चीख, सीत्कार और दुःख दर्द में लिपटी नारी की दशा के लिए भला कौन जिम्मेदार है. अभी कुछ ही देर पहले ही इस बात पर चिंतन कर रहा था कि आज कल रेप का कारण क्या है ? पोशाक, मानसिकता, या फिर मानवीयता में कमी. लगभग सभी पहलुओं में झाँककर देखा. अब अगर पोशाक यानी की अगर वेस्टर्न कल्चर वाले कपड़ों का हवाला देकर रेप की बात करें तो पैंसठ साल की वृद्धा के साथ रेप की आयीं ख़बरें इस बात को सिरे से खारिज करती हैं क्योंकि वो तो बिकिनी पहनकर सड़कों या मॉल में टहलेगी नहीं.
वहीं दूसरी ओर पहनावे में अगर उँगलियाँ खड़ी करो तो मानसिकता पर पूरा का पूरा समाज उंगली करने लगता है. अब मानसिकता कैसे कुत्सित हो रही है इस पर यदि विचार करो तो लगता है टेलीविजन इसका कारण हैं. पर इस पर भी सवाल खत्म नहीं होता बल्कि और विस्तृत होता जाता है कि टीवी कैसे जिम्मेदार हैं जब मानसिकता ही गंदी है. लेकिन मैं कहीं न कहीं टीवी को रेप का कारण मानने और न मानने के बीच गफलत में फँसा हुआ हूँ. सीधी सी बात है कल की मुन्नी देवी जो फुल आस्तीन की पोशाक में डालियों के साथ पूरा गाना ख़तम कर देती थीं वो आज सीधा अंदर आओ राजा कुण्डी मत खड़काओ राजा टाइप के गानों में खुद को परोस देंगी तो क्या होगा.
अब आई मानवीयता की बात तो निश्चित ही इसमें कमी आई है. कल जरा सी जिन बातों में पूरा गाँव एकजुट होकर मुश्किल का सामना करने निकल पड़ता था आज वहां घरों में मातम पसरने पर भी कोई झाँक कर ये देखना मुनासिब नहीं समझता कि आखिर हुआ क्या है ? पर रेप का कारण कहीं न कहीं ये भी हो सकता है कि समाज अचानक से नारित्व के रूप में आये बदलाव को पचा नहीं पा रहा. कल की सुनयना आज पोशाक को बदलने के कारण सुन्नू हो गयी हैं. जिसके कारण लोगों की नज़रें कहें या मानसिकता कई सवालों के साथ तरह-तरह के आंकलन करने लगी है. फिर से सवाल नज़रों और मानसिकता पर आ टिका कि दोष किसका है. तो साहब आधुनिकता और सशक्तिकरण के जिस दावे के साथ महिलाओं को मजबूत दिखाने की कोशिशें की जाती हैं उनकी बुनियाद ही कमजोर है. स्त्री की बेहतर वेशभूषा हमेशा से साड़ी और तन को पूरी तरह से ढके हुए कपड़ों के साथ ही भारत में मानी जाती रही है. अब अचानक से शॉर्ट पैंट में नारीत्व को मार्केट में उतार दिया जायेगा तो सवाल उठना तो वाजिब है न. अब जो सवाल उठाएंगे उनके लिए कहा जायेगा कि पुरानी विचारधारा के हैं. एकदम सही बात है अनभिज्ञ चीजों से एकदम परिचित कराया जायेगा तो सिर चकरायेगा जरूर, इसमें नया क्या है. फिर जुबान से जुगाली करते हुए शब्द निकलेंगे कि देखिये कैसे कपड़े पहने हैं. कोई लाज शर्म ही नहीं है.
वहीं विदेशों का हवाला जिस तरह से दिया जाता है तो साहब वहां विकास की, शॉर्ट पोशाक की एमएफजी डेट भी तो देखिये. काफी पुरानी मिलेगी. जिसे वहां के लोग पचाकर कब का छोड़ आये हैं. इसीलिए अगर वे भारतीयों को अगर भारतीयता के पुराने स्वरूप के साथ देखते हैं तो पीठ पीछे कहने से नहीं चूकते कि 'ब्लडी इंडियंस'. क्यों मानते हैं या नहीं. तो फिर से शुरुवात करनी होगी. नए सिरे से संस्कारों की फेहरिस्त बनानी होगी. और आधुनिकता को कुछ ऐसे पेश करना होगा जैसे कि हमें सदियों से इसी तरह से जीने की आदत है. शायद तभी स्थितियां सुधर सकती हैं...
हिमांशु तिवारी 'आत्मीय'
संपर्क : 08858250015


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