विशेष आलेख : नई बहसों के भंवर में फंसा केजरीवाल और जनता दल परिवार का भविष्य - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 23 मई 2015

विशेष आलेख : नई बहसों के भंवर में फंसा केजरीवाल और जनता दल परिवार का भविष्य

स्वशासन लोकतंत्र के विकास की उच्चतम पायदान है। राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के अंतिम दिनों में इसीलिए 73 वां व 74 वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कराया था ताकि उच्चतम लोकतंत्र के प्रतिमानों में भारत भी सर्वोपरि हो सके। इन विधेयकों के माध्यम से जिला सरकार, ग्राम सरकार और नगर सरकार को कायम करने का संकल्प व्यक्त किया गया था जिसका मतलब था कि अपने क्षेत्र में ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतों तक और नगर पंचायतों से नगर निगमों तक सभी को खुद निर्णय लेने का अधिकार होगा। स्थानीय स्तर की संवैधानिक इकाइयों को अधिकतम स्वायत्तता तक इसे विस्तारित किया जाना था।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो दिल्ली में चुनी हुई सरकार को भले ही दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न हो नौकरशाही सेटअप अपने मुताबिक बनाने का अधिकार होना ही चाहिए वरना तो यह कहा जाएगा कि दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित करके लोकतंत्र के संदर्भ में एक प्रतिगामी कदम उठाने की कोशिश की जा रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल नजीब जंग के बीच अधिकारियों के स्थानांतरण को लेकर जो वैधानिक जंग शुरू हुई उसमें आखिरकार केेंद्र भी पक्ष बन गया और उसने फतवा दे दिया है कि अधिकारियों की नियुक्ति उप राज्यपाल ही करेंगे। हालांकि केेंद्र पहले इस मामले में पार्टी बनने से बच रहा था। जब अरविंद केजरीवाल और नजीब जंग राष्ट्रपति भवन पहुंच गए थे तो केेंद्र ने तटस्थता दिखाने का पूरा स्वांग किया था लेकिन अंततोगत्वा वह बहुत दिनों तक अपने संयम का संवरण नहीं कर पाया। केेंद्रीय गृह मंत्रालय ने खुलेआम उप राज्यपाल के पक्ष में अधिसूचना जारी कर दी है।

इस बार दिल्ली विधान सभा के चुनाव परिणाम जब आए थे तो अरविंद केजरीवाल को मिली भारी सफलता से केेंद्र प्रतिरक्षात्मक मुद्रा में था। यह कुछ महीने पहले की बात है और उम्मीद नहीं की जा रही थी कि पूरा परिदृश्य इतनी जल्दी बदल जाएगा लेकिन आज केेंद्र अरविंद केजरीवाल की सरकार को कुचलने का दुस्साहस दिखा रहा है तो उसकी मुख्य वजह यह है कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से टकराव के मामले में अरविंद केजरीवाल का जो तानाशाही चेहरा जनमानस के बीच उभरा है उससे उनकी लोकप्रियता में भारी गिरावट हुई है। अब उनकी स्थिति विधान सभा चुनाव के समय जैसी नहीं रह गई है जबकि जनता उनकी दीवानी थी। आम आदमी पार्टी में उनके सर्वसत्तावाद के नग्न प्रदर्शन ने यह साबित कर दिया है कि वैकल्पिक राजनीति से उनका कोई संबंध नहीं है। इसके साथ-साथ अब यह चर्चाएं भी शुरू हो गई हैं कि मनमोहन सरकार के खिलाफ जनलोकपाल के मामले में जो आंदोलन उनके द्वारा छेड़ा गया था उसके पीछे विदेशी दुष्प्रेरण था। हालांकि उसी समय यह खबरें आई थीं कि केजरीवाल के एनजीओ में एक ऐसी अमेरिकन शोध छात्रा ने काम किया है जिसके बारे में बाद में रहस्योदघाटन हुआ कि वह सीआईए के लिए काम करती थी। उस समय यह बात भी दबा दी गई थी कि केजरीवाल व्यापारियों और उद्यमियों के साथ बैठक में इस बात से उनको आश्वस्त करने की कोशिश करते थे कि वे उनके और कारपोरेट जगत के खिलाफ नहीं हैं। इस कारण जनता के अधिकारों के मामले में आर्थिक क्षेत्र में कोई साहसिक फैसला ले पाएंगे यह शुरू से ही संदिग्ध था लेकिन तब अंधविश्वास में लोगों ने इस पर गौर नहीं किया। जब उनके प्रति योगेंद्र यादव के खिलाफ अभियान में बदले की कार्रवाई के स्तर तक चले जाने की वजह से नकारात्मक धारणाएं पनपना शुरू हुईं तो उसने यह सारे घाव कुरेदने का काम किया। आज हालत यह है कि अगर दिल्ली में विधान सभा के चुनाव तत्काल हो जाएं तो केजरीवाल को वर्तमान जैसा बहुमत मिलना तो दूर सम्मानजनक सीटें मिल जाएं तो भी बड़ी बात होगी। इसी कारण केेंद्र सरकार उन्हें लेकर निर्भीक हो गई है। अधिकारियों के स्थानांतरण के मामले में सही सिद्धांत की परवाह न करते हुए उसने केजरीवाल सरकार को धक्का देने की हिमाकत इसीलिए की कि केेंद्र में अब इस बात की ब्यूह रचना हो चुकी है कि किसी भी कीमत पर केजरीवाल की सरकार को इत्मीनान से काम न करने दिया जाए। परिस्थितियां जो बन रही हैं उनमें लग रहा है कि केजरीवाल अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगे जबकि उन्होंने दिल्ली में बेहतर व्यवस्था देने के नैतिक कर्तव्य की आड़ पार्टी के राष्ट्रीय विस्तार की योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की जद्दोजहद को रोकने के लिए ली थी।

इधर दिल्ली का घटनाक्रम है उधर बिहार विधान सभा के सन्निकट चुनाव के पहले जनता दल परिवार के महाविलय की कोशिशों की भू्रण हत्या का परिदृश्य सामने आ रहा है। जब जनता दल परिवार के महाविलय की सुगबुगाहट शुरू हुई थी तब भाजपा सदमे जैसी हालत में थी। लालू, नीतीश और कांग्रेस के गठबंधन ने उपचुनाव में भाजपा को जो शिकस्त दी थी उससे लोक सभा चुनाव में नई नवेली सफलता हासिल करने वाली केेंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के हाथ पांव ढीले हो गए थे। जनता दल परिवार का महाविलय उसके लिये हौआ बन गया था लेकिन पार्टी के आंतरिक दबाव की वजह से इसके सिरमौर मुलायम सिंह जब पीछे हटते दिखे और इसके बाद लालू व नीतीश में सीटों के बंटवारे को लेकर चुनाव के पहले ही तू-तू मैं-मैं होने लगी तो भाजपा का सिरदर्द जैसे पूरी तरह उतर गया। आज मुलायम सिंह ने फिर बैठक बुलाई थी जिसमें महाविलय की दिशा में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। बैठक में नीतीश कुमार उपस्थित ही नहीं हुए। हालांकि बताया यह गया कि उनकी आंख का आपरेशन हुआ है जिसकी वजह से उन्हें आराम की सलाह दी गई है। दूसरी ओर इसी दौरान लालू यादव अपने नाबालिग पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाने पर अड़ गए हैं जिससे पप्पू यादव को उनसे अलग होना पड़ा। उनके परिवार तक में इसे लेकर शीत युद्ध छिड़ गया है क्योंकि उनकी पुत्री मीसा यादव को यह फैसला रास नहीं आ रहा। ऐसे में बिहार का माहौल एक बार फिर भाजपा के पक्ष में होने लगा है। अब कोई चमत्कार ही है जो इस माहौल को बदल सकता है।

दरअसल भारतीय जनता को वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है। जो न केवल धर्मनिरपेक्ष उसूलों का ईमानदारी से निर्वाह करे बल्कि लोकतंत्र की उच्च परंपराओं को भी बढ़ावा दे। जनता दल परिवार में जिस लोकदल परिवार का विलय हो रहा है वह आचरण में पूरी तरह लोकतंत्र विरोधी है। मुलायम से लेकर लालू यादव तक सभी नग्न परिवारवाद में लीन हैं। चौटाला परिवार तो पहले ही इस मामले में बाजी मारता रहा है। शासन करने के इनके तौरतरीके से लेकर पार्टी चलाने तक में फासिस्टवाद झलकता है। इस कारण जनता के हितों की कोई पूर्ति जनता दल परिवार के महाविलय से हो सकती है यह आशा करना छलावा होगा। लालू यादव और नीतीश में केवल सीटों के बंटवारे या वर्चस्व को लेकर ही छत्तीस का आंकड़ा नहीं है बल्कि दोनों की सोच में बहुत फर्क है। नीतीश में कम से कम लोकतांत्रिक गुण हैं। वे वंशवाद से दूर हैं और मूल मान्यताओं के तहत सरकार व प्रशासन चलाने की उनकी भावना है। इस मामले में लालू और उनके बीच कैर बैर का संग नजर आता है इसलिए भी कोई जनता दल परिवार के महाविलय को लेकर बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं रखता। दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल ने भी जबरदस्त मोहभंग किया है। इस बीच कई नई बहसों को जन्म मिला है जिनमें एक यह है कि थोपी गई अति लोकतांत्रिकता क्या भारत की कमजोरी की एक वजह बन गई है। सूचना के अधिकार से लेकर कई अन्य प्रावधानों तक अब लोगों को यह नजर आने लगा है कि इसकी वजह से भारत में सरकारों के निर्णय लेने की प्रक्रिया बाधित हो रही है जिसका प्रभाव भारत के विकास पर पड़ रहा है। एनजीओ प्रेरित आंदोलन के खिलाफ प्रधानमंत्री मोदी की भावनाओं को अब वामपंथी कार्यकर्ताओं तक का समर्थन अघोषित रूप से मिलने लगा है। ग्रीन पीस और फोर्ड फाउंडेशन का लाइसेंस निरस्त करने के उनके फैसले का स्वागत हुआ है। अब यह सवाल उठने लगा है कि इस देश को यहां के लोगों को अपने विवेक से चलाना चाहिए या पश्चिम प्रेरित उन अवधारणाओं से जिनसे देश का नुकसान हो रहा है लेकिन उनके साम्राज्यवादी स्वार्थ पूरे हो रहे हैं। आज पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभाव से खानपान से लेकर रीतिरिवाजों तक में जिस तरह की उच्छृंखलता फैशन के नाम पर हावी हो रही है उसके नुकसान के प्रति लोग जागरूक होने लगे हैं। एक दिन वह आने वाला है जब मुस्लिम विश्व की तरह भारत को भी विचारों में दृढ़ता लाने के लिए यह फैसला करना पड़ेगा कि पश्चिम और अमेरिका फैशन के जिन मानकों का निर्धारण करे उनकी हर कीमत पर अवहेलना की जाए ताकि यह देश वैचारिक दासता की जकड़ से मुक्त हो सके। केजरीवाल भी विदेशी फंडिंग से पोषित एनजीओ के उत्पाद रहे हैं और विदेशी फंडिंग से वैकल्पिक राजनीतिक का निर्माण नहीं होगा। यह राजनीति हमारी जमीन से अंकुरित और हमारी जमीन पर पल्लवित होनी चाहिए।




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के  पी  सिंह  
ओरई 

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