गुजरात से प्रारम्भ हुआ आरक्षंण के आंदोलन को भले ही हार्दिक पटेल की अनुभवहीनता कहा जाये लेकिन ध्यान करना होगा कि उसने एक विकल्प की मांग भी की है कि पटेल जाति के लोगों को या तो आरक्षंण दो अथवा पूर्णतः आरक्षंण का विशेषाधिकार समाप्त करो। विकल्प मे की गई इस मांग से ही हार्दिक पटेल, गैर-आरक्षित वर्ग का भी नायक बन गया। यद्यपि गुजरात मे पटेल जाति को किसी भी रूप मे पिछड़ा वर्ग का नही कहा जा सकता है। गुजरात मे पटेल जाति के मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक बहुतायत मे हुये हैं, पटेल जाति के लोग आर्थिक व सामाजिक रूप से सम्पन्न, स्थापित तथा राजनीतिक वर्चस्व वाले हैं। कोई भी इन्हे पिछड़ा नही कह सकता। फिर भी आरक्षंण की बहती गंगा मे हाथ धोना और जातिगत राजनीति के बैनर तले अपनी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनाने का कार्य हार्दिक पटेल ने तो कर ही लिया।
हार्दिक पटेल की मांग का दूसरा पहलू कम महात्वपूर्ण नही है, जिसमे आंरक्षण को समाप्त करने की मांग के साथ उसके औचित्य की चुनौती भी निहित है। देश की यह कैसी बिडम्बना है कि जो योग्य हैं लेकिन अनारक्षित हैं, अतः उन्हे अयोग्य मान लिया गया और इसके विपरीत निर्धारित मानकों पर जो अयोग्य हैं, लेकिन आरक्षित हैं, उन्हे योग्यता का प्रमाणपत्र दिया जा रहा हैं। देश के हजारों लाखों नवयुवक हार्दिक पटेल जैसी ही आरक्षंण की पीढ़ा से दुखी हो रहे हैं और यदि इस ज्वलन्त समस्या पर ध्यान नही दिया गया तो आरक्षंण के माध्यम से वोट-बैंक की राजनीति और उसके तुष्टिकरण की बारूदी सुरंग मे विस्फोट होने की आशंका से इन्कार नही किया जा सकता। गुजरात के पटैल आंदोलन पर कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री मनीष तिवारी ने भले ही प्रतिक्रिया स्वरूप वक्तव्य दिया हो, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होने भी मांग कर ली है कि यदि पटेल समुदाय को आरक्षंण दिया जाना आवश्यक है तो जाटों और ब्राम्हणों को भी आरक्ष्ंाण दो।
जो भी सत्ताधरी दल शासकीय नोकरी मे और पदोन्नति मे आरक्षंण की नीति को जातिगत आधार पर समाप्त करने का निर्णय लेगा, तो ऐसा भी नही है कि राजनीतिक स्तर पर उसे नुकसान ही नुकसान उठाना पड़े। देश मे गैर-आरक्षित वर्ग की आधे से अधिक जनता है जो आरक्षंण की नीति से पीढि़त है और आरक्षंण को समाप्त करने की आवाज बुलन्द करने वाले प्लेट्फाॅर्म की तलाश मे है। यह कार्य हार्दिक पटैल ने, ’आरक्षंण दो या इसे बिलकुल समाप्त करो,’ की मांग के साथ प्रारम्भ किया है। हार्दिक पटैल को आरक्षंण की मांग का समर्थन पिछड़े वर्ग के आरक्षित लोगों से नही मिल रहा है, बल्कि वे तो उसकी मांग को गैर-वाजि़ब बता रहै हैं। लेकिन उसकी मांग को सामान्य-वर्ग की ओर से अप्रत्यक्ष समर्थन इस आधार पर अवश्य मिल रहा है कि उसने आरक्षंण समाप्त करने की मांग भी तो की है।
मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती, रामविलास पासवान, और देश के ऐसे हजारों राजनेता व ब्यूरोंक्रेट्स तथा आर्थिक व सामाजिक रूप से संम्पन्न व प्रतिष्ठित लोग क्रीमी लेयर के होते हुये भी आरक्षंण का भरपूर लाभ ले रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का दिशा निर्देश स्पष्ट है कि क्रीमी लेयर को आरक्षंण की सुविधा से दूर रखो, लेकिन उसका पालन नही हो रहा है। संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना की थी कि आजादी के बाद 10 वर्षों तक आरक्षंण की नीति रहेगी, परन्तु उसकी समय-सीमा लगातार राजनीतिक लाभ के उद्देश्य बढाई जाती रही है। आरक्षंण का मुख्य उद्देश्य ही यही था कि दलितों व पिछड़ों को सुविधा दे कर उनका उत्थान किया जावे, लेकिन समाज मे समरसता व समानता का कार्य गौड़ हो गया है और इसके विपरीत वर्ग-भेद को कट्टरता से स्थापित करने का कार्य हुआ है। जाति-भेद मे द्वेष एवं ईष्र्या के साथ-साथ जाति-गत वैमनस्यता का बिकराल स्वरूप प्रकट होने लगा है।
विषय बहुत गम्भीर है और जातिगत आधार पर झगड़े-फसाद होने की संभावना से भी इन्कार नही किया जा सकता, बल्कि सच तो यह है कि अनेकों प्रान्तों मे जातिगत झगड़े होने लगे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश मे तो वहां के क्षेत्रीय दल आम चुनाव के समय बेशर्मी के साथ जातिगत विभाजन करते हुये राजनीतिक रोटियां सेंकनक मे लगे रहते हैं। जातिगत कट्टरता के साथ जनता को चिन्हित करते हुये ’’फूट डालो और राज्य करो’’ की नीति पर सियासती चालें चल रहे हैं। यह तो साम्प्रदायिकता और मज़हबी भेदभाव से भी ज्यादा खतरनाक जहर है। जाति के आधार पर वोट बटोरने का कार्य बड़ी कट्टरता के साथ इस नीति पर चल रहा है कि, ‘‘जाति-लाभ की लूट है लूट सके तो लूट, अंत काल पछतायेंगे जब चुनाव जायेंगे छूट।’’
निश्चित ही दलित और पिछड़े वर्ग का उत्थान करने की जिम्मेदारी सरकार और समाज पर होती है, लेकिन चिन्तन तो यह करना है कि पिछड़ा कौन है ? पिछड़ेपन की कसोटी क्या है ? जातिगत आधार पर दलित और पिछड़े का निर्धारण यदि होता रहा तो वृहद हिन्दू समाज मे बिघटन होता जायेगा जो आने वाले समय मे गृहयुद्ध बन सकता है। बिडम्बना तो यह है कि आर्थिक रूप से पीडि़त होना, सामाजिक स्तर पर तिरस्कृत होना, अशिक्षित होना, आदि अयोग्यतायें पिछड़ेपन की परिभाषा मे समाहित नहीं हैं और ऐसी ही अयोग्यताओं से सामान्य जाति के भी जो लोग पीडि़त हैं, वे दुखी हो रहे हैं। आरक्षंण का आधार जब आर्थिक विपन्नता और सुविधाओं का अभाव माना जावेगा तभी हम आखिरी छोर के पीडि़त को लाभ दे पायेंगे। अन्यथा पीडि़त दुखी ही बना रहेगा और क्रीमी-लेयर वाले मलाई खाते रहेंगे।
लेखक- राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, छोटा बाजार दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738
मेल : rajendra.rt.tiwari@gmail.com
नोट:- लेखक एक वरिष्ठ अभिभाषक एवं राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक विषयों के समालोचक हैं।

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