आलेख : सत्ता के दलाल डुबो रहे कांग्रेस की लुटिया - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 24 जनवरी 2015

आलेख : सत्ता के दलाल डुबो रहे कांग्रेस की लुटिया

दस जनपथ के सबसे नजदीकी जर्नादन द्विवेदी ने मोदी की जीत को भारतीयता की जीत बताकर कांग्रेस की सबसे कमजोर नस पर चोट कर दी जिसकी वजह से पार्टी नेतृत्व बुरी तरह तिलमिला गया है। पार्टी के संचार विभाग के प्रमुख अजय माकन ने न केवल तत्काल इस बयान के लिए उनकी निंदा की बल्कि उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई पर विचार की बात भी कह दी। जर्नादन द्विवेदी को अभी तक यह मुगालता था कि कांग्रेस में कोई उनकी बात का आसानी से प्रतिवाद करने तक की जुर्रत नहीं कर सकता। उनके लिए कोई अनुशासन की कार्रवाई की बात कह दे यह तो कल्पना से परे थी। इसी कारण अजय माकन के माध्यम से पार्टी हाईकमान की उग्र नाराजगी की अभिव्यक्ति ने जर्नादन द्विवेदी की हालत इतनी पतली कर दी कि वे खुद अनुशासन समिति के अध्यक्ष एके एंटोनी के सामने सफाई देने के लिए हाजिर हो गए।

राजीव गांधी के समय कांग्रेस के अराजनीतिककरण की प्रक्रिया शुरू हुई। उनकी मां इंदिरा गांधी तो राजनीतिक विचारों के लिए इतनी प्रतिबद्ध थीं कि जब उन्होंने न्याय पालिका को अपने प्रगतिशील कार्रवाइयों में बाधक बनते देखा तो प्रतिबद्ध न्याय पालिका तक की चर्चा चला दी थी लेकिन उनके बेटे होते हुए भी राजीव गांधी उस दौर में नमूदार हुए जब इतिहास और विचारों के अंत की उद्घोषणाएं शुरू हो गई थीं। हालांकि उनके नए कदम के नतीजे बहुत घातक होंगे। पार्टी में सीनियर लोग यह महसूस करते थे लेकिन फिर भी उनके उत्साह में दखल देने की हिम्मत किसी सीनियर कांग्रेसी की नहीं हुई। अमिताभ बच्चन और अरुण सिंह जैसे लोग पार्टी व सरकार के नियंता बन गए। पार्टी का कारपोरेटीकरण नई बयार का अनिवार्य नतीजा था। राजीव गांधी ने वेतनभोगी काडर के निर्माण की शुरुआत की। जिलों में इस काडर को कोआर्डिनेटर बनाकर इतना शक्तिशाली कर दिया गया कि वे मुख्यमंत्रियों तक पर भारी पडऩे लगे। उस समय जनार्दन द्विवेदी भी उनकी टीम में जुड़े जिनकी कि उपयोगिता कांग्रेस मुख्यालय के बड़े बाबू के बतौर बहुत अच्छी हो सकती थी लेकिन वे पार्टी के कायाकल्प के दौर में एक सत्ता केेंद्र के रूप में स्थापित हो गए। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हुआ। उधर अपनी गलतियों की वजह से ही 1985 में भूतो न भविष्यतो बहुमत हासिल करके प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले राजीव गांधी की चमक सिर्फ दो सालों में फीकी पडऩे लगी। 1989 के चुनावों में तो उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ गया। पूर्वाग्रह से ग्रस्त राजनीतिक विश्लेषक कुछ चीजों के बारे में अपने दुराग्रह की वजह से यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि अगर उनकी 1991 के चुनाव के बीच में हत्या न हुई होती तो वे भारी बहुमत से सत्ता में रिपीट होते लेकिन यह बात पूरी तरह गलत है। वास्तविकता यह है कि उनकी हत्या के बाद कांग्रेस की सीटें काफी बढ़ गईं। फिर भी उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया। नरसिंहा राव ने सांसदों की खरीद-फरोख्त का नया अध्याय भारतीय राजनीति में जोड़कर जैसे-तैसे सरकार चलाई।

राजीव गांधी की गैर राजनीतिक सलाहकार मंडली के मशविरे का नतीजा था कि उन्होंने जनता दल के विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह सरकार को समर्थन देने का फैसला किया जिसकी वजह से उस समय पचासी सीटों वाले इस सबसे बड़े राज्य में कांग्रेस की जमीन ऐसी उखड़ी कि आज तक वह अपने पैर इस प्रदेश में नहीं जमा पा रही है। राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद आयोजित सभा में सत्ता के दलालों के खिलाफ आक्रामक भाषण करके खूब वाहवाही बटोरी थी लेकिन वे इन्हीं दलालों के चंगुल में फंस गए। उत्तर प्रदेश में पार्टी की बुरी हालत के बाद उसमें बढ़ोत्तरी की गुंजाइश बिल्कुल खत्म हो गई थी। सत्ता के दलाल कांग्रेस में मुलायम सिंह पैरोल पर उनके हितों के लिए काम कर रहे थे जिन्होंने ठेका ले रखा था कि वे सोनिया गांधी को इतना डरा कर रखेंगे कि वे कभी राजनीति की ओर रुख न करें। मुलायम सिंह के लिए यह इस कारण जरूरी था कि वे जानते थे कि अगर सोनिया गांधी राजनीति में आईं तो उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को पूरी तरह अपने चंगुल में कब्जियाने का उनका इरादा मटियामेट हो जाएगा। बहरहाल इसके बावजूद परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि सोनिया गांधी को राजनीति में उतरने का साहसिक फैसला लेना पड़ा। उत्तर प्रदेश में पार्टी की बहाली के लिए उन्होंने सलमान खुर्शीद को प्रदेश संगठन की बागडोर सौंपी जो मुलायम सिंह को बेहद नागवार गुजरी। उधर स्व. सुरेंद्र नाथ अवस्थी जैसे लोग जो कि मुलायम सिंह की रोटी इसी बात के लिए खा रहे थे कि वे सोनिया गांधी को नहीं आने देंगे और इस मामले में उन्हें अपने आका अमिताभ बच्चन से दिशा-निर्देश प्राप्त होता था। उन्होंने सोनिया गांधी के खिलाफ बगावत कर दी। सोनिया गांधी से उनके मुंहबोले भाई अमिताभ के रिश्ते भी इसी बात पर खराब होने शुरू हुए और आज दोनों के बीच कटुता की इंतहां हो चुकी है।

सोनिया गांधी ने इन हालातों को समझते हुए ही पार्टी के अंदर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के दलालों को किनारे लगाना शुरू कर दिया। मुलायम सिंह उस समय इतने बौखलाए हुए थे कि उन्होंने भाजपा की बजाय अपनी सारी भड़ास सलमान खुर्शीद के खिलाफ निकाली। उसी समय यह बात उठी कि अगर सलमान खुर्शीद मुलायम सिंह के खिलाफ इसलिए इस्तेमाल हो रहे हैं ताकि मुसलमानों का मजबूत रहनुमा कमजोर हो तो मुसलमानों के प्रति अपनी वफादारी साबित करने के लिए वे अपने अनुज शिवपाल सिंह की बजाय आजम खां को नेता प्रतिपक्ष बनाने का पांसा क्यों नहीं फेेंकते जबकि शिवपाल में उनके अनुज होने के अलावा कोई सलाहियत नहीं है। आजम खां उनसे तो ज्यादा होशियार राजनीतिज्ञ हैं ही। बहरहाल सोनिया गांधी की सूझबूझ का ही नतीजा था कि उन्होंने पार्टी के फिर राजनीतिकरण का फैसला लेकर जहां दलालों का वर्चस्व समाप्त किया वहीं सभी इकाइयों में महिलाओं, पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को पचपन फीसदी पद देने का ऐलान कर दिया। साथ ही जनता दल से जयपाल रेड्डी, मोहन प्रकाश जैसे नेताओं को लाकर पार्टी की वैचारिक दिशा को स्पष्ट और मजबूत किया। इन्हीं नीतियों का नतीजा था कि कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में लौटी और दस वर्ष तक उसने केेंद्र में फिर सत्ता चलाई। सूबों में भी एक के बाद एक उसका कब्जा होता चला गया। सोनिया गांधी द्वारा पार्टी की काली भेड़ों को ठिकाने लगाने के लिए चलाए गए बुलडोजर के क्रम में प्रमोद तिवारी भी नहीं बख्शे गए। कांग्रेस विधान मंडल के नेता पद पर एक तरह से उनका आरक्षण हो गया था और इस हैसियत का उपयोग वे अपने फायदे के लिए कांग्रेस को बेचने में कर रहे थे। हर मुख्यमंत्री के साथ नजदीकी कायम करके पार्टी से विश्वासघाती फैसले कराने में उनको महारत हासिल हो गई थी। सोनिया गांधी ने उनको आखिर में कांग्रेस विधान मंडल दल का नेता पद छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया।

लेकिन आज कांग्रेस में क्या हो रहा है। राहुल गांधी को जब से कहा गया कि वे अब सन् 2014 के चुनाव के बाद पार्टी और सरकार की बागडोर संभालेंगे तब से फिर कांग्रेस की अलग वैचारिक पहचान खत्म होने लगी और सत्ता के दलाल फिर हावी होने लगे। प्रमोद तिवारी व पीएल पुनिया को उत्तर प्रदेश के कोटे से राज्य सभा के लिए भिजवाकर कांग्रेस पार्टी का फायदा किया गया है या समाजवादी पार्टी का यह सब जानते हैं और इन सारे फैसलों में कहीं न कहीं जनार्दन द्विवेदी की अहम भूमिका रही है। जनार्दन द्विवेदी ने संक्रमण के दौर में पार्टी की वैचारिक दृढ़ता को निखारने की हर बयानबाजी को विवादित साबित करके ऐसा बयान जारी करने वाले नेताओं को पार्टी का सबसे बड़ा दुश्मन बताने का उसे हाशिए पर पहुंचाने का काम किया। राहुल गांधी की वजह से सोनिया गांधी इसमें अपने पुत्रमोह के कारण असहाय रहीं।

राजनीति में विचारधारा के प्रति बहुत ही चुंबकीय आकर्षण होता है। आज हालत यह है कि वैचारिक लक्ष्य वाली केवल एक पार्टी बची है भाजपा। इस कारण मोदी का व्यक्तित्व मार्केटियर के उनके गुण जुड़ जाने से इतना ज्यादा चुंबकीय हो गया है कि किरन बेदी से लेकर शशि थरूर और अब जनार्दन द्विवेदी तक उनके मोहपाश में फंसने को विवश हो रहे हैं। हर पार्टी में मोदी की सेंध लगती जा रही है। सत्ता के दलालों की तो संक्रमण के समय छठी इंद्रिय और अधिक सक्रिय हो जाती है जिसकी वजह से जनार्दन द्विवेदी ने यह सूंघ लिया कि मोदी के वर्चस्व का दौर तात्कालिक नहीं स्थाई है जिसकी वजह से सत्ता की पनाह में जाने की फितरत के तहत मोदी की ओर खिसकने की भूमिका उनके द्वारा बनाया जाना लाजिमी है।

बहरहाल ऐसी हालत में सोनिया गांधी को बहुत सूझबूझ से काम लेना होगा। पश्चिमी संस्कृति से विरासत में उन्हें होमवर्क करके रणनीति बनाने का गुण मिला है। इसी कारण वे सटीक रणनीति बनाकर दफन हो चुकी कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराने मेंंसफल हुई थीं। आज कांग्रेस को विचारधारा विहीन पार्टी से उबारकर एक अलग वैचारिक पहचान वाली पार्टी के रूप में ढालने के लिए उनके द्वारा मशक्कत की जरूरत है। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय की राजनीति को उन लोगों ने हाईजैक कर रखा है जिनकी अपना भला करने के अलावा कोई विचारधारा नहीं है। इस कारण यह लगता है कि यह विचारधाराएं कमजोर या अप्रासंगिक हो गई हैं लेकिन आज भी इस देश में इसी विचारधारा के आधार पर राजनीतिक उत्तरजीविता को प्राप्त करना संभव है। सोनिया गांधी को इस मामले में आसमान में सुराख करने के लिए एक पत्थर तबियत से उछालने की जरूरत है। वातावरण ऐसा है कि उक्त प्रतिबद्धताओं में स्पष्टता दिखाने पर विवादित हो जाने का भय दिखाकर डराने की कोशिश की जाएगी लेकिन प्रतिबद्धताओं का खरापन ऐसे परीक्षा के दौर में ही साबित हो सकता है। भाजपा और मोदी की अपराजेय हो चुकी राजनीतिक सत्ता का मुकाबला वैकल्पिक विचारधारा के आधार पर ही संभव है क्योंकि मोदी का करिश्मा भी उनकी पार्टी व संघ परिवार की वैचारिक प्रतिबद्धताओं पर ही टिका हुआ है। विचारधारा ही विचारधारा को काट सकती है। पराजित कर सकती है। विचारधारा के क्षेत्र में खरी मुद्रा खोटी मुद्रा को बाहर कर देती है। इस मुहावरे को चरितार्थ किया जा सकता है।







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के पी सिंह 
ओरई 

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