विशेष आलेख : आरएसएस का राजनितिक हस्तक्षेप और लोकतान्त्रिक अनैतिकता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 23 सितंबर 2015

विशेष आलेख : आरएसएस का राजनितिक हस्तक्षेप और लोकतान्त्रिक अनैतिकता

भारत में लगभग सभी पार्टियों पर किसी न किसी का एकाधिकार रहा है चाहे बात बीजेपी की हो, कांग्रेस की हो या ‘आप’ की हो| कांग्रेस की बागडोर गाँधी परिवार, बीजेपी की बागडोर आरएसएस, ‘आप’ की बागडोर केजरीवाल के पास ही रहती है| आरएसएस (राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ) को सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था के रूप में जाना जाता है| देश में जब भी कोई आपदा आती है तो इसमें कोई दो मत नहीं है कि खुलकर निस्वार्थ भावना से सेवा देती रही है और आज भी दे रही है| भले ही आरएसएस का संबंध सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के रूप में, धार्मिक परिपेक्ष में हमेशा आता रहा हो लेकिन जब भी कोई विपत्ति आई हो तब मजहब से उठ कर काम किया है, इसे भी नाकारा नहीं जा सकता| जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड में बाढ़ आपदा के दौरान दी गई सेवा इसका ज्वलंत उदहारण है| ये सारी बाते काफी अच्छी है राष्ट्रहित के लिए, लेकिन आरएसएस का जब राजनितिक हस्तक्षेप दिखता है तो गैरराजनितिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शब्दों के साथ साथ लोकतान्त्रिक नैतिकता पर भी कई प्रश्न खड़े होने लगते है और उठने भी चाहिए, जिसमे बीजेपी एक माध्यम के तरह काम करता नजर आता है|

बीजेपी-आरएसएस संबंध
हालाँकि ये बात किसी से छुपी नहीं है कि बीजेपी पर आरएसएस का काफी हद तक प्रभाव रहा है और आज भी है| जहाँ तक मुझे लगता है कि अगर आरएसएस नहीं होती तो बीजेपी को अपना प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी चुनना खासा कठिन काम होता| ये बात भी किसी से नहीं छुपी है कि आरएसएस चुनाव के दौरान बीजेपी को हर संभव मदद करता है चाहे बात आर्थिक रूप से हो, या प्रचार प्रसार के सहारे हो| आखिर सब कुछ आरएसएस कर ही रही है तो खुद आरएसएस अपने नाम से चुनाव क्यों नहीं लडती? राजनीती में सबका हक है आए और चुनाव लड़ने के लिए अपनी प्रतिनिधित्व की दावेदारी करे, लेकिन पर्दे के पीछे क्यों? सामने आकर चुनाव लड़ने में क्या हर्ज है? प्रधानमंत्री के चुनाव से लेकर टिकट के बंटवारे तक जब हस्तक्षेप रहता है तब नाम लेकर चुनाव लड़ने में क्या दिक्कत है? पर्दे के पीछे बैठकर राजनितिक समीकरण बनाना और अपने सिधांतो को असैवधानिक समूह होते हुए भी सरकारी व्यवस्था के तहत दुसरो पर थोपना कहाँ तक उचित है जिसमे कई बार आरएसएस के नेता लोगो को पाकिस्तान भेजने की बातें भी कर चुके है| अगर सच में आरएसएस सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था है तो मेरे समझ से राजनीती से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए| अगर ऐसा करते है तो सवाल उठने लाजमी है|

अगर ईमानदारी से केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद की बातों की तरफ ध्यान दौडाएंगे तो पाएंगे कि जितने भी राज्यों में बीजेपी ने अपने मुख्यमंत्री पद का नाम चुनाव से पहले उजागर नहीं किया था या दुसरे शब्दों में कहे कि मोदी जी के चेहरे पर लड़ा था उन राज्यों के मुख्यमंत्री वही चुने गए है जिनका आरएसएस से अच्छा खासा संबंध रहा हो, चाहे बात महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फर्डनवीस की बात हो या हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की बात हो| बिहार में होने वाले चुनाव में अगर बीजेपी जीतती है तो इस श्रृंखला के आधार पर अनुमान लगाए जा सकते है कि बीजेपी की तरफ से बिहार के मुख्यमंत्री की दौड़ में किन नेताओ का नाम है| आरएसएस में दिए गए सेवा को निष्पक्षता से विश्लेषण करेंगे तो शायद मुख्यमंत्री के नाम तक भी पहुच सकते है| दुसरे शब्दों में कहे तो आरएसएस बीजेपी का सुप्रीम कोर्ट जैसा है जिसका फैसला ही अंतिम और मान्य होता है| मै ऐसा इसलिए कह रहा हु क्युकी आज भी बीजेपी के नेता सरकार बनने के बाद इस तीन दिनों तक चली मीटिंग को बीजेपी और आरएसएस का मिलन बाप-बेटे के मिलन के तौर पर देख रहे है|

लोकतांत्रिक नैतिकता पर सवाल
आरएसएस-बीजेपी के बीच जिस तरह का संबंध रहा है वो कई तरह लोकतांत्रिक नैतिकता पर आधारित प्रश्नों को जन्म देता है| सबसे पहली बात यह आती है कि आरएसएस कौन है? क्या इसको जनता ने चुना है? जनता ने वोट बीजेपी को दिया है या आरएसएस को? अगर बीजेपी को आरएसएस के प्रति जवाबदेही बनना ही था तो मैनिफेस्टो में ये बात डालनी चाहिए थी कि उनका निर्णायक दल और निरिक्षण दल आरएसएस ही होगा| लोकतंत्र में कोई भी सरकार जनता के प्रति जवाबदेही होती है ना किसी तरह के खास समूह के प्रति| जहाँ तक बात आती है एकाधिकार की, तो राजनितिक समूह जिसे जनता ने चुना हो, उसके बीच एकाधिकार का कुछ मतलब निकलता है लेकिन बाहरी समूह के हाथों किसी पार्टी का एकाधिकार कुछ ज्यादा ही अलोकतांत्रिक सा लगता है| जैसे फ़िलहाल कांग्रेस का एकाधिकार गाँधी परिवार के हाथों में है| लोकतांत्रिक नजरिए से इसे सही तो नहीं ठहराया जा सकता लेकिन एक बात कही जरूर जा सकती है कि जिनके हाथों में एकाधिकार है उनका संबध संसदीय प्रणाली से है, लेकिन बीजेपी का एकाधिकार जिनके हाथों में है उनका संसदीय प्रणाली से कोई संबंध नहीं है|

ऐसे में एक और प्रश्न और उठता है कि बीजेपी को जिताने में अगर आरएसएस की भूमिका रही है तो निर्णय लेने या निरिक्षण करने में क्या दिक्कत है? कामो का निरिक्षण करना भी तो सरकार को जवाबदेही बनाने के लिए एक हिस्सा ही है न? ऐसे प्रश्न निश्चित रूप के लोकतांत्रिक नैतिकता पर सवालिया निशान खड़े करने वाले होते है| इसका उत्तर यही हो सकता है कि अगर आरएसएस ने चुनाव के वक्त बीजेपी को जिताने में मदद की है तो उसका दूसरा मददगार साथी औद्योगिक घराना भी रहा है जिसने बीजेपी को जिताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी| तो क्या बीजेपी, आरएसएस के साथ-साथ औद्योगिक घरानों के लिए भी जवाबदेही होगी क्या? ऐसी गुलामी से बीजेपी वास्तव में स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकती| हर मोड़ पर आरएसएस की हुकारी जरूरी है जो की एक तरह से राष्ट्र के विकास के लिए चुनौती के रूप में सामने दिखाई दे रही है| हो सकता है कि आरएसएस ने चुनाव के दौरान जो कुछ भी मेहनत, स्वयं सेवक श्रमिक और धन निवेश किया था उसकी डिलीवरी अपने उद्देश्यों को पूरा करवाने के रूप में कर रही हो|   

बंधुआ राजनीती 
जिस तरह से केंद्र सरकार के मंत्री सामूहिक रूप से किसी अवैधानिक संस्था से मीटिंग करते है उसके प्रति जवाबदेही जैसी रवैया अपनाते है उससे एक बात साफ़ हो जाती है कि बीजेपी की राजनीती बंधुआ राजनीती की तरह है, जिसमे कुछ पत्रकारों का यह भी दावा है कि मंत्रियों ने अपने कामो का प्रेजेंटेशन तक दिया है| यह बात ठीक उसी तरह की है जैसे मानो पुरबिया क्षेत्र से पलायन किया हुआ मजदूर अपने मकान मालिक के किराए वाले दुकान से राशन खरीदने को बाध्य रहता है| ऐसी बात नहीं है कि बंधुआ राजनीती की समस्या सिर्फ बीजेपी के साथ ही है ये बात कांग्रेस के साथ भी है और आम आदमी पार्टी के साथ भी है| इसके अलावां जितनी भी क्षेत्रीय पार्टियाँ है सभी पार्टियों में किसी न किसी या तो व्यक्ति या फिर व्यक्ति समूह का एकाधिकार है चाहे बात लालू की पार्टी राजद की बात हो या दक्षिण भारत में जयललिता  की पार्टी AIDMK की बात हो| यही कारण है कि जब भी हम बातें करते है तब पार्टी से पहले उनके एकाधिकार वाले व्यक्ति नाम लेते है जैसे ‘लालू की पार्टी’| 

कांग्रेस का भी वही हाल है जो बुरी तरह से गाँधी परिवार की जंजीरों में जकड़ी हुई है, जहाँ पर तात्कालीन प्रधानमंत्री जी द्वारा लिए जाने वाले कदम (मनमोहन सिंह जी ने कहा था कि जिन सांसदों पर गंभीर केस दर्ज है वो चुनाव नहीं लड़ सकते) पर राहुल गाँधी, उनके प्रस्ताव को रद्दी कागज के माफिक फाड़ने में बिल्कुल देर नहीं करते| अगर कोई सांसद बीजेपी द्वारा किए जा रहे कामो की बड़ाई करता है तो उसे राष्ट्रिय कार्यकारिणी के साथ-साथ राष्ट्रिय प्रवक्ता के पद से अपना हाथ धोना पड़ जाता है| शशि थरूर इसके एक उदाहरण है जिन्हें स्वच्छ भारत अभियान पर सकारात्मक टिप्पणी दिए जाने पर उन मुश्किलों का सामना करना पड़ा था| एक प्रश्न यह भी उठना लाजमी है कि स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव के दौरान महात्मा गाँधी के पास भी तो प्रधानमंत्री चुनने का विशेषाधिकार कांग्रेस ने दिया था वो भी तो उन वक्त प्रत्यक्ष रूप से राजनीती में नहीं थे, वो कितना नैतिक था| अगर आरएसएस को यह विशेषाधिकार बीजेपी ने दे रखा है तो क्या गलत है| यही चीज आम आदमी पार्टी के साथ है अगर किसी ने अरविन्द केजरीवाल पर ऊँगली उठाया तो उसकी पार्टी में खैर नहीं है| हालाँकि लोकतांत्रिक नजरिए से तीनो पार्टियाँ नैतिक मापदंडो के अनुरूप नहीं है|

अंत में निष्कर्ष के रूप में मै यही कहना चाहूँगा कि अगर आरएसएस सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था है तो उसे राजनितिक बातों से दूर ही रहनी चाहिए| सामाजिक काम करे किसी ने मना नहीं किया लेकिन अपने विचारो को दुसरे पर थोपना और विचारो का विरोध करने पर पाकिस्तान का रास्ता दिखाना सही बात नहीं है| बीजेपी सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि उन्हें जनता ने अपने प्रति जवाबदेही होने के लिए वोट दिया है ना कि किसी ख़ास समूह के प्रति| बीजेपी अगर आरएसएस जैसी संस्थाओ के दबाव में आकर कुछ फैसले लेते है तो शायद हो सकता है कि वो राष्ट्र हित से परे हो क्युकी जनता ने आरएसएस को नहीं चुना है और अगर आरएसएस को वोट नहीं किया तो उसके किसी भी फैसले को क्यों स्वीकारे? इसलिए अगर बीजेपी स्वतंत्र फैसले नहीं लेती है तो आगे के चुनाव में उसके खामियाजा भुगतना पड़ सकता है|    




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गौरव सिंह
वेल्लोर
चेन्नई 

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