जनता दल परिवार की फिर से एकजुटता देश को कौन सी नई दिशा देने के लिए है यह प्रश्न विचारणीय है। जनता दल से टूटकर बने दलों के नेताओं ने इस सिलसिले में अभी तक दो बैठकों की हैं जिनमें अलग-अलग पार्टियों का विलय कर नई पार्टी बनाने की सहमति भी हो गई है लेकिन आश्चर्य यह है कि अपनी इस कसरत के औचित्य के बारे में ये नेता यह स्पष्ट करने की स्थिति में नहीं हैं कि कौन सी वैकल्पिक नीतियां और कार्यक्रम हैं जिनके आधार पर वे जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो सकते हैं कि उन्हें चुनना मोदी से बेहतर विकल्प को चुनना होगा।
जनता दल 1988 में लोक दल से छिटके दलों के फिर एक होने का नतीजा था जिसमें जन मोर्चा के नेता वीपी सिंह ने मुख्य प्रेरक की भूमिका अदा की थी। उनकी छत्रछाया में लोक दल परिवार के नेताओं के जाने की मुख्य वजह यह थी कि बोफोर्स मुद्दे ने उन्हें रातोंरात पूरे देश में जननायक बना दिया था। इसके बावजूद वीपी सिंह ने जनता दल के औचित्य के लिए न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करवाया। इस कार्यक्रम के आधार पर वे जनता दल को व्यापकता प्रदान करते हुए रामो वामो के गठन तक ले गए। रामो वामो के पीछे जो सैद्धांतिक कारक थे उनमें सबसे मुख्य था तत्कालीन राजनीति में उभरी मजबूत क्षेत्रीय शक्तियां जो कि केेंद्रीय सत्ता के द्वारा उनके दमन की भुक्तभोगी होने की वजह से इस मामले में पूरी सुरक्षा चाहती थीं। सरकारिया आयोग राज्यों की स्वायतत्ता को सुनिश्चित करने के लिए ूबनाया गया था लेकिन इसकी सिफारिशों को लागू न करके केेंद्रीय सत्ता ने राज्यों में मनमाने दखल का अपना अधिकार सुरक्षित रखना चाहा था। वीपी सिंह ने देश की व्यवस्था के नए माडल को पेश करते हुए ऐसी संघीय प्रणाली का खाका खींचा जो कि कुछ मामलों को छोड़कर सभी में राज्यों को खुद मुख्तार तरीके से काम करने की गारंटी देता हो। इसी कारण रामो वामो में द्रमुक जैसे दल जुड़े। सामाजिक मामलों में जनता दल वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करके सामाजिक बराबरी की नई व्यवस्था को कायम करने के सपने से अनुप्रेरित था। इसी कारण दलित व पिछड़ी जाति की राजनीतिक शक्तियों के लिए जनता दल अधिक विश्वसनीय बन सका। निजीकरण व कारपोरेट वर्चस्व वाली नीतियों का विरोध करते हुए अर्थव्यवस्था के समाजवादी माडल को कायम करने का जीवट दिखाकर जनता दल वाम दलों को अपना स्वाभाविक साथी बनाने में सफल हुआ था। उक्त वैचारिक सूत्र जनता दल की आत्मा थे।
लेकिन जनता दल परिवार की एकजुटता के नाम से हो रही कसरत में उसकी उक्त वैचारिक आत्मा गायब है। वास्तव में इसे जनता दल परिवार की एकजुटता का नाम देना भ्रामक है। यह लोक दल परिवार की एकजुटता का पर्याय है। इसमें इसी कारण न तो तमिलनाडु का कोई क्षेत्रीय दल दिलचस्पी दिखा रहा है न ही वाम पंथ इसके लिए गर्मजोश है। नवीन पटनायक व ममता बनर्जी भी इस एकता को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखा पा रहे। लोक दल परिवार की भी यह पूरी एकजुटता इस कारण नहीं है क्योंकि चौधरी अजीत सिंह ने इससे दूरी बनाए रखी है।
लोक दल परिवार का राजनीति के मामले में अजीब हाल है। वैसे तो समाजवाद व लोहिया वाद से यह अपना गर्भनाल का संबंध जोड़ता है लेकिन लोहिया वाद से इसका केवल इतना नाता है कि इस परिवार को लोहिया के पिछड़ों ने बांधी गांठ सौ में पावें साठ के नारे मात्र में ही दिलचस्पी है। लोहिया ने जाति तोड़ो आंदोलन चलाया था। लोक दल परिवार ने पिछड़ों से कहा अपना जाति उल्लेख गर्व के साथ करो। यह लोहिया वाद से पूरी तरह विचलन को दर्शाता है। इसी तरह लोहिया जी पश्चिमी तर्ज के उदार लोकतंत्र के लिए समर्पित और संघर्षशील रहे जबकि लोक दल परिवार का चाहे वह चौटाला हों लालू हों या मुलायम सिंह सर्वसत्ता वाद में विश्वास रहा है। जहां तक समाजवाद की बात है तो समाजवाद लोक दल परिवार के लिए केवल भाषणों की शोभा है वैसे इस परिवार के नेताओं को कारपोरेट का वर्चस्व उतना ही गुदगुदाता है जितना कांग्रेस और भाजपा को।
लोक दल परिवार में दल के आंतरिक लोकतंत्र में कभी विश्वास नहीं जताया गया। वोट लूटने की परंपरा इस परिवार में चौधरी चरण सिंह के जमाने से जारी है। इंदिरा गांधी ने इसी कारण चौधरी चरण सिंह के निर्वाचन क्षेत्र में चलित मतदान केेंद्र बनवा दिए थे ताकि अनुसूचित जाति के मतदाताओं को स्वतंत्र होकर मतदान करने का अवसर मिल सके। जनता दल में वीपी सिंह ने आंतरिक लोकतंत्र के तहत ही एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत लागू करना चाहा था जिसकी क्या दुर्दशा की गई यह उस समय उत्तर प्रदेश जनता दल के अध्यक्ष घोषित किए जाने पर रामपूजन पटेल के साथ हुए दुव्र्यवहार की कहानी से स्पष्ट है। सांप्रदायिकता विरोध के मामले में भी लोक दल परिवार को बहुत पक्का नहीं कहा जा सकता। बाबरी मस्जिद के ध्वंस सहित तमाम निर्णायक मौकों पर इस परिवार के नेता रणछोर भाई साबित हुए हैं।
दरअसल जनता दल परिवार के नाम से जो जमावड़ा होने जा रहा है उसकी हैसियत कुछ हिंदी प्रांतों तक सिमटी हुई है। इस वास्तविकता को देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि वास्तव में इस परिवार के छत्रपों में मोदी को शिकस्त देने की कोई इच्छाशक्ति है। सही बात यह है कि जनता दल परिवार की एकता के नाम पर दूसरा खेल चल रहा है। इस एकता के लिए पहल समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की हो रही है जो एक समय जनता दल तोडऩे के मुख्य सूत्रधार थे। मुलायम सिंह यादव गठबंधन सरकारों के युग तक प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने का सपना देखते रहे लेकिन अब वे अपनी सीमाएं पहचानते हैं। उनके पास अब इतनी उम्र और ताकत नहीं बची जिससे वे अपना ख्वाब जारी रखने की सोचें। जाहिर है कि मुलायम सिंह ने स्थितियों से समझौता कर लिया है। अब उनकी दिलचस्पी सिर्फ इसमें है कि उत्तर प्रदेश में उनका पारिवारिक साम्राज्य कई पीढिय़ों तक कायम रहे। मोदी से टकराने की उत्कंठा अब उनमें नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश के अपने किले को सुरक्षित रखने के लिए वे इस प्रदेश में अपने विकल्प को खत्म करने का यह अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। जनता दल परिवार की एकता के नाम पर उन्होंने ऐसी प्रतीति कराई है कि धर्मनिरपेक्ष वोटरों में वे महाकाय नेता के रूप में स्थापित हों यानी उन्हें वोटरों का यह तबका भाजपा के एकमात्र विकल्प के रूप में उत्तर प्रदेश में स्वीकारने की मानसिकता बना ले। यह कहीं निगाहें कहीं निशाने का खेल है। मुलायम सिंह का पूरा दांव उत्तर प्रदेश में बसपा के वजूद को खत्म करने का है। इसके बाद अगर भाजपा सत्ता में आ भी जाए तो अगली बार सपा को फिर सत्ता में वापसी की गुंजाइश बनी रहेगी। इस तरह उक्त एकता का एक एंगिल यह भी है कि यह कुलकों की दलित विरोधी एकता के रूप में व्यवहरित होने के खतरे का भी संकेत है। यह संयोग नहीं है कि कुलकों और दलितों के बीच की खाई को भांपते हुए भाजपा दलितों के बीच अपने आधार को विस्तृत करने में लग गई है। चुनाव के पहले रामविलास पासवान व उदित राज का भाजपा में शरणम् गच्छामि होना दलितों में अचेतन तौर पर असुरक्षा की भावना का परिणाम हो सकता है। साथ ही भाजपा ने इस बार अंंबेडकर परिनिर्वाण दिवस मनाने में भी पहले से ज्यादा सक्रियता दिखाई है। अगली अंबेडकर जयंती केेंद्र सरकार द्वारा भारी तामझाम से मनाने की तैयारी की जा सकती है। दलितों और पिछड़ों के बीच अगर द्वंद्व बढ़ता है तो यह उस जनता दल की सबसे बड़ी पराजय होगी जिसके नाम पर कुलकों की एकता हो रही है। जनता दल की प्राथमिकता में वर्ण व्यवस्था को तिरोहित करना सर्वोपरि रहा है। इसी के तहत एक ओर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई थी दूसरी ओर बाबा साहब अंबेडकर को भारत रत्न घोषित किया गया था। कुलकों की राजनीति जाने-अनजाने में वर्ण व्यवस्था की मजबूती का मुहावरा गढ़ती रही है। साथ ही साथ इस राजनीति ने अपने दलित विरोधी रुख से व्यवहारिक तौर पर भी वर्ण व्यवस्था को भी काफी हद तक सुरक्षित किया है। जनता दल परिवार की एकता की कोशिशों की सबसे बड़ी उपलब्धि मुलायम सिंह और लालू यादव के बीच होने जा रही रिश्तेदारी है। जैसा कि ऊपर की पंक्तियों में कहा जा चुका है कि लोक दल परिवार अपनी तासीर में सर्वसत्ता वादी होने से लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता के मामले में पूरी तरह बेवफा है। इस कारण उत्तर प्रदेश से बिहार तक रिश्तेदारों के साम्राज्य का सपना इसमें एकता का मुख्य आधार सिद्ध हो रहा है तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
के पी सिंह
ओरई

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