दुनिया आगे निकल रही है या फिर हम पीछे छूट गए। बढ़ते समय के साथ मडुवे की खेती का चलन भी कम होता चला गया। हरित क्रांति के विकास के साथ मडुवे की खेती की जगह दूसरी मुनाफे वाली फसलें लेती गयीं। किसानों ने भी अपने खेतों में मडुवे की जगह दूसरी फसलें लगाना षुरू कर दिया। लेकिन देष के कुछ इलाकों में दोबारा से लोगों का रूझान मडुवे की खेती की ओर हो रहा है। सीमांत किसानों के लिए यह आवष्यक है कि वह धान के अलावा वैकल्पिक खेती अवष्य करें। ऐसा इसलिए मडुवे की खेती में कम लागत के चलते मुनाफे की संभावना हमेषा रहती है। मडुवे के अलावा और भी बहुत सारी फसलें हैं जो पानी की कम मात्रा और कम लागत में अच्छा मुनाफा देती हैं जिनमें सरगुजा, कुरथी, गुदंली आदि फसलें षमिल हैं। झारखंड के देवघर में किसानों का रूझान दोबारा से मडुवे की खेती की ओर हो रहा है। गांव झांझी के किसानों की मडुवा की खेती की ओर बढ़ती दिलचस्पी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां के किसानों ने मिलकर यहां एक आम सुविधा केंद्र बनाया है। इस सुविधा केंद्र से आस-पास के छह गांवों के किसान मडुवा का बीज उधार लेते हैं। उधार लिए गए बीज के बदले किसान फसल तैयार होने पर बीज का दोगुना दाम देने को तैयार हैं। गौरतलब है कि पहले इस क्षेत्र में मडुवे का इस्तेमाल पोशक आहार के रूप में होता था लेकिन पिछले दो दषकों में यह फसल यहां से पूरी तरह गायब सी हो गयी है।
मडुवे की खेेती को इस इलाके में फिर से जीवित करने का श्रेय झांझी के किसानों को जाता है जो उच्चकोटी का मडुवा पैदा कर रहे हैं। मडुवे की खेती के लिए बहुत कम वर्शा की आवष्यकता होती है और इसकी पैदावार बंजर ज़मीन पर भी हो सकती है। यही वजह है कि सूखे से त्रस्त क्षेत्रों में इसकी खेती के लिए बहुत कम पानी की आवष्यकता होती है। इसके अलावा इसकी खेती में दूसरी फसलों के मुकाबले बहुत ज़्यादा कीटनाषकों का भी इस्तेमाल नहीं होता है जिसकी वजह से इसकी खेती पर लागत कम आती है। मडुवे की खेती से किसान खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य के अलावा पोशण सुरक्षा के लक्ष्य को भी आसानी से हासिल कर सकते हैं। दो दषक पहले तक इस क्षेत्र में मडुवे की खेती का चलन बहुत ज़्यादा था। लेकिन हरित क्रांति के युग में उन्नत किस्म के बीजों के विकास और सिंचाई सुविधाओं के सुधार के चलते मडुवे की खेती का चलन कम होता गया और इसकी जगह ज़्यादा मुनाफे वाली धान की फसल ने ले ली। हालांकि बाद में क्षेत्र में लगातार सूखे के चलते धान की फसल क्षेत्र के लोगों के लिए जी का जंजाल बन गयी। गौरतलब है कि धान की फसल के लिए सिंचाई में बहुत ज़्यादा पानी की आवष्यकता होती है मगर लगातार सूखे के चलते इसकी फसल का किसानों के ज़रिए देखभाल करना कठिन होता गया। क्षेत्र में लगातार कई वर्शों तक धान की फसल के चलते यहां के ग्राउंड वाटर का स्तर भी काफी नीचे चला गया है। इसके अलावा धान की फसल में इस्तेमाल होने वाले महंगे खाद और कीटनाषक की वजह से ज़्यादातर छोटे किसानों को इसकी खेती रास नहीं आई।
इस समस्या से निजात दिलाने के लिए देवघर के एक गैर सरकारी संगठन प्रवाह ने जर्मन डेवलपमेंट एजेंसी ‘‘वैल्ट हंगर िहल्फ’’ की मदद से किसानों को परंपरागत फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। गैर सरकारी संगठन के ज़रिए ‘‘वैल्ट हंगर हिल्फ के ‘‘स्थायी एकीकृत कृशि प्रणाली’’ प्रोग्राम के तहत बंजर पड़ी ज़मीन पर मडुआ उठाने के लिए षुरूवात में मदद भी दी गई। इस प्रोग्राम के तहत सीमांत किसानों को कृर्शि क्षेत्र में नवीन पद्धतियां अपनाते हुए न्यूनतम निवेष के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा लाभ लेने के लिए मदद की जा रही है।
क्षेत्र में मडुवा की खेती दोबारा षुरू होने से किसानों की ओर से भी काफी सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही है। इसके अलावा सरकार की मदद से देवघर के दूसरे गांवों के किसान भी मडुवा की खेती में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और इसका विस्तार बहुत तेज़ी से हो रहा है। 2012 में जरवाडीह, झांझी और कल्यानरथारी के किसानों ने 1.78 एकड़ ज़मीन पर तकरीबन 9 क्विंटल मडंुवा की पैदावार की थी। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक इस समय 32 गांवों के 550 किसानों ने मडुवा की खेती कर 48 क्विंटल मडुवा का उत्पादन किया है। मडुवे की खेती से किसानों को एक फायदा यह हुआ है कि पहले जिस बंजर ज़मीन पर धान की खेती संभव नहीं थी उसी ज़मीन पर मडुवे की पैदावार बहुत अच्छी हो रही है।
मडुवे की खेती के बारे में गैर सरकारी संगठन प्रवाह में कार्यरत बबीता सिंहा का कहना है कि-‘‘ क्षेत्र में बहुत से किसान की मडुवे की खेती की ओर दिलचस्पी बढ़ी है जबकि बहुत से किसान अब भी धान की खेती कर रहे हैं। किसान सहकारी समितियों, किसान क्लब और कृशि विष्वविद्यालय के साथ मेलजोल से किसानों को मडुवे की खेती की ओर प्रोत्साहित किए जाने की ज़रूरत है क्योंकि इसकी खेती का सकारात्मक परिणाम देवघर में देखने को मिलने लगा है। मडुवा के बारे में झांझी गांव के स्थानीय निवासी सिरोमनी सिंह कहते हैं कि- ‘‘मुझे याद की मेरे दादा मडुवे के कई व्यंजन बनवाया करते थे लेकिन जब से धान की फसल का चलन षुरू हुआ तो लोगों की ऐसी धारणा बनती गई कि मडुवे को गरीब परिवार के लोग खाते हैं। ऐसीे सोच रखने वाले लोग मडुवे को सिर्फ एक घास समझते हैं। लेकिन वास्तव में वह लोग इस पारम्परिक खेती के महत्व को नहीं समझते हैं और नहीं जानते हैं मडुवे वास्तव में एक पूर्ण आहार है।
ठंड की शुरुआत होते ही घरों में व्यंजनों की तासीर भी गर्म होने लगी है। मडुवा की रोटी ठंड में सबसे अधिक कारगर है। मडुवे की पहाड़ में बंपर पैदावार होती है। आमतौर पर मडुवा की रोटी पहाड़ों में साल भर खायी जाती है। अधिकतर लोग मडुवा को गेहूं के साथ मिलाकर खाते हैं। लेकिन, मडुवा की तासीर गर्म होने के कारण ठंड में अधिकतर लोग इसकी ही रोटी खाते है। पहाड़ों में मडुवा की रोटी को सब्जी, देशी घी, गुड़ के अलावा हरा धनिया व लहसुन के नमक के साथ बडे़ ही चाव से खाया जाता है। मडुवा बेहद पौष्टिक आहार है। इसमें आयरन और फासफोरस का प्रमुख स्रोत है और मधुमेह के रोगियों के लिए कारगर है। छोटे बच्चों के दिमाग के विकास में सहायक होता है। मडुवा में 71 फीसदी कार्बोहाइड्ेट, 12 फीसदी प्रोटीन, पांच फीसदी फैट होता है। जब मडुवा इतने पोशक तत्वों से मालामाल है और इससे इतने फायदे हैं तो राज्य सरकार को देवघर के अलावा झारखंड के दूसरे जि़लों में किसानों को इसकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
आकृति श्रीवास्तव
(चरखा फीचर्स)


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