फ्रांस की राज्य क्रांति ने आधुनिक विश्व को समता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के तीन सूत्र दिए। यह सूत्र लोकतंत्र की बुनियाद बने। बाबा साहब डा. अंबेडकर को आज के समय शीर्षस्थ दलित नेता के रूप में पेेश किया जा रहा है लेकिन यह उनकी संपूर्ण नहीं खंडित छवि है। अमेरिका में पढ़े होने की वजह से नए समाज के गढऩे को लेकर वे जो सपना देखते थे वह फ्रांस की राज्य क्रांति के सिद्धांतों पर बुना हुआ था। व्यक्तिगत जीवन में मिले अनुभव की वजह से वर्ण व्यवस्था को लेकर उनके मन में गहरा असंतोष था। इस कारण जातिगत भेदभाव का कोई प्रसंग आ जाने पर वे उग्र हो जाते थे लेकिन यह उनका संचारी भाव था स्थाई भाव नहीं इसीलिए उन्होंने वर्ण व्यवस्था को माध्यम बनाकर दलितों के साथ किए गए अमानवीय बर्ताव का बदला लेने की कल्पना नहीं की। अगर वे ऐसा करते तो अछूत सत्ता या दलित सत्ता की स्थापना के लिए संघर्ष उनके एजेंडे में होता। स्वाभाविक रूप से ऐसी सत्ता तब उन्होंने इसलिए चाही होती कि उनके लोग आतातायी वर्ग के साथ वही सुलूक करने में समर्थ हो सकेें जो उनके पूर्वजों के साथ किया गया था लेकिन डा. अंबेडकर नैतिक चेतना से ओतप्रोत थे इसलिए वे अपने संघर्ष को सार्वभौम न्याय पर आधारित व्यवस्था के निर्माण की जद्दोजहद में केेंद्रित कर सके।
डा. अंबेडकर के पहले और उनके बाद भी दलित आंदोलन की एक धारा बदला लेने की भावना से प्रेरित रही थी।
इसकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत था औपनिवेशिक षड्यंत्र के तहत गढ़ा गया यह मिथक कि दलित व अन्य शूद्र भारत के मूल नागरिक हैं जिन पर बाहर से आए आर्यों ने आधिपत्य कर लिया और जैसा कि होता है विजित कौम को गुलाम बनाकर रखने के लिए उन्होंने वर्ण व्यवस्था जैसी मानवता विरोधी व्यवस्था ईजाद की। राष्ट्रीय एकता के लिए यह धारणा बेहद घातक थी। इस धारणा के मजबूत होने पर देश के विघटन का एक और आधार तैयार होने की आशंका थी। डा. अंबेडकर ने इस धारणा को निर्मूल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके पास अकादमिक अध्ययन था जिसकी वजह से वे वस्तुपरकता और तथ्यों पर आधारित पूर्ण परिपक्व विश्लेषण भारतीय समाज की अवधारणा के बारे में प्रस्तुत कर सके। इसमें उन्होंने जाति व्यवस्था को लेकर मूल और बाहरी के अंतर को पाट दिया। उन्होंने यह स्थापना दी कि जाति व्यवस्था का निर्माण उस समय हुआ जब द्रविड़, सीथियंस, मंगोल और आर्यों के बीच रोटी बेटी के घनिष्ठ संबंध बन चुके थे जिससे उनमें रक्त और नस्ल के आधार पर अलग-अलग वर्गों को चिह्निïत करने की कोई गुंजायश नहीं रह गई थी। वे सवर्ण और शूद्रों को एक जैसे पूर्वजों की संतान मानते थे। लोकतांत्रिक जरूरतों के अनुरूप समाज के पुनर्गठन के लिए यह बेहद जरूरी था।
उन्होंने दलितों के साथ हुए भेदभाव व अत्याचार के प्रतिकार के लिए जितना आंदोलन चलाया उसमें अपना लक्ष्य मुख्य रूप से यह ध्वनित किया कि जब दोनों एक ही जैसे पूर्वजों की संतान हैं तो आपसी तौर पर घनिष्ट मेलमिलाप के लिए उन्हें जातिगत जकड़बंदी को तोडऩे को तत्पर होना पड़ेगा। नौकरियों में आरक्षण उनके लिए यह लक्ष्य हासिल करने का एक प्रक्रियात्मक तरीका था। इससे जहां दलितों को प्रशासन में भागीदारी मिली वहीं उन्हें यह उम्मीद थी कि जब जातिगत श्रेष्ठता के प्रतिमान अच्छे अवसरों के लिए बेमानी हो जाएंगे तो इसमें जिनका निहित स्वार्थ है वे भी जाति व्यवस्था के प्रति मोहभंग के लिए मजबूर होने लगेंगे। इस तरह जातिगत चेतना समाप्त होगी और नागरिक व वर्ग चेतना उसक स्थान ले लेगी।
लोकतंत्र सहित शुरूआती तमाम राजनीतिक प्रयोग इसी परिणति की ओर अग्रसर प्रतीत हुए। जातिगत पहचान समाप्त करने के लिए उन्होंने दलित समाज के अंदर से नई पहल का आगाज किया। इसमें सारे दलितों को अलग-अलग पहचान भुलाकर धर्म परिवर्तन के माध्यम से एक बौद्ध पहचान में गुथ जाने पर जोर था। इसका संक्रमण अन्य समाजों में भी होने की बहुत उम्मीद थी लेकिन यह अजब विपर्यास है कि नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद के दौर में वर्ग चेतना के निर्माण की प्रक्रिया तो अवरुद्ध हो गई है लेकिन जातिगत पहचान ने बहुत ही मुखर तरीके से सिर उठा लिया है। भारतीय लोकतंत्र जातिगत शक्ति संतुलन पर आधारित एक व्यवस्था का पर्याय बन गया है। इसमें लाजिमी तौर पर जातियों के बीच वर्चस्व को लेकर उठापटक भी तेज हुई है। नई अर्थ नीति के साथ परंपरावादी व्यवस्था का घालमेल भारतीय समाज के लिए विकृत भविष्य का संकेत दे रहा है।
यह प्रक्रिया कुछ इस तरह चल रही है जिसमें दलितों को एक बार फिर अलगाव में धकेलने की कार्रवाइयां जोर पकड़ चुकी हैं। दलित एक ध्रुव पर हैं और दूसरे ध्रुव पर न केवल सवर्ण जातियां बल्कि मध्य जातियां भी उनके साथ हैं। यह गठजोड़ दलितों के आरक्षण लाभ में कटौती के लिए तत्पर है। उत्तर प्रदेश में पदोन्नतियों में आरक्षण समाप्त करने जैसे कदम ने दलितों के बीच जो संदेश दिया है वह मूल बनाम आर्य भारत की दफन हो चुकी खाई को फिर से जीवित करने का कारण बन सकता है। यह बहुत ही जटिल स्थिति है। बाबा साहब की सन्निकट आगामी जयंती के अवसर पर चिंतन का सबसे बड़ा एजेंडा यही होगा कि भारत में डिरेल हो चुका लोकतंत्र पटरी पर कैसे आ सके जिसके लिए जातिगत पहचान जैसी पुरानी संरचनाओं का अंत नितांत जरूरी है। बाबा साहब की विचारधारा और उनकी कार्रवाइयां इस मामले में आज भी लाइट पोस्ट का काम कर सकती हैं। इस कारण बाबा साहब की इस बार होने वाली जयंती में उनकी लिखी किताबों के पुस्तकालय और वाचनालय स्थापित करने व अंबेडकर वादी विचारधारा को केेंद्र बनाकर गोष्ठियों व संगोष्ठियों का सिलसिला बनाने की जरूरत है।
के पी सिंह
ओरई
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