बिहार के मुजफ्फरपुर जि़ले के एक छोटे से गांव का रहने वाला रामप्रवेश पासवान पिछले कई सालों से दिल्ली में ऑटो चलता है। अपने परिवार से दूर रामप्रवेश अधिक पैसे कमाने के उद्देश्य से दिल्ली आया है ताकि वह अपने बच्चो को उज्जवल भविष्य दे सके। 30 वर्षीय रामप्रवेश के अनुसार दिल्ली में उसे ऑटो चलाकर अच्छी आमदनी हो जाती है जो गांव में मजदूरी करके किसी कीमत पर मुमकिन नहीं है। उसका कहना है कि दिल्ली में आॅटो मीटर से चलता है, जिसके कारण अधिक पैसे कमा लेता हूं। इसके विपरीत गांव में मजदूरी भी कम है और आॅटो में भी अच्छी कमाई नहीं होती है। ज़्यादा कमाई की कीमत रामप्रवेश को अपने परिवार से दूर रहकर चुकानी पड़ती है। मायूसी के साथ वह कहते हैं कि कौन नहीं चाहता कि उसका परिवार उसके साथ रहे, लेकिन परिवार के सदस्यों की अच्छी षिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य व उचित भोजन के लिए उन्हें परिवार से अलग रहना पड़ता है। दिल्ली में रहकर मैं पैसे तो कमा लेता हंू लेकिन परिवार के साथ समय नहीं बिता पाता। परिवार के साथ रहने का मेरा भी मन करता है लेकिन मजबूरी में यह सब करना पड़ता है क्योंकि हमारे गांव में आजीविका का कोई साधन नहीं है। मुझे अपने परिवार के लोगों की आवष्यकता की पूर्ति के लिए अपनों से दूर रहना पड़ता है। रामप्रवेष की आठ साल की बेटी खुषी कहती है कि हमें पापा के साथ रहने का बहुत मन करता है मगर वह हमें अपने साथ नहीं ले जाते। रामप्रवेश की पत्नी रामावंती देवी भी परदेस में पति के रहने को मजबूरी के रूप में स्वीकार करती है। उसका कहना है कि-‘‘अगर उसके पति यहां रहेंगे, तो बच्चे पढ़ नहीं पाएंगे। यहां रहकर कोई काम नहीं मिलता है और जो मिलता है उससे घर नहीं चल पाता है। पति परदेस से साल में एक ही बार आते हैं, 10-15 दिन रहकर फिर चले जाते हैं, तीन लड़कियां और एक लड़के के पालनपोषण और शिक्षा का जि़म्मा अकेले उसके कंधे पर है। वह कहती है कि हम अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि अब वह जमाना नहीं रहा कि बिना पढाये काम चल जाये। लेकिन पति की इतनी आमदनी नहीं है कि पूरे परिवार को दिल्ली रख सकें।
यह दर्द अकेले रामप्रवेष के परिवार का ही नहीं है बल्कि मुजफ्फरपुर जिला स्थित साहेबगंज ब्लाॅक के हुस्सेपुर परनी छपरा गांव के कई दर्जन परिवारों का भी है। यहां के लोगों को रोजगार नहीं मिलने के कारण गुजरात, बंगलुरु, दिल्ली, पंजाब आदि दूसरे प्रदेषों के षहरों में कमाने के लिए जाना पड़ता है। सोहर पासवान भी इसी टोले के हैं। वह कहते हैं कि लगभग इस टोले के चार दर्जन लोग बाहर रहते हैं। इस गांव के लड़के और बेटे बाहर काम करके घर के लिए पैसा भेजते हैं। कोई ड्राइवरी का काम करता है तो कोई फैक्टरी में काम करता है। सभी लोग 6 माह या एक साल में एक बार घर आते हैं। ग्रामीण बासदेव महतो कहते हैं कि उन्हें आज तक लेबर कार्ड नहीं मिला, तो 100 दिन का रोजगार कैसे मिलेगा। इसके अलावा गांव में बारह महीने, तीसों दिन काम नहीं मिलता है तो बाहर कमाने जाना ही होगा। मेरे घर से भी मेरा बेटा बाहर कमाने के लिए गया हुआ है। घर में पांच सदस्यों का भरण-पोशण यहां रहकर नहीं हो सकता। घर से इतनी दूर रहने पर भी पढ़ा-लिखा न होने के कारण उन्हे अच्छा काम नहीं मिल पाता है। यदि बेटा एक महीना भी घर पर आकर रह जाता है, तो ब्याज पर पैसा लेकर घर चलाना पड़ता है। पलायन की समस्या यहां के लोगों की मजबूरी है। 100 दिनों का रोजगार सिर्फ नारा ही है। मनरेगा में भी काम नहीं मिल रहा है। बहुत लोगों को जाॅब कार्ड मिला भी, लेकिन वह पंचायत प्रतिनिधियों के पास हैं। बहुत से ऐसे मनरेगा मजदूर भी हैं, जिसने 30 दिन काम किया और 15 दिन का पैसा मिला। अब तो काम भी नहीं मिल रहा है। पहले पोखर की जो खुदाई का काम मजदूर किया करते थे वही खुदाई का काम अब ट्रैक्टर के जरिए किया जा रहा है। देष के दूरदराज के क्षेत्रों में कृर्शि कभी आय का मुख्य साधन हुआ करता था। लेकिन कृर्शि की लगातार खराब होती हालत को देखते लोग कृर्शि छोड़कर रोजगार की तलाष में षहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
जुलाई, 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार- ‘‘कृर्शि एवं सहकारिता मंत्रालय की ओर से कराए गए अध्ययन से यह बात साफ है कि संप्रग सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा लागू होने के बाद भी रोजगार की तलाष में गांवों से षहरों की ओर पलायन जारी है। सर्वे के अनुसार कुल मिलाकर प्रति परिवार करीब 0.12 सदस्य मनरेगा के तहत काम करने के लिए गांव लौटे हैं। यह वह लोग हैं जो कानून लागू होने से पहले कहीं और काम कर रहे थे। बिहार में मनरेगा काम के लिए गांव की ओर लौटने वालों का अनुपात सबसे अधिक (करीब 0.65 सदस्य प्रति परिवार) है। वह अकुशल कामगार हैं जो मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा में कृषि कार्यों में लगे थे। आंकड़ों से स्पश्ट है कि मनरेगा गांवों से षहरों की ओर पलायन रोकने में बहुत ज्यादा कामयाब नहीं रहा जिस उद्देष्य से इसे षुरू किया गया था।
कृर्शि के संदर्भ में राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन (एनएसएसओ) की हालिया रिपोर्ट इस ओर इषारा करती है कि कृषि न केवल भयावह संकट के दौर से गुजर रही है, बल्कि उसका तेजी से क्षरण भी हो रहा है। 1996 में ही विश्व बैंक ने भारतीय कृषि के पतन की दिशा बता दी थी। उस समय विष्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि अगले बीस वर्शों में यानी 2015 तक भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी इलाकों में पलायन का आंकड़ा ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की साझा आबादी के आंकड़े की बराबरी कर लेगा। इन तीनों देशों की संयुक्त आबादी 20 करोड़ है और विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि 2015 के अंत तक ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन का आंकड़ा इस संख्या तक पहुंच सकता है। यह भयावह स्थिति केवल इसीलिए पैदा हुई है, क्योंकि कृषि फायदे का व्यवसाय नहीं रह गई है। घाटे की खेती करते-करते किसान ऊब चुके हैं और वह न केवल इसे छोड़ने के लिए विवश हैं, बल्कि रोजी-रोटी की तलाश में शहरी क्षेत्रों का रुख भी कर रहे हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार प्रतिदिन 24 सौ से अधिक किसान कृर्शि छोड़कर षहरों की ओर चल पड़ते हैं। कुछ स्वतंत्र अनुमान तो हर वर्श षहर पलायन करने वाले लोगों की संख्या 50 लाख के आस पात बताते हैं।
हमारे देष के ग्रामीण क्षेत्रों से रोजगार की तलाष में षहरों की ओर पलायन कोई नई बात नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्र लोगों को रोजगार मुहैया कराने में जहां पिछड़ते जा रहे हैं वही षहरी क्षेत्रों में सभी तरह के लोगों के लिए अवसरों की भरमार है। अषिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी, यह तीन प्रमुख कारण हैं जो पलायन का कारण बनते हैं। गांवों में न षिक्षा है और न ही रोजगार के साधन। इस कारण लोग पलायन को मजबूर होते हैं। गांव छोड़ते समय उन्हें इस बात की उम्मीद होती है कि महानगरों में जीवन की सभी सुविधाएं मुहैया हो पाएंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों की कमी और महानगरों की चकाचैंध पलायन का मुख्य कारण बनती हैं। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिषा व मध्य प्रदेष आदि राज्यों से पलायन दर ज्यादा है। अगर 2001 की जनसंख्या को आधार मानकर आंकलन किया जाए तो उत्तर प्रदेष व बिहार से पलायन करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। महाराश्ट्र में आने वालों की संख्या जाने वालों की संख्या से 20 लाख ज्यादा है। इसी तरह हरियाणा में जाने वालों से ज्यादा आने वालों की संख्या 67 लाख और गुजरात में 68 लाख है। इसी तरह उत्तर प्रदेष से जाने वालों की संख्या यहां आने वालों की संख्या से 20 लाख से ज्यादा है। बिहार में भी आने वाले लोगों से ज्यादा जाने वालों की संख्या से 10 लाख ज्यादा है। आंकड़ों से साफ है कि उत्तर प्रदेष और बिहार से पलायन करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है जो बाहर के महानगरों में काम की खोज में जाते हैं। पलायन चाहे मौसमी तजऱ् पर हो या जीविका के संकट की स्थिति में हो, इसका प्रत्यक्ष प्रभाव गरीब और दलितों पर पड़ता है। जिनके पास भौतिक संसाधन नाममात्र को होते हैं। इस चक्रव्यू का शिकार सबसे पहले महिलाएं होती हैं जिन्हें मानसिक और शारीरिक शोषण से गुज़ारना पड़ता है। रोज़गार की तलाष में पलायन इन लोगों का षौक नहीं बल्कि मजबूरी है। ऐसे न जाने कितने लोगों हैं जो सालों से परिवार से दूर रह रहे हैं। वह चाहते हैं कि उनकी जिंदगी का बाकी समय उनके परिवार के साथ बीते मगर पारिवारिक जिम्मेदारियों को निर्वाह का बोझ इन्हें ऐसा करने से रोकता है। इसी दर्द को अपने सीने में लिए यह लोग जिंदगी की डोर को पकड़कर आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन यह लोग सरकार से एक सवाल जरूर करना चाहते हैं कि देष के दूर-दराज क्षेत्रों में क्या यह स्थिति हमेषा बनी रहेगी या इसका कभी समाधान भी होगा?
खुशबु कुमारी
(चरखा फीचर्स)
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