खुशियों का चाहे कोई भी अवसर हो। फिर वो विवाह हो, बच्चा हो या कोई अन्य ख़ुशी। दुआओं की गुजारिश होती है। हालाँकि दुआ पाने के लिए रिश्तेदारों को बाअदब आमंत्रण भेजा जाता है। जिसके बाद वे ख़ुशी वाले घर में पधारते हैं। खूब जमकर खातिरदारी होती है। पर इन्हीं खुशियों में कुछ लोग ऐसे भी हैं , जिन्हें न बुलावा भेजा जाता है और न ही कोई ख़ास खातिरदारी होती है। बस वे अपने आप चले आते हैं। पर इनके आते ही लोगों का नज़रिया बदल जाता है। सोच सिमटकर छोटी हो जाती है। और जुबान पर बस यही आता है कि लो भई किन्नर आ गए। खुद अभिशाप का जीवन जी रहे किन्नरों को लेकर लोगों का मानना है कि इनकी दुआएं बहुत जल्दी क़ुबूल होती है। पर सवाल उठता है कि इनकी खुद की जिंदगी में क्या है दुआओं का स्थान ?
तारीख थी 15 अप्रैल। और देश वही जहाँ विविधता में एकता होने के ढ़ोल पीटे जाते हैं। हम साथ साथ हैं की तख्तियां तानी जाती हैं। क्यों समझ गए न ? अजी हम भारत की बात कर रहे हैं। जिसमें सेक्युलर सोच का स्टीकर चिपकाये हुए लोग रहते हैं। पर साहब असलियत क्या है ? ये अखबार रोज शब्दों की गजब शक्लों के साथ सुबह सुबह दरवाजा खट खटाते हैं। बहरहाल तारीख पर आते हैं। इस दिन सुप्रीम कोर्ट यानि देश के सर्वोच्च न्यायलय ने किन्नरों को पुरूष या महिला के बजाए एक तीसरे लिंग का दर्जा दिया। साथ ही कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया कि किन्नरों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा समुदाय माना जाए। और उन्हें नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए।
जिसके बाद किन्नर समुदाय में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। बस उन्हें यही लगा कि अब कुछ फीसदी तो वे भी न्याय प्राप्त कर सकेंगे। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से ये तो लगभग तय हो गया कि भारत के करीब तीस लाख किन्नरों को फायदा होगा। और उन्हें भी आम नागरिकों की तरह हर अधिकार प्राप्त होगा। पर अधिकार आज भी पोटलियों में ही दफ़न हैं। किसी मेज में धूल फांक रहे हैं।
आम बोलचाल की भाषा हिन्दी में किन्नरों को 'हिजड़ा' कहा जाता है। जो कि नजरिया बदल देने के लिए पर्याप्त है। हीं मानने के लिए प्रबल तरीका है। कमोवेश इस हिजड़े शब्द में प्राकृतिक रूप से उभयलिंगी, नपुंसक, प्रतिजातीय वेश से काम सुख पाने वाले और दूसरे लिंग की तरह कपड़े पहनने और रहन सहन रखने वाले लोग भी शामिल हैं। कमोबेश कई सारे सामाजिक कार्यकर्ता इनके अधिकारों के लिए काफी लंबे समय से प्रयासरत् हैं। जिसमें से दुबई में रहने वाले पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहसिन सईद भी एक हैं। जो कि कई सालों से किन्नरों, समलैंगिकों और उभयलिंगी लोगों को समाज में बराबरी के अधिकार दिलाए जाने के लिए काम कर रहे हैं। सईद भारत के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा किन्नरों के हित में लिए गए फैसले से काफी प्रभावित हैं। पर उनका मानना है कि इतने प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। फिलवक्त यदि हम स्थितियों पर गौर करें तो माननीय न्यायलय का आदेश सच में किन्नरों की स्थितियों में सुधार करने के लिए पर्याप्त दिखता है। पर जरूरी यह भी है कि सभी इस फैसले को कार्यान्वित करने के लिए कदम से कदम मिलाकर चलें।
चलिए इसी के साथ ही आपको किन्नर वर्ग के कुछ लोगों की स्थितियों से रूबरू कराते हैं। 27 वर्षीय वसीम दिन में एक मोबाइल रिपेयर की दुकान में काम करता है। और अंधेरा होते ही वह नया रूप धारण कर रावलपिंडी के कोठों में नाचता है। यहां उसकी पहचान महज एक किन्नर की है। वसीम के मुताबिक वह लोगों के दिन और रात के अलग अलग व्यवहार से खुद में ही उलझ जाता है। यही हाल कुछ 44 साल के अजमत का भी है। हालाँकि दोनों इस बात से सहमत दिखे कि किन्नरों को लोग इंसान तो समझते ही नहीं। पर आखिर क्यों ? आखिर वो भी तो किसी माँ के गर्भ से ही जन्में है। उन्हें जन्म देते समय भी तो उनकी माँ को उतनी ही पीड़ा हुई है, जितनी की समाज के बाकी लोगों को जन्म देते समय माओं को हुई होगी। तो क्यों लहू के एक रंग के साथ व्यवहार अलग है ? तो नजरिया बदलिये क्योंकि तभी बदलेगा भारत।
हिमांशु तिवारी 'आत्मीय'
ई0 डब्ल्यू0 एस0 132 बर्रा साउथ, कानपुर
संपर्क : 08858250015

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