सत्ता-परिवर्तन के तुरन्त बाद सत्तारूढ़ पार्टी से किसी भी तरह से जुड़े छोटे-बड़े नेता,कार्यकर्ता,हमदर्द आदि का यह सोचना स्वाभाविक है कि नई सरकार से उसे कुछ प्रसाद अवश्य मिलना चाहिए।वह यह भी सोचता है कि उसी की मेहनत अथवा सदिच्छाओं से सत्ता-परिवर्तन हुआ है,अतः बड़ा पद न सही उसके छोटे-मोटे काम तो होने ही चाहिए।सत्तापक्ष के लिए परेशानी यहीं से शुरू होती है।अपने विश्वास-भाजनों को पुरस्कृत/उपकृत करने की भारी मशक्कत में बहुत सावधानी,समझ और तार्किकता बरतने के बावजूद कुछ के काम नहीं हो पाते या फिर उन्हें बड़े पद नहीं मिल पाते।जिस को मिला वह खुश और जिसको नहीं मिला, वह नाख़ुश।मेरी समझ में अरुण शौरी की नाखुशी भी कुछ-कुछ इसी तरह की है।सत्ता प्राप्त करने के बाद सन्तुष्टों/असंतुष्टों और सत्ता-लोलुपों के बीच सामञ्जस्य बिठाना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है। हर सरकार के समक्ष यह चुनौती का विषय रहा है।
किसी भी पार्टी का कार्यकर्त्ता या नेता अगर मन की भड़ास निकालने के लिए बीच चौराहे पर घर के मैल को धोता है तो उसकी पार्टी के प्रति निष्ठाएँ संदेह के घेरे में आजाती हैं और यह काम प्रायः वही करता है जिसकी पार्टी के प्रति आस्थाएं/प्रतिबद्धताएँ कच्ची अथवा लचीली होती हैं और जो पार्टी से कुछ 'उपहार' पाने की आशा से पार्टी में आया हुआ होता है।हर पार्टी की मजबूरी यह रहती है कि उसे ऐसे सेवाभावी और समर्पित कार्यकर्ताओं के लिए जगह निकालनी पड़ती है जो समय-असमय या फिर दुर्दिनों में भी पार्टी के साथ एकनिष्ठ रहे हों।जिन्होंने वाजिब मुद्दों पर धरने दिए हों,डंडे खाये हों,सभा-सम्मेलनों में झाझमे बिछायी/समेटी हों या फिर जेल गए हों आदि।सत्ता में परिवर्तन ऐसे ही लोग लाते हैं और फिर बाद में ऐसे ही लोग 'पुरस्कृत' भी होते हैं।बिना सुदृढ़ राजनीतिक पृष्ठभूमि या सेवाभाव वाले ‘भद्रजन’ अपने मतलब के लिए जैसे अचानक अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, वैसे ही अचानक भुला भी दिए जाते हैं.
लाख टक्के का सवाल यह है कि अगर शौरीजी को मंत्री अथवा किसी अन्य गरिमाशाली पद से नवाज़ा गया होता,तब भी क्या वे ऐसे ही सरकार की नीतियों पर सवाल खड़ा कर देते?
शिबन कृष्ण रैणा
अलवर
संपर्क : 9414216124

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