बांस शिल्प : बदल जाएगी कोसी की तकदीर ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 2 अगस्त 2015

बांस शिल्प : बदल जाएगी कोसी की तकदीर !


  • - कोसी क्षेत्र में बांस से बने सामानों की अपार संभावनाएं हैं और यदि सरकार व प्रषासन इस दिषा में ध्यान दे तो न सिर्फ लोगों को अच्छी आमद होगी, बल्कि अंधाधुंध हो रहे वनों की कटाई व बांस से बने सुंदर डेकोरेटिव आइटम और फर्नीचर आने वाले दिनों लोगों की पहली प्राथमिकता होंगी

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कुमार गौरव, सहरसा: जरा सोचिए! यदि आपसे कोई यह कहे कि 100 रुपए खर्च कर आप 10,000 हजार रुपये की आमद कर सकते हैं तो कुछ पल के लिए आप हैरत में जरुर पड़ जाएंगे। लेकिन मैं कहता हूं ऐसा हो रहा है और लोग कला और लगन के बल पर पैसे कमा भी रहे हैं। कोसी महोत्सव में अपनी कला के बल पर लोगों के दिलों पर राज़ करने वाले ललन षर्मा का दावा है कि महज दो-तीन माह के प्रषिक्षण बाद आम आदमी भी 100 रुपया खर्च कर 10,000 रुपये तक की कमाई कर सकता है। तो है न अचरज कर देने वाली बात। बांस षिल्प में महारत हासिल ललन षर्मा पिछले ढ़ाई दषक से दिल्ली, पूणे, गोआ, पंजाब, हरियाणा समेत देष के कोने-कोने में जाकर बांस से बने डेकोरेटिव आइटम व फर्नीचर बना कर अपनी कला का परिचय दे चुके हैं व पर्यावरण के प्रति भी लोगों को आगाह कर रहे हैं। कोसी क्षेत्र में बांस से बने सामानों की अपार संभावनाएं हैं और यदि सरकार व प्रषासन इस दिषा में ध्यान दे तो न सिर्फ लोगों को अच्छी आमद होगी, बल्कि अंधाधुंध हो रहे वनों की कटाई व बांस से बने सुंदर डेकोरेटिव आइटम और फर्नीचर आने वाले दिनों लोगों की पहली प्राथमिकता होंगी। उक्त बातें ललन षर्मा ने बातचीत के दौरान कही। 

संगम कला निकेतन, समस्तीपुर के प्रधान ललन षर्मा कहते हैं कि कोसी अंचल में प्रतिवर्श होने वाले कोसी महोत्सव में उनके स्टाॅल से 20 रुपए से लेकर 2000 हजार रुपए तक के आइटम प्रतिवर्ष बेचे जाते हैं। बता दें कि बांस पर नक्काषी के लिए किसी खास उपकरण की भी आवष्यकता नहीं होती है, लिहाजा प्रषिक्षण लेने के बाद कम खर्च में ही कमाई षुरु हो जाती है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि सही तरीके से इस कला का प्रचार प्रसार किया जाए तो बेषक आम आदमी भी महज एक बांस खरीद मसलन 100 रुपया खर्च कर 10,000 हजार रुपये तक की आमद कर सकता है। बतौर कारीगर काम कर रहे सुनील कुमार का कहना है कि पिछले एक साल से वो इस कला को निखारने की भरसक कोषिष कर रहा है और प्रतिमाह आसानी से 7,000 हजार रुपये की कमाई कर अपना परिवार चला रहा है। बताते चलें कि ललन षर्मा की षागिर्दी में तकरीबन 300 कलाकार अपनी प्रतिभा का परिचय दे रहे हैं जिनमें से 95 महिला कारीगर भी षामिल हैं। षर्मा कहते हैं कि हमारे कलाकार द्वारा बनाये गये बांस के सभी डेकोरेटिव आइटम व फर्नीचर (सोफा, कुर्सी, टेबल, डायनिंग टेबल) काफी मजबूत होते हैं, और 30 साल की गारंटी भी देते हैं। बावजूद इसके अभी तक इसे व्यवसायिक रुप नहीं दिया जा रहा हैै। सरकार द्वारा कोई मदद नहीं दी जा रही है जिसके कारण ऐसे कलाकार स्टाॅल लगाकर ही अपनी कमाई कर रहे हैं। श्री षर्मा कहते हैं कि सूबे के विभिन्न इलाकों में लोग अब तक बांस षिल्प की महत्ता के बारे कुछ खास जानकारी नहीं रखते हैं और जागरुकता के अभाव व सरकारी उदासीनता के कारण ही इस बांस षिल्प को बढ़ावा नहीं दिया जा सका है। 

किसानों का हो रहा है मोहभंग: सरकारी उदासीनता का आलम यही है कि आर्थिक सुरक्षा की गारंटी नहीं रहने के कारण ही अब इलाके के किसानों का बांस की खेती से मोहभंग होना षुरु हो गया और बांस की खेती से किसान विमुख होने लगेे हैं। यही नहीं सरकारी उदासीनता की वजह से बैजनाथपुर पेपर मिल बंद हो गई। इलाके में आज भी कागज उद्योग की प्रचुर संभावनाएं हैं। इस उद्योग के लिए अभी भी वुड पल्प से बेहतर कच्चा माल बांस के पल्प को ही माना जाता है। देष की नामी गिरामी पेपर इंडस्टीज भी कच्चे माल के तौर पर बांस का ही इस्तेमाल करती है। इतना ही नहीं कागज उद्योग के जानकारों का मानना है कि बांस के पल्प से बने कागज न सिर्फ रिसाइकल किए जा सकते हैं बल्कि इसका पर्यावरण पर भी कोई दुश्प्रभाव नहीं पड़ता है। कागज की जो लुगदी तैयार होती है उसके लिए बांस से बेहतर कच्चा माल और कोई नहीं हो सकता। 

लक्ष्य से भटका बांस मिषन: भले ही कोसी प्रमंडल का चयन बिहार राज्य बांस मिषन वन क्षेत्र एवं गैर वन क्षेत्र के तहत किया गया हो, लेकिन हकीकत यह है कि जिले में बांस उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए किये जा रहे प्रषासनिक कवायद नाकाफी हैं। इसी का नतीजा है कि तमाम प्रषासनिक प्रयासों के बावजूद लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकी। राश्ट्रीय बांस मिषन कार्यक्रम देषभर में कृशकों के आर्थिक उन्नयन का कारण बन रहा है। लेकिन सबसे अधिक संभावना वाले कोसी क्षेत्र में यह योजना धरातल पर नहीं उतर पा रही है। जबकि कृशि व जल विषेशज्ञों का कहना है कि बाढ़ की विभीशिका रोकने में बांस सबसे उपयोगी साबित हो सकता है। जानकारों का कहना है कि बाढ़ प्रभावित इलाके में बांस के पौधे लगाने से वहां कटाव की संभावना काफी कम हो जाती है। इसलिए तटबंध के अंदर इसका बड़ा फायदा भी मिल रहा है। हालांकि कृशि विषेशज्ञों की राय पर पूर्व प्रमंडलीय आयुक्त जेआरके राव ने जहां बांस मिषन का व्यापक प्रचार प्रसार कर किसानों को लाभान्वित करने पर बल दिया था वहीं काडा के माध्यम से तीनों जिले में विषेश अभियान चलाया गया था। इससे पूर्व के प्रमंडलीय आयुक्त हेमचंद्र सिरोही ने काडा के माध्यम से बांस के विभिन्न उत्पाद तैयार करने के लिए लोगों को प्रषिक्षित किया और उत्पाद की बिक्री की व्यवस्था भी कराई। कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीक ठाक रहा लेकिन दूरगामी प्रभाव निश्क्रिय ही साबित हुए। बता दें कि इस मिषन के तहत वर्श 2011-12 में मात्र 161 किसानों को इसका लाभ मिल पाया। वर्श 2012-13 में 11 माह से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद 80 हेक्टेयर के विरुद्ध मात्र करीब 40 हेक्टेयर में ही बांस उत्पादन के लिए किसानों को बांस का पौधा उपलब्ध कराया गया जबकि दर्जनों किसान इसके लिए विभाग का अब भी चक्कर काट रहे हैं। यही हाल पुराने बांसों के जीर्णोधार का भी रहा कुल 191 हेक्टेयर जमीन पर पुराने बांसों का जीर्णोधार होना था, जबकि महज 140.50 हेक्टेयर जमीन पर लगे बांसों का ही जीर्णोधार किया गया। हालांकि तमाम प्रषासनिक आला अधिकारी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि कार्य को सही तरीके से अमलीजामा नहीं पहनाया गया है। जिला उद्यान पदाधिकारी उपेंद्र कुमार कहते हैं कि स्थानीय स्तर पर बांस की कोई नर्सरी नहीं है। इस योजना के लिए वन विभाग को पौधा उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी सौंपी गई है। उन्होंने बताया कि क्षेत्र में बांस उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए केन एंड बैंबू टेक्नालाॅजी सेंटर (गुवाहाटी) से आये वैज्ञानिकों के दल ने क्षेत्र के तकरीबन 100 से भी अधिक किसानों को प्रषिक्षण दिया था। उधर, वैज्ञानिकों का भी कहना है कि कोसी क्षेत्र बांस उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त क्षेत्र है। बावजूद इसके इस दिषा में सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। 

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