विशेष आलेख : हौंसलों से मिलती है मंजिल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 21 दिसंबर 2014

विशेष आलेख : हौंसलों से मिलती है मंजिल

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आधुनिकता और विकास के इस दौर में मनुश्य की जिंदगी में किसी भी तरह की सुविधाओं की कमी नहीं है। तरक्की की मंजिलों को तय करते करते मनुश्य आज सितारों तक पहुंचने का हौंसला रखने लगा है। मनुश्य आज बड़े पैमाने पर विकास करने की सोच भी रखता है। यह सच है कि आज के दौर में इंसान बहुत विकास कर चुका है। लेकिन इस सच्चाई को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि आज भी हमारे देष और समाज में बहुत से लोग बेरोजगारी और लक्ष्यविहीन जीवन बसर कर रहे हैं और इनमें अधिकांष संख्या नौजवानों की है। इसके चलते युवाओं के हौंसलों में कमी होती जा रही है और वह हीन भावना का षिकार हो रहे हैं। आज की नई पीढ़ी किसी चुनौती को स्वीकार करने और उससे लड़ने की बजाये हताशा में आत्महत्या जैसी संगीन अपराध की ओर क़दम बढ़ाने लगी है। ज़रा सी परेशानी आई नहीं कि मौत को गले लगा लिया। नेशनल क्राइम ब्यूरो के एक आंकड़े के अनुसार भारत में हर साल आत्महत्या करने वालों की एक बड़ी संख्या युवाओं की है। परीक्षा में असफल होना, नौकरी नहीं मिलना, आतंरिक कलह और यहाँ तक कि मनचाही बात के पूरा नहीं हो पाने की स्थिति में लोग अपनी इहलीला समाप्त कर लेते हैं। यह स्थिति काफी चिंताजनक हैं। भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा ऐसा देश है जहाँ सर्वाधिक आत्महत्याएं होती हैं। आंकड़ेे बताते हैं कि अधिकतर मामलों में उन समस्याओं की वजह से जान दी गई जिसका समाधान बहुत ही सरल था। वास्तव में आज कल युवाओं की सोच कुछ इस तरह की हो गयी है कि यदि वह किसी काम में थोड़ी मुष्किल या नाकामी को देखते हैं तो एक दम उस काम में अपने आप को नाकाम समझने लगते हैं। जब मनुश्य असफल होता है तो वह षायद यह भी भूल जाता है कि भगवान ने इस धरती पर मनुश्य को एक ऐसे प्राणी के रूप में पैदा किया है जो अपनी समझ से हर समस्या का समाधान खोजने में सक्षम है। जब मनुश्य असफल होता है तो सबसे पहले उसके आत्मविष्वास में कमी आती है और इसके बाद वह मनुश्य कोई दूसरा काम करने में भी सक्षम नहीं हो पाता।

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एक ओर हिम्मत और हौंसले की कमी के षिकार युवाओं को देखकर आंखे नम हो जाती हैं तो वहीं दूसरी ओर कुछ मनुश्य ऐसे भी हैं जो तमाम असफलताओं से सीखते हुए जिंदगी में आगे बढ़ते रहते हैं और एक न एक दिन उन्हें अपनी मंजिल मिल ही जाती है। इन्हीं में से एक नाम जम्मू एवं कष्मीर के पुंछ जिले की तहसील मेंढ़र से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर गांव नटरोल सिनखट्टा के रहने वाले रियाज अहमद का है। भगवान ने इंसान को देखने के लिए दो आंखे, सुनने के लिए दो कान, स्वाद लेने के लिए जबान, काम करने के लिए दो हाथ और चलने के लिए दो टांगे दी हैं। बावजूद इसके इस दुनिया में आज भी ऐसे लोगों की एक बड़ी तादाद है जो भगवान के दिए इन अनमोल तोहफों में से किसी एक से वंचित है। रियाज अहमद भी बचपन से ही अपने दोनों बाजुओ से वंचित है। बावजूद इसके उन्होंने जिंदगी में कभी हार नहीं मानी और अपने क्षेत्र में दूसरों के लिए मिसाल बन गए। 
           
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रियाज वर्तमान में एक स्कूल में अध्यापक हैं। उनका जन्म 1 जनवरी 1982 को हुआ था। पांचवी तक की षिक्षा उन्होंने प्राईमरी स्कूल नट्रोल से जबकि 8 वीं तक की पढाई उन्होंने मीडिल स्कूल छंगा से पूर्ण की। मैट्रिक और बारहवीं की पढ़ाई रियाज़ ने गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल छत्राल से प्राप्त की। छत्राल का यह स्कूल रियाज के घर सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जहाँ वह रोज पैदल जाया करते थे। रियाज ने बताया कि ‘‘10 वीं और 12 वीं की परीक्षा में उन्होंने सहायता के लिए राइटर रखा हुआ था क्योंकि बाज़ूू नहीं होने के कारण स्वयं लिख नहीं सकते थे। 2001 में उन्होंने 12 वीं की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की।  उसके बाद तकरीबन 7 सालों तक घर बैठे रहे क्योंकि आगे की षिक्षा ग्रहण करने के लिए उनके पास कोई सहारा नहीं था। बीते दिनों को याद करते हुए रियाज़ बताते हैं कि मैंने इन सात सालों में घर पर ही रहकर कुछ किताबें पढ़ी। 2003 में षादी कर ली और अब दो बच्चों का बाप हूँ। 2008 में अध्यापक नियुक्ति में मेरा नाम आ गया और तब से अब तक मैं इस कार्य को अंजाम दे रहा हूँ। मैं अपने छात्रों का भविश्य बड़ी मेहनत और लगन से संवारने का प्रयास करता हूँ। उन्होंने बताया कि मुझे उम्मीद है कि दोनों बांहों के न हाने के बावजूद भी मैं दोनों पैरों से ही देष का भविश्य लिखने में कामयाब रहूँगा।’’ 
             
रियाज अहमद को अध्यापक की नौकरी करते हुए छह साल हो गए हैं। उनकी इच्छा बचपन से ही एक अध्यापक बनने की थी। रियाज जिस स्कूल में पढ़ाते हैं उसमें बच्चों की संख्या 25 है। उन्होंने बताया कि-‘‘ मैं अपने छात्रों को एक मेज पर किताब रखकर पढ़ाता हूँ। रियाज से जब उनकी कामयाबी का राज जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि इसके पीछे दो राज हैं, एक मेरी मेहनत और दूसरी मेरी घर वालों की मेरे लिए मदद। मेरे पिता एक सेवानिवृत्त जोनल शिक्षा अधिकारी हैं। उन्होंने ही पहली बार मेरे पांव की उंगलियों में कलम थमाई थी और मुझसे कुछ षब्द लिखवाए थे और यह कहा था कि तुम पैरों से ही लिखोगे। प्रतिदिन अभ्यास करते करते मैंने पांव से लिखना षुरू कर दिया और आज भी इसी तरह लिखता हूँ। इस तरह मेरी कामयाबी में मेरे पिता की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।’’ रियाज आज न केवल इलाक़े के लोगों के लिए एक मिसाल बन चुके हैं बल्कि वह ऐसे लोगों के लिए भी सीख बन गए हैं जो ज़रा सी नाकामी पर थक हार कर बैठ जाते हैं। उनकी जिंदगी से एक सीख मिलती है और वह यह कि दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है, बस हौंसला होने की जरूरत है, मंजिल खुद ब खुद मिल जाती है। 








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हामिद शाह हाशमी
(चरखा फीचर्स)

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