उत्तर प्रदेश : आखिर काशी में प्रशासन ने साधु- संतों पर क्यों बरसाई लाठियां? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 30 सितंबर 2015

उत्तर प्रदेश : आखिर काशी में प्रशासन ने साधु- संतों पर क्यों बरसाई लाठियां?

जी हां, पुलिसिया लाठी से घायल लोगों की कराह 48 घंटे बाद भी मंद नहीं पड़ी थी। दर्द निवारक दवाएं भी शायद असरदार नहीं थीं। अरे वह तो विसर्जन की ही मांग तो कर रहे थे। उनकी मांग को भी कहीं से गलत नहीं इसलिए कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा वह सालों से करते आ रहे है। एक झटके में उनकी आस्था को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। काशी में बहता जल गंगाजल है, कुंडों और अन्य सहायक नदियों में इतना प्रदूषण है कि उनमें मूर्ति विसर्जित नहीं की जा सकती। पतित पावनी गंगा में हजारों लीटर सीवर व कारखानों का पानी प्रति दिन गिर रहा है। प्रशासन उसे नहीं रोक रहा है। फिर, मिट्टी की मूर्तियों से किस बात का प्रदूषण। वह तो पानी में गल जाती हैं, जैसे सवालों पर भी प्रशासन को मनन करना चाहिए था। चार-छह दिन पहले से सभी पक्षों को बैठाकर उनका ब्रेनवास प्रशासन कर सकती थी। समझा-बुझाकर उन्हें पटरी पर लाया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया 

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काशी की रग-रग में रची-बसी है आस्था। इसकी गवाही हम नहीं बल्कि हर रोज मंदिरों में बजते घंटे-घडि़यालों की गूंज के बीच लाखों आस्थावानों का दर्शन-पूजन। तीज-त्योहारों पर आयोजनों की धूम। मौत पर भी उत्सव यात्रा। कभी ना बुझने वाली मणकर्णिका घाट की आगी। स्वर्णिम किरणों में नहाएं घाटों पर अविरल मंत्रोंचार। कल-कल बहती पतित पावनि मां गंगा। मस्जिदों में अजान का संकेत, काशी की यह रोजमर्रा की लीलाएं खुद-ब-खुद कहती है कि यह शहर नहीं एक संस्कृति है-तैतीस करोड़ देवी-देवताओं की स्थली है। काशी की यहीं वो अंदाज है जो भारत ही नहीं सात समुंदर पार के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित तो करती ही है बल्कि काशी को अन्य धार्मिक स्थलों से अलग पहचान भी दिलाती है। लेकिन गणेश प्रतिमा विसर्जन में उपजे विवाद के बीच जिस तरह निरीह साधु-संतों व नन्हें-मुन्ने बटूकों पर बर्बरतापूर्ण लाठीचार्ज किया गया उससे सबकुछ तहस-नहस हो गया है। शहर का अल्हड़पन गायब हो चला है। फिजा में सिर्फ और सिर्फ आग की ज्वाला दहक रही है। गणपति विसर्जन पर हुआ सरकारी हमले का विवाद अभी थमा नहीं, अब दुर्गापूजा पर संकट है। दुर्गापूजा समिति ने ऐलान कर दिया है कि वह पंडाल नहीं बनायेंगे, दुर्गापूजा नहीं मनाएंगे। यानी काशी में गंगा में प्रतिमा विसर्जन का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। कम होने के बजाय बिवाद गगहराता जा रहा है। हाईकोर्ट आदेशानुपालन के नाम पर आस्थावानों पर जिस अंदाज में लाठिया बरसायी गयी, उससे तो यही कहा जा सकता है कि काशी की आस्था को मिटाने की सोची-समझी कहीं साजिश तो नहीं? खासतौर से उस दौर में जब राज्य में गुंडागर्दी चरम पर हो। दंगे की चिंगरी में अपनी राजनीतिक रोटी सेका जाता हो और काशीवासी कभी उसे अपनाया ना हो। 

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मतलब साफ है काशी में जो कुछ हुआ उसके लिए पूरी तरह प्रशासनिक अमला के साथ-साथ सरकार जिम्मेदार है। क्योंकि मूर्ति विसजर्न को लेकर धरना-प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके स ेचल रहा था। मगर पुलिस ने गिरफ्तारी करने के बजाए सीधे लाठीचार्ज कर दिया। जबकि लाठीचार्ज तब होता है जब भीड़ हिंसक हो जाए। पुलिस के पास और भी विकल्प थे। वॉटर कैनन या आंसूगैस का प्रयोग किया जा सकता था। पुलिस ऐसा करती भी रही है। मगर निरपराध लोगों पर पुलिस ने लाठी बरसायी। लोगों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। महिलाओं, बच्चे, बुर्जुगो, साधु-संतों, बटूकों को इस कदर पीटा जैसे किसी आतंकी से कुछ कबूलवाना चाहते है। जबकि सच तो यह है कि सरकार अदालत के आदेश के बावजूद विसर्जन के लिए वैकल्पिक इंतजाम करने में असफल रही जिसकी वजह से इतना बवाल हुआ। अदालत ने प्रमुख सचिव नगर विकास व वाराणसी के जिलाधिकारी व एसएसपी को इस पर नोटिस जारी की है और कहा है कि प्रथम दृष्टया यह मामला अवमानना का लगता है। याचिका में कहा गया है कि ‘इन री-गंगा पाल्यूशन’ याचिका में अदालत ने गत 26 सितंबर 2014 को आदेश दिया था कि वैकल्पिक इंतजाम किए जाने तक गंगा में प्रतिमाओं का विसर्जन न रोका जाए। इस पर शासन और प्रशासन ने एक साल तक की मोहलत मांगी थी। कोर्ट ने मोहलत देने के साथ हा कानून व्यवस्था पर नियंत्रण रखने का आदेश दिया था लेकिन, साल भर बीत जाने के बाद भी कोई वैकल्पिक इंतजाम नहीं किए गए। न ही कोई हलफनामा दाखिल किया गया। और जब गणेश मूर्ति का विसर्जन की घड़ी आई तो रोक दिया गया लोग सड़क पर आ गए थे। प्रशासन की यह हरकत बया कर रही है कि आदेशों का अनदेखी की गयी। यह अवमानना का मामला तो बनता ही है। 

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बेशक, गंगा मोक्षदायिनी व पापनाशिनी हैं। हिमालय से निकलकर अपनी प्रबल प्रवाह के साथ गंगा महासागर तक बहती हैं। गंगा नदी नहीं हमारी सभ्यता और संस्कृति को जन्म देकर उसे पोषित करने वाली मां हैं। सुरसरि की दशा सुधरती नहीं दिख रही है। आज नदियों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत सरकारों द्वारा भौतिक विकास के नाम पर नदियों को बांध कर उनकी लहरों का जीवन समाप्त करने का षडयंत्र रचा जा रहा है। यह भविष्य में होने वाले भयानक जल संकट का संकेत है। भौतिक युग की चकाचैंध में हम प्रकृति द्वारा मिलने वाली अमूल्य संपदाओं का संरक्षण करना भूलते जा रहे हैं। यही वजह है कि मानव समेत संपूर्ण जीव-जंतुओं के लिए भयावह भविष्य की तस्वीर तैयार हो रही है। अगर उच्च न्यायालय गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए कुछ कर रहा है, तो वह स्वागतयोग्य है। इसकी हर किसी को सराहना करनी ही चाहिए। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि प्रशासन उच्च न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या कर रहा है। उसे गंगा के पास अस्थायी कुंड की व्यवस्था के लिए भी कहा गया था। नीयत ठीक होती तो इस दिशा में भी समय से प्रयास किए गए होते। प्रतिमा पंडाल से बाहर आ गई तो परंपराओं को भंग करने का दबाव बनाया गया। न्यायालय आदेश के अनुपालन में जिस तरह पुलिसिया तांडव किया गया उसे भी कहीं से न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। स्वतंत्र भारत के इतिहास में काशी में जिस तरह साधु-संतों व बटुकों पर बर्बरतापूर्ण पुलिसिया लाठी बरसाई गयी, वैसा कभी नहीं हुआ। इस जघन्य अपराध की जितना भी निंदा की जाय, वह कम ही है। 

जिस तरह छोटे बच्चों पर पुलिस ने लाठियां चटकाईं वह निश्चित तौर पर अंग्रेजी हुकूमत की याद दिला रहा था। अपने मठाधीश से लिपटे उन बटुकों को जिस तरह से घसीटकर मारा गया वह झकझोर देने वाला था। ऐसी क्या स्थिति बन गई कि पुलिस को आधीरात को लाठीचार्ज करना पड़ा। प्रशासन का यह घिनौना कृत्य कहीं दंगे की साजिश तो नहीं? जिला प्रशासन को कठघरे में खड़ा करती ये ऐसे सवाल है जिसकी निष्पक्ष उच्चस्तरीय जांच तो होनी ही चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर यह सब हुआ ही क्यों? जब विसर्जन के लिए अलग तालाब बनाने की व्यवस्था की बात हुई थी तो वह समय रहते ही क्यों नहीं बना। शहर के बाशिंदे प्रशासन के इस तर्क को झुठला रहे थे कि अगर तालाब बन चुका था तो प्रशासन ने उस तालाब का श्रीगणोश रुकी हुई श्रीगणोश की प्रतिमा के विसर्जन से क्यों नहीं किया। उसके लिए लक्ष्मीकुंड क्यों तलाशा गया। जितनी संख्या में फोर्स लाठियों की बरसात कर रही थी, उसका एक हिस्सा भी इन बटुकों को अपने घेरे में सुरक्षित करने के बाद बड़ों पर कार्रवाई करता तो इस हृदयविदारक स्थिति से बचा जा सकता था। मतलब साफ है प्रशासन अगर सूझबूझ से काम लेता तो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से बचा जा सकता था। लेकिन जिस तरह काशीवासियों के साथ साधु संतों को बेरहमी से पीटा गया इसको देख कर लगता है कि कुछ अधिकारियों को प्रदेश सरकार की निगाह में अपने नंबर बढ़ाने की जल्दी रही है। अगर इसी असंवेदनशीलता के साथ प्रशासन काम करेगा तो यह काशी के अमन चैन के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। खासतौर से उस वक्त जब दुर्गापूजा सिर पर हो और गणेशोत्सव से वृहत्त दुर्गोत्सव व गली-गली में रामलीला के आयोजन होने को है। 

माना प्रशासन ने जो कुछ भी किया वह हाईकोर्ट आदेश के अनुपालन में था, लेकिन प्रतिमा विसर्जन का विवाद एक-दो दिन में नहीं उपजा था। हफतों-महीनों नहीं बल्कि सालों से यह विवाद बना हुआ है। पिछले साल भी कुछ इसी तरीके की समस्याएं आई थी। तो फिर सवाल यही है कि जब सब कुछ जानकारी में था तो उसे समय रहते क्यों नहीं सुलटा लिया गया। और अगर सुलझा था तो फिर उलझा कैसे? का जवाब प्रशासन को देना ही होगा। हो जो भी हालात तो यही बता रहे है प्रशासन ने बुर्जुग पुजारियों, पंडितों व आस्था से जुड़े युवकों पर लाठियां बरसाकर अपने मकसद में भले ही कामयाब हो गयी, लेकिन जो चिंगारी सुलगाई है वह इतने आसानी से बुझ जायेगी, इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता। इस मसले को दुर्गापूजा से पहले सलटाना ही होगा। वरना आने वाले दुर्गापूजा पर इसके गंभीर परिणाम होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हो जो भी लेकिन हालात बता रहे है कि जिला प्रशासन उच्च न्यायालय की सख्त हिदायत के बाद भी गणोश प्रतिमा के विसर्जन में स्वविवेक का प्रयोग करने में पूरी तरह विफल रही। गंगा में विसर्जन न हो, इसके लिए बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए प्रतिमा विसर्जन करने वालों को रोका गया। हफ्तेभर पहले ही उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में खास तौर पर काशी के जिला प्रशासन को स्वविवेक पर मूर्ति विसर्जन के फैसले का अधिकार दिया था। इसके बावजूद प्रशासन सिर्फ और सिर्फ अपनी जिद बनाएं रखने के लिए स्वविवेक का इस्तेमाल करने के बजाय सैकड़ों आस्थावानों पर लाठियां बरसाई। 

कहा जा रहा है प्रशासन की ओर से शांति बनाएं रखने की अपील के बजाय जबरन आनन-फानन विश्व सुंदरी घाट पर तालाब बनवाने और उसमें गंगा का पानी भरे जाने की दुहाई दी जा रही थी। जबकि आंदोलनरत आस्थावान प्रशासन की बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं थे। प्रशासन की रोक के विरोध में गणेश पूजा समिति, संत समाज, हिंदू युवा वाहिनी ने बनारस बंद का आह्वान किया था। तनावपूर्ण माहौल में बंदी सफल भी रहा। यहां जिक्र करना जरुरी है कि काशी मराठा गणेश उत्सव समिति सोमवार की शाम 6 बजे गंगा में गणेश प्रतिमा के विसर्जन के लिए दशाश्वमेध घाट जा रही थी। गंगा में मूर्ति विसर्जन को लेकर जिला प्रशासन ने गोदौलिया चैराहे के पास ही मूर्ति को रोक दिया। पुलिस के रोकते ही समिति से जुड़े सैकड़ों लोग और अन्य नारेबाजी करते हुए धरने पर बैठ गए। लोग कह रहे है प्रशासन को यहीं पर सूझबूझ से काम लेना चाहिए था। लेकिन पुलिस ने धोखे से लोगों को पीटा। कोर्ट के आदेश का पालन करवाने के लिए भक्तों के साथ तालिबानी तरीका अपनाया गया। मणिकर्णिका पर शवदाह करीब एक घंटे तक रोका जाना प्रशासन ने लाखो-करोड़ों आस्थावानों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया गया। 

साधु-संतों का कहना है कि सनातनधर्मियों के लिए गंगा, मां हैं। मां के प्रति हर मन में श्रद्धा का भाव है और उनके हित का ख्याल रखते हुए प्राकृतिक सामग्रियों से ही प्रतिमाओं को आकार देने की परंपरा भी है। इनके विसर्जन से यदि गंगा प्रदूषित होती हैं तो तालाब-कुंडों को भला कैसे अलग रखा जा सकता है। गंगा की अविरलता के लिए टिहरी के बंधन से उन्हें मुक्त करने की बजाय लोगों का ध्यान हटाने की साजिश की जा रही है। कोर्ट के फैसले का सम्मान है लेकिन इसकी आड़ में प्रशासन बरगलाने से बाज आए। प्रशासन को विसर्जन-निस्तारण का अंतर समझना होगा। गंगा में 350 एमएलडी सीवेज का निस्तारण किया जा रहा है। वहीं पवित्र प्रतिमाओं के गंगा में विसर्जन से रोका जा रहा है। वह भी तब जबकि मिट्टी पानी में घुल जाती है और पुआल-बांस, मल्लाह निकाल ले जाते हैं। इसमें रंग भी प्राकृतिक ही होते हैं फिर भला आपत्ति कहां और क्यों है। सनातनधर्मियों की भावना से जुड़े इस मामले में कोर्ट को वस्तु स्थिति बतानी चाहिए। देव आवाहन, पूजन और गंगा में विसर्जन की हमारी परंपरा रही है। सदियों से सनातन धर्मी यही करते भी आ रहे हैं। उद्देश्य यह की प्रकृति से जो लिया, उसमें ही मिल जाए। देव प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर प्रशासन द्वारा वितंडा खड़ा करना ठीक नहीं। उसे जनभावनाओं का ख्याल रखते हुए ही कोई निर्णय लेना चाहिए जिससे किसी की आस्था न आहत हो। पूजा समितियों से राय-मशविरा कर सहमति बनाने की बजाय एक तरफा निर्णय थोपने की कवायद हुई। इस मामले में कोलकाता को नजीर के तौर पर देखा जा सकता है। कोलकाता में गंगा घाटों पर दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर पिछले कुछ वषों से एहतियात बरता जा रहा है। 

खासकर कोलकाता नगर निगम व अन्य निकायों की ओर से। विभिन्न सामाजिक संगठनों की ओर से दुर्गा प्रतिमा बनाने वालों को लेड रहित रंग का इस्तेमाल करने के लिए जागरूक किया गया। ताकि प्रतिमा से रंग निकल कर गंगा के पानी में घुलने से प्रदूषण न हो। कलकत्ता हाइकोर्ट की ओर से गंगा में प्रतिमा विसर्जन को लेकर पर्यावरणविद् सुभाष दत्ता द्वारा दायर जनहित याचिका पर कुछ गाइड लाइन दी गई थी। जिसमें गंगा में प्रतिमा विसर्जन होने के साथ ही स्थानीय निकायों को प्रतिमा को बाहर करना होगा। कुछ पूजा आयोजक खुद से गंगा में प्रतिमा को डूबोने के बाद बाहर निकाल कर किनारे में रख देते हैं जहां से निगम के लोग उसे उठाकर ले जाते हैं। कुछ सामाजिक संगठन भी इस दिशा में कार्य करते हैं। कोलकाता में 16 गंगा घाटों पर दुर्गा व काली प्रतिमाओं का विसर्जन होता है। लेकिन दुख है कि धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं व परंपराओं को शासन-प्रशासन अपनी जागीर बनाने की कोशिश कर रहा है। गंगा किनारे धड़ल्ले से चल रही टेनरियों, छपाई कारखानों और रसायन फैक्टियों से आंख मूंदे पड़ा प्रशासन हर साल बस सनातन परम्परा पर हथौड़ा चला कर उसे तोड़ने की कोशिश करते दिखता है। मूर्तियों में प्रयोग होने वाली मिटटी और खपच्ची प्रदूषण रहित वस्तुएं हैं। ऐसी कई वस्तुओं को गंगा अपने प्रवाह में सिल्ट के रूप में बटोरते हुए चलती हैं। 






(सुरेश गांधी)

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