विशेष आलेख : किशोर न्याय अधनियम में बदलाव की सार्थकता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 7 मई 2015

विशेष आलेख : किशोर न्याय अधनियम में बदलाव की सार्थकता

आखिरकार केंद्रीय मंत्रिमंडल ने किशोर न्याय अधिनियम में बदलाव की मंजूरी दे दी है जिसके तहत अब 16 से 18 वर्ष तक के बच्चों द्वारा किये गये “जघन्य अपराधों” के मामलों में उन पर वयस्क अपराधियों जैसा मुकदमा चलाया जाएगा। इसका मतलब है कि भारत “विधि विवादित बच्चों” (बीपसकतमद पद बवदसिपबज ूपजी संू) को लेकर अपने पहले के स्टैंड से बदल गया है, पहले कानून का मकसद उन्हें सुधरने और पुनर्वास का मौका देना था। अब मंत्रिमंडल ने तय किया है कि “जघन्य अपराधों” में संलिप्त सोलह साल की उम्र के किशोरों पर बालिगों के हिसाब से मुकदमा चलेगा उन्हें बालिगों के साथ रखा जाएगा। इसके लिए जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड यह तय करेगा कि किसी नाबालिग के अपराध को “जघन्य” माना जाए या नहीं। 
           
यह फैसला अचानक नहीं हुआ है, केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने अपना पदभार ग्रहण करते ही यह संकेत देना शुरू कर दिया था कि उनकी सरकार इस मसले को लेकर गंभीर है। हालांकि इस बदलाव के समर्थन में देश का एक बड़ा हिस्सा था लेकिन इसको लेकर समाज के एक धड़े, बाल अधिकार कार्यकर्ताओं और सुधारवादियों की आपत्तियां भी थीं। इससे पूर्व में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति ने भी 16 से 18 साल के बीच के नाबालिगों से वयस्क किशोरों के तौर पर पेश आने के सरकार के प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इससे कानून के साथ संघर्ष की स्थिति पैदा होगी, समिति ने सरकार से 16 साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिए अलग बर्ताव करने के प्रस्ताव की समीक्षा करने को कहा था और यह माना था कि 18 साल से कम उम्र के सभी नाबालिगों को सिर्फ बच्चे के तौर पर देखा जाना चाहिए। लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि “जघन्य अपराधों” के मामलों में किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा की जरूरत है। 
           
दरअसल 2012 में हुए निर्भया कांड के बाद पूरे देश में इस कानून में परिवर्तन के लिए एक माहौल बना, इस बर्बर अपराध में एक 17 वर्षीय किशोर भी शामिल था, जिसे किशोर सुधार गृह भेजा गया। जनमत बनाने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है, बदलाव के पक्ष में कई तर्क दिए गये जैसे, आजकल बच्चे बहुत जल्द बड़ेे हो रहे हैं, बलात्कार व हत्या जैसे गंभीर मामलों में किशोर होने की दलील देकर “अपराधी” आसानी से बच निकलते हैं, पेशेवर अपराधी किशोरों का इस्तेमाल जघन्य अपराधों के लिए करते हैं, उन्हें धन का प्रलोभन देकर बताया जाता है कि उन्हें काफी सजा कम होगी और जेल में भी नहीं रखा जाएगा आदि। अमरीका और इग्लैंड का मिसाल दिया जाता है जहां इस तह का कानून है कि अगर नाबालिक “क्रूर अपराधों” में शामिल पाए जाते हैं तो उन पर मुकदमा बालिगों की अदालत में चलेगा। इन्ही तर्कों के आधार पर यह मांग जोरदार ढंग से रखी गयी कि किशोर अपराधियों का वर्गीकरण किया जाए, किशोर की परिभाषा में उम्र को 16 वर्ष तक किया जाए ताकि नृशंस अपराधियों को फांसी जैसी सख्त सजा मिल सके। निर्भया कांड के बाद बलात्कार के मामलों में सख्त कानून बनाने के लिए गठित जस्टिस जे.एस. वर्मा कमेटी किशोर अपराध के मामलों में आयु-सीमा घटाने के पक्ष में नहीं थी। इसको लेकर दिवंगत जस्टिस वर्मा ने कहा था कि “हमारे सामाजिक ढांचे की वजह से इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता”। शायद जनाक्रोश को देखते हुए महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने इन मांगों आगे बढाया होगा लेकिन गुस्साई भीड़ के दबाव में कोई कानून बनाने और किसी को भीड़ के मुताबिक सजा दिए जाने का चलन खतरनाक साबित हो सकता है।
           
निश्चित रूप से निर्भया तथा इस तरह की दूसरी वीभत्स और रोंगटे खड़ी करने घटनाओं में किशोरों की संलिप्तता एक गंभीर मसला है, लेकिन इस मसले पर एक देश और समाज के रूप में हमारी कोई संलिप्तता नहीं है क्या ? इस तरह के अमानवीय घटनाओं में शामिल होने वाले बच्चे/किशोर कहीं बाहर से तो आते नहीं हैं, यह हमारा समाज ही है जो औरतों के खिलाफ हिंसा और क्रुरता को अंजाम देने वालों को पैदा कर रहा है, आज भी हमारे समाज में औरतें गैर-बराबरी और तंग-नज़री की शिकार हैं और यह सोच हावी है कि औरत संपत्ति और वंश-वृद्धि का मात्र एक जरिया है। इसलिए गंभीर अपराधों में शामिल किशोरों को कड़ी सजा देने से ही यह मसला हल नहीं होगा, बाल अपराध एक सामाजिक समस्या है, अतः इसके अधिकांश कारण भी समाज में ही विद्यमान हैं, एक राष्ट्र और समाज के तौर में हमें अपनी कमियों को भी देखना पड़ेगा और जरूरत के हिसाब से इसका इलाज भी करना पड़ेगा। 
           
किशोरावस्था में व्यक्तित्व के निर्माण तथा व्यवहार के निर्धारण में वातावरण का बहुत हाथ होता है। इसलिए एक प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में हम ने ऐसा कानून बनाया जो यह स्वीकार करता है कि किशोरों द्वारा किए गए अपराध के लिये किशोर बच्चे स्वयं नहीं बल्कि उसकी परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं। इसलिए कानून का मूल मकसद किशोर-अपराधियों को दंड नहीं सुधार का था। किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2000 तक पहुँचने में हमें लम्बा  लगा है। 1985 में संयुक्तराष्ट्र की आम सभा द्वारा किशोर न्याय के लिए मानक न्यूनतम नियम का अनुमोदन किया गया जिसे “बीजिंग रूल्स” भी कहते हैं। इसी के आधार पर भारत में 1986 में किशोर न्याय कानून बनाया गया, जिसमें 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों को किशोर माना गया।1989 में बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र का दूसरा अधिवेशन हुआ जिसमें लड़का-लड़की दोनों को 18 वर्ष में किशोर माना गया। भारत सरकार ने 1992 में इसे स्वीकार किया और सन् 2000 में 1986 के अधिनियम की जगह एक नया किशोर न्याय कानून बनाया गया। 2006 में इसमें संशोधन किया गया । इस तरह एक लम्बी प्रक्रिया के बाद  हम सुधार पर आधारित एक किशोर न्याय कानून बना पाए हैं । 
           
निश्चित रूप से किशोर न्याय अधिनियम के तहत बच्चों की उम्र 18 साल करने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं। इसके दुरुपयोग से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, जघन्य अपराधों में किशोरों के इस्तेमाल के मामले सामने आये हैं। वर्तमान कानून में कई खामियां भी हो सकती है, लेकिन इसका एकमात्र हल यह तो नहीं है कि इसमें बच्चों तथा किशोरों की सुरक्षा और देखभाल सुनिश्चित करने को लेकर जो व्यवस्थाएं है उनसे छेड़- छाड़ की जाए। इस बदलाव के पक्ष में सरकार यह दावा कर रही है कि सजा का आकलन एक ऐसे बोर्ड द्वारा किया जाएगा जिसमें मनोचिकित्सक और समाज विशेषज्ञ होंगे, और इसी आकलन के आधार पर तय किया जाएगा कि किशोरों पर बालिगों के हिसाब से मुकदमा चलेगा या नहीं , लेकिन हमारी व्यवस्था को देखते हुए यह आकलन आसान नहीं है एक ऐसे देश में जहां मात्र 2500 प्रशिक्षित मनोचिकित्सक हों वहां “विधि विवादित बच्चों” का मनोवैज्ञानिक आकलन महज एक कोरी कल्पना हो सकती है। उलटे इसके दुरूपयोग की संभावना ज्यादा है, आंकड़ेे बताते हैं कि 80: “विधि विवादित बच्चे” ऐसे गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं जिनके परिवारों की वार्षिक आय 50 हजार रुपये के आस-पास होती हैं। हमारे पुलिस का जो ट्रैक- रिकॉर्ड और कार्यशैली है उससे इस बात की पूरी संभावना है कि इस बदलाव के बाद इन गरीब परिवारों के बच्चे पुलिस व्यवस्था का सॉफ्ट टारगेट हो सकते हैं और इन पर  गलत व झूठे केस थोपे जा सकते हैं। ऐसे होने पर गरीब परिवार इस स्थिति में नहीं होंगें की वह इसका प्रतिरोध कर सकें । 
          
दरअसल हकीकत यह है कि हम किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में बुरी तरह असफल रहे हैं, किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अधिकतर प्रावधानों को लागू ही नहीं किया जा सका है। पुलिस, अभियोजन पक्ष, वकीलों और यहाँ तक कि जजों को भी इस कानून के प्रावधानों की पूरी जानकारी नहीं है। किशोरों के विरुद्ध दर्ज हो रहे लगभग तीन चैथाई मुकदमे फर्जी हैं, किशोरों को सरकारी संरक्षण में रखने के लिए कानून में बताई गई व्यवस्था की स्थिति दयनीय है और इसकी कई सारे प्रावधान जैसे सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य प्रावधान जमीन पर लागू होने के बजाये कागजों में ही है। देश में कुल 815 किशोर सुधार गृह ही हैं, जिनमें 35 हजार किशोरों को ही रखने की व्यवस्था है, लेकिन किशोर अपराधियों की संख्या 17 लाख के आसपास है। हमारे किशोर सुधार गृहों की हालत कितनी बदतर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां से निकलने वाले करीब 40 फीसदी किशोर अपराध की दुनिया से जुड़ जाते हैं। बाल सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था “आंगन” के 31 संप्रेक्षण गृहों के कुल 264 लड़कों से बात करने के बाद जो निष्कर्ष सामने आये हैं वह हमारी किशोर न्याय व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी हैं, कुल 72ः बच्चों ने बताया कि उन्हें किशोर न्याय बोर्ड के सामने प्रस्तुत करने से पहले पुलिस लॉक-अप में रखा गया था, इनमें से 38ः बच्चों का तो कहना था कि उन्हें पुलिस लॉक-अप में 7 से 10 दिनों तक रखा गया था, जो की पूरी तरह से कानून का उलंघन है। इसी तरह से  45ः बच्चों ने बताया कि पुलिस कस्टडी के दौरान उन्हें शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया गया , जिसमें चमड़े की बेल्ट और लोहे की छड़ी तक का इस्तेमाल किया गया। कुछ बच्चों ने यह भी बताया कि उन्हें उन अपराधों को स्वीकार करने के लिए बुरी तरह से पीटा गया जो उन्होंने किया ही नहीं था। किशोर न्याय व्यवस्था की कार्यशाली और संवेदनहीनता को रेखांकित करते 75ः बच्चों ने बताया कि पेशी के दौरान बोर्ड ने उनसे कोई सवाल नहीं पुछा और ना ही उनका पक्ष जानने का प्रयास किया। एक बच्चे ने बताया की पूरे पेशी के दौरान बोर्ड के सदस्यों द्वारा अपनी नजरों को ऊपर उठाकर हम पर एक नजर डालने की भी जहमत नहीं की गयी। वास्तव में असली मुद्दा तो पूरी न्यायिक संरचना से जुड़ा हुआ है, जिसे संवेदनशील बनाने की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य से केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इन तमाम पहलुओं को गौर करने और कुछ ठोस कदम उठाने की जगह आसान रास्ता चुनते हुए तथाकथित “जनभावनाओं” को तुष्टीकरण करने का काम किया है । एक प्रगतिशील मुल्क होने के नाते हम अपराध में संलिप्त अपने किशोरों को कड़ी सजा देकर उन्हें व्यस्क अपराधियों के साथ जेल में नहीं डाल सकते, यह उनके भविष्य को नष्ट करने जैसा होगा, अब अमरीका और इग्लैंड जैसे मुल्क भी यह मानने लगे है कि किशोर अपराध पर लगाम लगाने के लिए कड़ेे प्रावधानों की व्यवस्था अप्रभावी साबित हुई है, अमरीका में किशोर न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए चलाए जा रहे अभियान, “नेशनल कैम्पेन टू रिफार्म स्टेट जुवेनाइल सिस्टम” के अनुसार वहां बड़ों के जेलों में रहने वाले 80ः किशोर जेल से वापस करने के बाद और ज्यादा गंभीर अपराधों में संलिप्त हो जाते हैं। इसलिय हमें इससे सबक लेते हुए अपनी  निष्क्रिय और चरमराई किशोर सुधार व्यवस्था को बेहतर बनाना होगा, किशोर न्याय अधिनियम को  लागू करने के लिय जमीन तैयार पर ध्यान देना होगा , इसके दुरूपयोग के संभावनाओं को सीमित करते हुए  ऐसे मजबूत व्यवस्था का निर्माण करना होगा जहां “विधि विवादित बच्चों” को सजा नहीं बल्कि  सुधार और पुनर्वास का मौका मिल सके।  




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जावेद अनीस
(चरखा फीचर्स)

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