय क्रिकेट टीम को बेइज्जत किया गया। कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की प्रेस कांफ्रेस में माइक व लाइट व्यवस्था समाप्त कर दी गई जबकि मेजबान टीम के कप्तान ने कुछ ही समय पहले प्रेस कांफ्रेंस की थी तब सभी व्यवस्थाएं पूरी तरह सुसज्जित रूप में मौजूद थीं। इसी तरह मेजबान टीम के लिए उस शाम को शानदार होटल में दावत आयोजित की गई थी जबकि भारतीय टीम को उस दावत के लिए नहीं पूछा गया और भारतीय खिलाडिय़ों ने कैैंटीन में ही खाना खाकर काम चलाया। भारतीय खिलाडिय़ों के लिए बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया का स्लोगन शिरोधार्य है इसलिए वे अपनी कमाई छोड़कर आस्ट्रेलिया से वापस आने का फैसला कैसे लेते। यह क्रिकेट जगत में भारतीय टीम के अपमान की कोई पहली घटना नहीं है। क्रिकेट खेलना न तो भारतीय परिवेश और पर्यावरण के लिए मुफीद है और न ही क्रिकेट यहां परंपरागत रूप से खेली जाती रही है। ब्रिटेन के पूर्व औपनिविक देशों मात्र में ही क्रिकेट खेलने का चलन है जो कि गुलामी की निशानी है और किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र को आजादी के बाद ऐसी निशानी को अपने सिर पर चढ़ाए रखने से बचना चाहिए पर भारत में तो क्रिकेट का जादू आजादी के बाद और ज्यादा सिर चढ़कर बोल रहा है। क्रिकेट के पीछे असली खेल सट्टे का है जिससे दाऊद इब्राहीम जैसे लोग पोषित हुए जिन्होंने भारत का सीना आतंकवाद की मार से छलनी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। क्रिकेट से दस वर्ष में दो सौ पेशेवर खिलाड़ी तैयार होते हैं लेकिन दो करोड़ बच्चे जून के महीने में क्रिकेट खेलने के जुनून की वजह से अपने मानसिक विकास को कुंठित करने के साथ-साथ शारीरिक व्याधियों के भी शिकार हो जाते हैं। क्रिकेटर कोई समाजसेवा भी नहीं करते। उनसे देश को किसी प्रकार का फायदा नहीं है नुकसान ही नुकसान है। फिर भी वे भगवान कहलाने लगते हैं और भारत रत्न के हकदार बन जाते हैं। मनमोहन सरकार क्रिकेट को महिमा मंडित करती ही है उसकी नियति ही थी लेकिन इस सरकार में भी पश्चिमी सम्मोहन और गुलामी की जकड़ कम नहीं है इसीलिए क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाकर राष्ट्रीय स्वाभिमान का परिचय देने की बजाय उसे महिमा मंडित करने के लिए यह मनमोहन सरकार से भी आगे निकल जाने की होड़ में जुटी है। खुद मोदी आस्ट्रेलिया में जाकर सौहार्द क्रिकेट में भाग ले चुके हैं। अपने स्वच्छता अभियान का ब्रांड एंबेसडर वे क्रिकेटरों को बना रहे हैं। क्रिकेटरों से मिल रहे सराहना और सम्मान को मोदी जनादेश से ऊपर वरीयता देते हैं। चीन ने बहुत पहले क्रिकेट को अपने यहां से अलविदा कर दिया था। चीन को घोर राष्ट्रवादी देश कहा जाता है। इस कारण उसके लिए ऐसा करना लाजिमी था। अब हमारे राष्ट्रवादियों को पाखंडी न माना जाए तो क्या कहा जाए।




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के पी सिंह 
ओरई 

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