जैसे जैसे बिहार विधानसभा चुनाव की तपिश बढती जा रही है राजनीति का शिगूफा भी अपने रास्ते का निर्धारण करता जा रहा है. चुनावी तपिश में बिहार के धरातली मुद्दों की तलाश में जब आप शहर सड़क गाँव और बाज़ार का रूख करते हैं तो चुनाव कि स्थूलता को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है. ना गर्मी ना सरगर्मी, ना जोर और ना ही शोर सिवाय लोगों के दैनिक जीवन और समस्याओं के अम्बार के !!
लोकसभा चुनाव के समय शुरू हुआ विकास बदलाव अच्छे दिन और मोदी की पुरवैया पछिया हवा का हल्का झोंका भी बस डेढ़ साल के अन्दर ही महसूस नहीं हो रहा है. विकास का आकाश महागठबंधन के लिए भी खाली है. सवाल वाजिब है कि दो बड़े गठबंधन की लड़ाई में बिहार का मुद्दा बिहार का विकास और बिहार का अवाम किधर है !
दिल्ली के मीडिया के शोर शराबे ने जो भूमिका बनाई उस भूमिका की नीव पर मीडिया का बाज़ार पटना के खबरिया चैनल के साथ अखबारों में भी नजर आना शुरू हो चुका है. खबरिया चैनल की चीख पुकार बिहार चुनाव को एक त्रासदी की तरह का बोध करा देती है मगर इस शोर में आवाम कहाँ है.
गठबन्धनों के सीट और टिकट के बंटवारे ने सम्पूर्ण चुनाव में राजनीति और पत्रकारिता की भूमिका निर्धारित कर दी है जिसमें आवाम के लिए कोई जगह नहीं ! मुद्दे और जरूरतों के बीच अवाम की ख़ामोशी से भय खाए राजनीतिक दलों के लिए ये कैसी मजबूरी है जिसने बिहार के विकास के मुद्दे का एक बार फिर साथ छोड़ दिया है. अगड़े पिछड़े की राजनीति, टीवी लैपटॉप की राजनीति, आरक्षण की राजनीति और इन सबके बीच बिहार की मीडिया का पिछलग्गू पत्रकारिता एक बार फिर शायद ही बिहार के साथ इन्साफ कर सकेगा.......
---रजनीश के झा---
मिथिलांचल से
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