विशेष आलेख : हम तो जीने के लिए पल पल तड़पते हैं - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 20 मई 2015

विशेष आलेख : हम तो जीने के लिए पल पल तड़पते हैं

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भगवान ने हमें देखने के लिए दो आंखे, सुनने के लिए दो कान, सूंघने के लिए नांक, चलने के लिए दो टांगे और काम करने के लिए दो हाथ दिए हैं। अगर भगवान के ज़रिए दिए गए इन अनमोल उपहारों में से किसी एक में भी कोई कमी हो जाए तो जिंदगी नर्क हो जाती है। भगवान के ज़रिए इतना सब कुछ दिए जाने के बाद भी हम उसका धन्यवाद तक अदा नहीं करते। ऐसे लोगों को भगवान को धन्यवाद कहना चाहिए जो उसके ज़रिए दिए गए इन सारे उपहारों से मालामाल हैं। दुनिया में आज बहुत से लोग ऐसे हैं जो किसी कारणवष विकलांगता का षिकार हो गए हैं। ऐसे लोगों का जिंदगी में आगे बढ़ना काफी कठिन हो जाता है। विकलांगता  जन्मजात भी हो सकती है और जन्म के बाद भी। एक ऐसी ही कहानी जम्मू एवं कष्मीर के पुंछ जि़ले की तहसील मंडी के अड़ाई पंचायत की है। अड़ाई पंचायत में जन्म के चार पांच साल बाद बच्चे विकलांगता का षिकार हो जाते हैं। विकलांगता से पीडि़त लोग मानसिक तौर पर काफी स्वस्थ हैं मगर षारीरिक विकलांगता ने इन्हें जिंदगी के सफर में आगे बढ़ने से रोक दिया है। अड़ाई में कुल तीन पंचायतें हैं जिनमें अड़ाई मलकां, अड़ाई पीरां और अड़ाई हवेली षामिल है। अड़ाई मलकां के एक स्थानीय निवासी के मुताबिक-‘‘ पूरी अड़ाई में लगभग 72 लोग विकलांग है। जन्म के बाद यहां के लोग पोलियों जैसी बीमारी का षिकार हो जाते हैं। अगर अड़ाई मलकां की बात की जाए तो यहां कुल 26 लोग विकलांग हैं। इनमें से किसी का भी अभी तक विवाह नहीं हुआ है। ऐसे में आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जिंदगी के लंबे सफर में विकलांगता के बोझ के साथ यह लोग कैसे जिंदगी गुज़ारेंगे। यह सब लोग अपने अभिभावकों पर निर्भर हैं।
              
इस बारे में यहां के स्थानीय निवासी मोहम्मद रियाज़ मलिक कहते हैं कि-‘‘अड़ाई को 2014 में माॅडल विलेज का दर्जा दिया जा चुका  है। अड़ाई मलकां की आबादी 5 हज़ार है। इतनी बड़ी जनसंख्या  के लिए न कोई चिकित्सालय है और न कोई सड़क। ऐसे में  सड़क न होने की वजह से विकलांग व्यक्ति को काफी परेषानी का सामना करना पड़ता है। अपनी इस समस्या को लेकर मैं कई बार डीसी और क्षेत्र के विधायक से मिला लेकिन कोई असर नहीं हुआ। हमारा देष भारत षिक्षा के मैदान में काफी आगे बढ़ चुका है। लेकिन इस  क्षेत्र के विकलांग लोगों का क्या होगा जो पढ़ने की चाह तो रखते हैं लेकिन बुनियादी सुविधाओं की कमी और विकलांगता के चलते पढ़ नहीं सकते। हमारे क्षेत्र में इतनी सुविधाएं नहीं है कि उनको षिक्षित बनाया जा सके।’’ पंचायत मलकां की स्थानीय निवासी षहनाज़ अख्तर (26)  जोकि विकलांग होने के साथ-साथ बोल भी नहीं सकती हैं। षहनाज़ के बारे में उनके भाई मोहम्मद फारूक कहते हैं कि-‘‘षहनाज़ सिर्फ पांच साल की थी जब उसको पोलियो ने अपनी चपेट में लिया। हिम्मत न हारते हुए षहनाज़ ने किसी तरह तीसरी कक्षा पास की लेकिन जब विकलांगता बढ़ गई तो बेबस और लाचार हो गयी और उसे मजबूरी में अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पोलिया का षिकार होने के कुछ समय बाद ही वह फालिज का षिकार हो गई। इसकी वजह से वह अब सिर्फ घर के अंदर रहती है। गर्मी, सर्दी, बरसात, जाड़ा उसे सिर्फ एक चारपाई पर ही गुज़ारना पड़ता है। षहनाज़ इतनी बेबस हो गयी है कि वह पूरी तरह दूसरों की सहायता पर निर्भर है। यह चिंता का विशय है कि आखिर यहां के बच्चे जन्म के चार-पांच साल बाद विकलांगता का षिकार क्यों हो जाते हैं? बड़ी बड़ी लाइलाज बीमारियों पर काबू पा लिया जाता है। लेकिन सब कुछ पहले से मालूम होने के बावजूद भी इस लाइलाज बीमारी पर अभी तक काबू क्यों नहीं पाया जा सका है? 
           
हमारा देष मंगल मिषन तक भी कामयाब हो चुका है। लेकिन अभी तक षहनाज़ और इसके दूसरे अपंग साथियों को सरकार की ओर से एक व्हील चेयर भी नसीब नहीं हो सकी है। अड़ाई की निवासी नसीम अख्तर (23) कहती हैं-‘‘ मैं जब ढ़ाई साल की थी तो इस खतरनाक बीमारी का षिकार हो गयी। मैं भी पूरी तरह से अपने घर वालों पर निर्भर हंू। मैं चलकर घर से बाहर नहीं जा सकती। सिर्फ लाठी के सहारे चंद कदम चल सकती हंू। आज तक सरकार की ओर से मुझे कोई भी मदद नहीं मिली है। मैं हाथ से काम कर सकती हंू।’’ नसीम अख्तर ऐसा क्या करे जिससे वह अपने खर्चे घर वालों के सर से उतार पाए। नसीम अख्तर के लिए इस समय यह एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। औरतों के साथ साथ यहां का पुरूश वर्ग भी इस बीमारी का षिकार है और आने वाले समय में इस बीमारी का खतरा और ज़्यादा बढ़ता हुआ नज़र आ रहा है। न जाने और कितने लोगों को इसका षिकार बनना पड़ेगा। यहां के एक और स्थानीय निवासी मोहम्मद इस्हाक कहते हैं-‘‘मैं घर पर सबसे बड़ा हंू , पिता जी का देहांत हो चुका है। 2013 में दसवीं की परीक्षा मैंने इसी अपंगता की हालत में पास की थी। यहां हायर सेकेंडरी स्कूल नहीं है और इस विकलांगता की हालत में हायर सेकेंडरी स्कूल मंडी नहीं जा सकता। इसके अलावा घर की आर्थिक स्थिति भी मेरी पढ़ाई में एक बड़ा रोड़ा बनी हुई है। यहां से सड़क तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। अगर सड़क तक पहुंच भी जाता हंू तो गाडि़या न मिलने की वजह से सिवाय परेषानियों के कुछ नहीं मिलता। इसलिए मैंने तंग आकर अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दिया।’’ विकलांगता से त्रस्त लोगों का कहना है कि सरकार की ओर से अपंगों को दिए जाने वाले स्कूटर के लिए हमनें कई बार फाइल जमा करायी, लेकिन हमें आज तक सरकारी खज़ाने सके कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। इन्हीं लोगों में से एक अब्दुल बाकी कहते हैं कि-‘‘ अगर हममें से कोई बीमार हो जाता है तो मरीज़ को अस्पताल पहुंचाने के लिए मज़दूर को 4 सौ रूपये देते हैं। हमें सरकारी खज़ाने से हर महीने 4 सौ रूपये पेंषन के मिलते हैं और वह भी छह माह के बाद। पहले यह पैसे डांक में आया करते थे लेकिन अब बैंक में आने लगे हैं जिसकी वजह से हमें बैंक के चक्कर काटने पड़ते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि मेरे पास अगर इतनी सुविधा होती कि मैं बाज़ार तक जा सकता तो मैं भीक मांगकर अपना काम चला सकता था। लेकिन मैं खुद 90 प्रतिषत अपंग हंू। अगर सरकार की ओर से हमें एक व्हील चेयर मिल जाए तो काफी हद तक हमारा सहारा बन सकती है।’’ 
            
इस संबंध में जब लेखक अपने एक साथी के साथ विकलांगों की मदद के लिए तहसील सोषल वेलफेयर आॅफिस गया तो संबंधित विभाग के अधिकारी ने कहा कि-‘‘ विकलांग खुद यहां आए, उसे फार्म देंगे।’’ जब लेखक ने कहा कि वह विकलांग है और यहां तक आने के काबिल नहीं हैं। लिहाज़ा आप फारम मुझे दे दें तो उन्होंने जबाब दिया कि आप जि़ला सोषल वेलफेयर आॅफिस में जाओ और वहां से ले लो। उनकी बात को मानते हुए लेखक ने वहां से फार्म हासिल कर लिया। कुछ रोज़ के बाद फार्म हासिल करके जब जमा करवाना चाहा तो उसके साथ दस्तावेज़ मागे गए। यह बात बिल्कुल ठीक है कि हर फार्म के साथ ज़रूरी दस्तावेज़ लगते हैं लेकिन किसी अपंग व्यक्ति के लिए इन औपचारिकताओं को पूरा करना किसी मुसीबत से कम नहीं है।़ दस्तावेज़ों की कमी के चलते बहुत से लोग सरकार की इन कल्याणकारी योजनाओं से फायदा नहीं उठा पाते। ऐसे में विकलांग सरकार से अपील करते हैं कि दस्तावेज़ों की औपचारिकताओं को ज़्यादा से ज़्यादा आसान बनाया जाए ताकि ज़्यादा से ज़्यादा विकलांग लोगों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सके। 




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बशारत हुसैन शाह बुखारी
(चरखा फीचर्स)

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