होली विशेष : काशी के मसाने में भक्तों संग शिव ने खेली होली - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 5 मार्च 2015

होली विशेष : काशी के मसाने में भक्तों संग शिव ने खेली होली

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जी हां, यूं ही नहीं कहा जाता काशी को मोक्ष की नगरी। देवभूमि काशी को देवो के देव महादेव यानी बाबा विश्वनाथ ने स्वयं सांस्कारिक मानव कल्याण के लिए ब्रह्मा की सृष्टि से बिल्कुल अलग बसाया। तभी तो यहां यमराज का दंडविधान नहीं, बल्कि बाबा विश्वनाथ के ही अंश बाबा कालभैरव का दंडविधान चलता है। और यहां धार्मिक संस्कारों का पालन करने वाला हर प्राणी मृत्युपरांत मोक्ष को प्राप्त करता है।  इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि महादेव न सिर्फ अपने पूरे कुनबे के साथ काशी में वास किया बल्कि हर उत्सवों में यहां के लोगों के साथ महादेव ने बराबर की हिस्सेदारी की। खासकर उनके द्वारा फाल्गुन में भक्तों संग बाबा औघड़ रूप में महाश्मशान पर जलती चिताओं के बीच चिता-भस्म की खेली गयी होली की परंपरा आज भी जीवंत करने की न सिर्फ कोशिश बल्कि काशी के लोगों द्वारा डमरुओं की गूंज और हर हर महादेव के नारों के बीच एक-दूसरे को भस्म लगाते हैं   

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चारों ओर छा गई है फागुन की मस्ती। अबीर गुलाल के साथ कृष्ण भक्ति व शिव भक्ति में डूब गया है भक्तों का मन। ऐसे में अगर काशी की होली की चर्चा न की जायं तो सबकुछ अधूरा लगता है, जहां भगवान शिव ने भक्त संग मसाने में खेली होली। यहां की होली की छटा देखते ही बनती है। मां खेलैं मसाने में होरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी, भूत पिशाच बटोरी, दिगंबर खेलैं .लखि सुन्दर फागुनी छटा की, मन से रंग गुलाल हटा के ये, चिता भस्म भरि झोरी, दिगंबर खेलैं, नाचत गावत डमरू धारी, छोड़ें सर्प गरल पिचकारी, पीटैं प्रेत थपोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।। भूतनाथ की मंगल होरी, देखि सिहायें बिरज की छोरीय, धन-धन नाथ अघोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।। जी हां, यह पंक्ति उस वक्त की है जब काशी में माता पार्वती संग बाबा विश्वनाथ ने चिता भस्म की होली खेली। यह परंपरा सालों से पूरी करते हुए अब भी जारी है। और कुछ उसी अंदाज में आज भी काशी में अक्खड़, अल्हड़भांग, पान और ठंडाई की जुगलबंदी के साथ अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के रंगों में घुली बनारसी होली खेली जाती है। फाल्गुन की रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ देवी पार्वती का गौना कराकर दरबार लौटते हैं। इस दिन बाबा की पालकी निकलती है और लोग उनके साथ रंगों का त्योहार मनाते हैं। दूसरे दिन सुबह महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर लोग बाबा मशाननाथ को विधिवत भस्म, अबीर, गुलाल और रंग चढ़ाकर डमरुओं की गूंज के बीच चीता भस्म की होली खेलते है। बाबा विश्वनाथ की नगरी में फाल्गुनी बयार भारतीय संस्कृति का दीदार कराती है, संकरी गलियों से होली की सुरीली धुन या चैराहों के होली मिलन समारोह बेजोड़ हैं। 

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मान्यता है कि औघड़दानी बनकर बाबा खुद महाश्मशान में होली खेलते हैं और मुक्ति का तारक मंत्र देकर सबको तारते हैं। प्राचीन काल से ही इस परंपरा के अनुरुप लोग होली खलते आ रहे है। लोगों का मानना है कि मशाननाथ रंगभरी एकादशी के एक दिन बाद खुद भक्तों के साथ होली खेलते हैं। तभी तो यहां की चिताएं कभी नहीं बुझतीं। मृत्यु के बाद जो भी मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार के लिए आते हैं, बाबा उन्हें मुक्ति देते हैं। यही नहीं, इस दिन बाबा उनके साथ होली भी खेलते हैं। कहा यहां तक जाता है कि काशी नगरी में प्राण छोड़ने वाला व्यक्ति शिवत्व को प्राप्त होता है। श्रृष्टि के तीनों गुण सत, रज और तम इसी नगरी में समाहित हैं। शास्त्रों में भी पाया गया है कि महाश्मशान ही वो स्थान है, जहां कई वर्षों की तपस्या के बाद महादेव ने भगवान विष्णु को संसार के संचालन का वरदान दिया था। इसी घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा ली थी। यह दुनिया की एक मात्र ऐसी नगरी है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगल माना जाता है। यहां शव यात्रा में मंगल वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है। मान्यता है कि रंगभरी एकादशी एकादशी के दिन माता पार्वती का गौना कराने बाद देवगण एवं भक्तों के साथ बाबा होली खेलते हैं। लेकिन भूत-प्रेत, पिशाच आदि जीव-जंतु उनके साथ नहीं खेल पाते हैं। इसीलिए अगले दिन बाबा मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान करने आते हैं और अपने गणों के साथ चीता भस्म से होली खेलते हैं। नेग में काशीवासियों को होली और हुड़दंग की अनुमति दे जाते हैं। भावों से ही प्रसन्न हो जाने वाले औघड़दानी की इस लीला को हर साल पूरी की जाने वाली इस रस्म की उमंग जो घंटों देसी-विदेशी पर्यटकों को तो लुभाती ही है अबीर गुलाल से भी चटख चिता भस्म की फाग के बीच वाद्य यंत्रों व ध्वनि विस्तारकों पर गूंजते भजन माहौल में एक अलग ही छटा बिखेरती है, जिससे इस घड़ी मौजूद हर प्राणी भगवान शिव के रंग में रंग जाता है। 

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इस अलौकिक बृहंगम दृष्य को अपनी नजरों में कैद करने के लिए गंगा घाटों पर देश-विदेश के हजारों-लाखों सैलानी जुटते हैं। यहां की खास मटका फोड़ होली और हुरियारों के ऊर्जामय लोकगीत हर किसी को अपने रंग में ढाल लेते हैं। फाग के रंग और सुबह-ए-बनारस का प्रगाढ़ रिश्ता यहां की विविधताओं का अहसास कराता है। गुझिया, मालपुए, जलेबी और विविध मिठाइयों, नमकीनों की खुशबू के बीच रसभरी अक्खड़ मिजाजी और किसी को रंगे बिना नहीं छोड़ने वाली बनारस की होली नायाब है। पूरी दुनिया काशी इकलौता शहर है जहाँ मृत्यु को भी लोग उत्सव की तरह मनाते है। मय्यत को ढोल नगाडो के साथ शमशान तक पहुचाते है। रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ के दरबार से शुरु होने होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है। जिस वक्त काशी के मुकीमगंज से बैंड-बाजे के साथ औघड़दानी बाबा की बारात निकलती है, नियत स्थान पर पहुंचकर महिलाएं परंपरागत ढंग से दूल्हे का परछन करती हैं। मंडप सजता है, जिसमें दुल्हन आती है, फिर शुरू होती है वर-वधू के बीच बहस और दुल्हन के शादी से इंकार करने पर बारात रात में लौट जाती है। जोगीरा सारा .. रा .. रा .. रा .. रा ... की हुंकार बनारस की होली का अलग अंदाज दरसाता है। 

जोगीरा की पुकार पर आसपास के हुरियारे वाह - वाही लगाए बिना नहीं रह सकते और यही विशेषता अल्हड़ मस्ती दर्शाती है। इसके अलावा रंग बरसे भींगे चुनर वाली, रंग बरसे. और  होली खेले रघुबीरा अवध में होली खेले रघुबीरा जैसे गीतों की धुनें भी भांग और ठंडाई से सराबोर पूरे बनारस ही झूमा देती हैं। गंगा घाटों पर मस्ती का यह आलम रहता है कि विदेशी पर्यटक भी अपने को नहीं रोक पाते और रंगों में सराबोर हो ठुमके लगाते हैं। कहते है साल में एक बार होलिका दहन होता है किन्तु महाकाल स्वरूप भगवान भोलेनाथ की रोज होली होती है काशी के मणिकर्णिका घाट (श्मशान घाट) सहित प्रत्येक श्मशान घाट पर होने वाला नरमेध यज्ञ रूप होलिका दहन ही उनका अप्रतिम विलास है। भांग और ठंडाई के बिना बनारसी होली की कल्पना भी नहीं कर सकते। यहां भांग को शिवजी का प्रसाद मानते हैं, जिसका रंग जमाने में अहम रोल होता है। होली पर यहां भांग का खास इंतजाम करते हैं। तमाम वरायटीज की ठंडाई घोटी जाती है, जिनमें केसर, पिस्ता, बादाम, मघई पान, गुलाब, चमेली, भांग की ठंडाई काफी प्रसिद्ध है। कई जगह ठंडाई के साथ भांग के पकौडे बतौर स्नैक्स इस्तेमाल करते हैं, जो लाजवाब होते हैं। भांग और ठंडाई की मिठास और ढोल - नगाड़ों की थाप पर जब काशी वासी मस्त होकर गाते हैं, तो उनके आसपास का मौजूद कोई भी शख्स शामिल हुए बिना नहीं रह सकता। 

बनारस में सदियों पुरानी परंपरा को बदलने और एकांकी जीवन व्यतीत कर रहीं विधवाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने की दिशा में इस बार अनोखी पहल की गयी। बेरंग जीवन में फिर रंगों का निखार दिखा। सफेद साड़ी में रहने वाली विधवाएं भक्ति रंग से सराबोर हो गईं। वृद्ध-विधवाएं एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल की बरसात करने लगीं। होली की गीतों पर थिरक रहीं ये निराश्रित महिलाएं देर तक फूलों की बरसात करती रहीं। उम्र की दीवार को ढहाती महिलाओं के चेहरे के भाव बता रहे थे कि यह अवसर अरसे बाद मिला है जिसे वह जीभर कर के जीना चाहती हैं। ‘हरे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा’ जैसे भक्ति बोल आश्रय सदन में देर तक गूंजते रहे। होली के रंग हर दिल अजीज होते हैं। मुगल आक्रांताओं ने इनसे दूरी बनाई, लेकिन बाद में उन्हें वह दूरी मिटानी पड़ी। खूबसूरत त्योहार पर आखिर उन्हें भी रंगों में डूबना पड़ा। मुगल दरबार में भी जमकर बरसने लगा रंग। वहां फाग गाए जाने लगे, इस दौरान क्या राजा और क्या दरबारी। सब झूमते थे। इसके बाद उड़ता था अबीर-गुलाल। सभी एक दूसरे से गले मिलकर देते थे होली की मुबारकबाद। 1सन् 1193 में मोहम्मद गौरी द्वारा पृथ्वीराज चैहान को हराने के बाद देश में मुगलों की सत्ता स्थापित हो गई थी। इसके बाद शहरों से हंिदूू त्योहारों की रौनक खत्म होने लगी। शहर में तो होली की औपचारिकता होने लगी, देहातों में ही हिंदूू अपने त्योहार खुलकर मनाया करते थे। मुस्लिम साहित्यकार मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखी पुस्तक के अनुसार उस समय गांवों में जरूर इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे। जब मुगलिया सिंहासन पर बादशाह अकबर आसीन हुए तो हिंदूू त्योहारों से प्रतिबंध हटा दिया। सभी लोग होली, दीपावली और दशहरा सहित सभी हिंदूू त्योहार उत्साह पूर्वक मनाने लगे। जैसे ही फाल्गुन का महीना शुरू होता था, मस्ती का माहौल छा जाता। होली के गीतों पर चंग, ढोलक, मंजीरे, हारमोनियम पर लोग फाग गाते और मस्ती होकर नाचते थे। अकबर भी अपने दरबार में स्वयं होली खेलते थे। 




सुरेश गांधी 
लेखक आज तक टीवी न्यूज चैनल से संबंद्ध है 

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