दो अमेरिकी एनजीओ का लाइसेंस निरस्त करने के मामले में भारत सरकार पर दबाव बनाने की अमेरिका की कोशिशों पर संघ ने जबरदस्त तीखी प्रतिक्रिया दर्शाई है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पैरवी करने वाले संघ और उपभोगवादी आधुनिक आर्थिक दर्शन के प्रणेता अमेरिका के बीच सच्ची वैचारिकता के लिहाज से देखें तो कैर बैर का संग है जो निभना नहीं चाहिए लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका के प्रति दासों की तरह की आसक्ति से यह उम्मीद नहीं लग रही थी कि दार्शनिक मतभेद के बावजूद संघ और अमेरिका के बीच किसी तीखे टकराव की नौबत आ सकती है। अलबत्ता संघ ने जो रुख प्रदर्शित किया है वह सही दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है और उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत के लिए बाजारवादी छाया से मुक्त जिन वैकल्पिक नीतियों को गढ़े जाने की जरूरत है उन पर मोदी सरकार को अंततोगत्वा काम करना पड़ेगा क्योंकि यह इतिहास की शक्तियों की बाध्यता है।
भारत सरकार ने तीन साल से रिटर्न न देने के कारण अमेरिका के दो एनजीओ ग्रीन पीस व फोर्ड फाउंडेशन के एफसीआरए लाइसेंस को निलंबित कर दिया है। अमेरिका उसके इस कदम से इतना बौखला गया कि उसने इस बात की भी परवाह नहीं की कि वह अन्य देश की संप्रभुता का सम्मान करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के तहत बंधा हुआ है। उसने जिस ढंग से भारत सरकार को धौंसियाने की कोशिश की है वह उसके अभिमान व तानाशाही की पराकाष्ठा है। संघ ने तत्काल ही इस पर तीखी प्रतिक्रिया जताई। उसने अपने मुख पत्र आर्गनाइजर में दि अनसिविल इंटरवेंशन शीर्षक से प्रकाशित लेख में अमेरिका द्वारा एनजीओ की आड़ में अंजाम दिए जा रहे साम्राज्यवादी हथकंडों को निर्ममता और साहस पूर्वक बेनकाब कर दिया है।
मोदी सरकार ने उक्त दो एनजीओ के खिलाफ जो कदम उठाया है वह अनायास नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समय-समय पर विदेशी एनजीओ द्वारा महाशक्तियों की स्वार्थपूर्ति के लिए आंदोलनकारी तरीकों से देश के संदर्भ में विनाशक एजेंडा लागू करने पर एतराज जताते रहे हैं। यहां तक कि उन्होंने उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के सम्मेलन में अपने संबोधन में न्याय पालिका से आग्रह किया कि वह इन एनजीओ द्वारा बनाई गई धारणाओं के आधार पर फैसले देने से बचें। उन्होंने इंगित किया कि इन फैसलों से देश का भारी नुकसान हो रहा है और मोदी की इस बात में कोई संदेह नहीं है।
यह दूसरी बात है कि खुद भाजपा ने भी इस मामले में एनजीओ का इस्तेमाल किया। अन्ना हजारे व्यक्तिगत रूप से भले हो सकते हैं लेकिन वे एनजीओ की आड़ में विदेशी शक्तियों द्वारा अंजाम दी जाने वाली धूर्तताओं से परिचित नहीं हैं इसीलिए उनके जनलोकपाल आंदोलन में जब एनजीओ ने अपनी ताकत झोंकी तो वे इसमें देश के लिए निहित खतरों को नहीं समझ पाए। दूसरी ओर भाजपा ने भी एनजीओ की देश को अस्थिर करने की तत्कालीन मुहिम को प्रबल करने में आग में घी डालने की भूमिका निभाई। भाजपा को उस समय मनमोहन सरकार को चित्त करके अपनी गोटी लाल करने की पड़ी थी। इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि जनसूचना अधिकार अधिनियम, मनरेगा, जनलोकपाल अधिनियम की मुहिम आदि से देश को फायदा हुआ या देश को चारागाह समझने वाली विदेशी शक्तियों को। भाजपा ने जनलोकपाल विधेयक के आंदोलन का समर्थन किया था लेकिन उसकी राज्य सरकारें और मोदी सरकार खुद भी इसके लिए इच्छुक नहीं है।
अरविंद केजरीवाल के बारे में भी शुरू में खबरें आई थीं कि उनके एनजीओ में शोध के नाम पर एक ऐसी छात्रा ने कई महीनों काम किया जिस पर संदेह है कि वह सीआईए के लिए काम करती थी। संघ ने अपने आलेख में इस बात का भी इशारा किया है और कहा है कि सिविल सोसायटी के नाम पर विदेश नीति के हस्तक्षेप का अशिष्ट तरीका मान्य नहीं किया जा सकता। अधिकार आधारित मुद्दे उठाने वाले एनजीओ के विदेशी वित्त पोषण के मामले में निगरानी के लिए बनाई गई व्यवस्थाओं से अमेरिका भारत में उनको छूट क्यों दिलाना चाहता है। अगर वे उसकी सरजमीं पर ऐसा ही काम कर रहे हों तो क्या वह इसे सहन कर लेगा। वास्तविकता यही है कि उक्त दोनों एनजीओ ने इसलिए रिटर्न नहीं दिया कि इसमें पता चल जाएगा कि उन्हें फंडिंग कौन कर रहा है और उनके द्वारा कथित वंचितों के अधिकारों के लिए किए जा रहे आंदोलन के पीछे किन विदेशी शक्तियों का निहित स्वार्थ है।
के पी सिंह
ओरई
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