विशेष आलेख : सम्मान वापसी का मुद्दा कुण्ठाग्रस्त भावना का प्रतीक - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 8 नवंबर 2015

विशेष आलेख : सम्मान वापसी का मुद्दा कुण्ठाग्रस्त भावना का प्रतीक

जैसे ही 26 मई 2014 को नरेन्द्र भाई मोदी ने प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली थी, उसके बाद से ही देश के कुछ तथा-कथित नकारात्मक सोच के आधुनिकतावादियों को मोदी की लोकप्रियता एवं केन्द्रीय सरकार की पारदर्शितापूर्ण कार्य-शैली पच नही पा रही है। इन्होने योजनाबद्ध तरीके से प्रधानमन्त्री मोदी के बिरोध की एक मुहिम चला रखी है। इनके पास कोई भी सारगर्भित मुद्दे नही हैं। बामपंथी और कांग्रसी विचारधारा से प्रेरित सहित्य जगत के लेखक, शायर, कवियों ने अपने-अपने सम्मान लौटाने का एक फैशन बना कर सुर्खियों और टी.वी. चेनलों पर बहस के माध्यम से चर्चित होने के रास्ते पहचान लिये है। वस्तुतः सम्मान बापिस करने पर इन्हे कोई नुकसान नही हो रहा है, हां देश के प्रधानमन्त्री की छबि का कुत्सित प्रयास अवश्य हो रहा है। सम्मान बापिसी मे फायदा ही फायदा है। 

पहले सम्मान मिलने से चर्चित हुये थे, अब सम्मान बापिसी के कारण सुर्खियों मे हैं। सच तो यह है कि ये देश-विदेश मे प्रधानमन्त्री मोदी की प्रशंसा और लोकप्रियता के कारण ये कुण्ठित हो रहै हैं। कांग्रेस के शासन-काल मे इन्हे सम्मान प्राप्ति की उपलब्धि हुई थी, तो फिर कांग्रेस के सत्ताच्युत होने के बाद उसके प्रति बफादारी भी तो प्रदर्शित करना है। राजतन्त्र मे ऐसा ही होता था, जैसे ही राजा, गद्दी से उतरा, तो उसके सिपहसलार भी राज-दरबार से रूख्सत हो कर अपनी अपनी वफादारी गद्दी-च्युत राजा के प्रति समर्पित भाव से प्रदर्शित करते थे। अन्तर सिर्फ इतना है कि प्रजातन्त्र मे प्रधानमन्त्री को ये गालियां देते हैं और राज-तन्त्र मे इसकी इजाजत नही थी। हां इतना जरूर समझ मे आ रहा है कि सम्मान लेते समय जो राशि इन्होने प्राप्त की थी, क्या उसे भी बापिस किया है ? सम्मान प्राप्ति के कारण जो सुविधायें उपभोग की हंै, क्या उनकी भारपाई भी कर रहै हैं ? सम्मान बापिसी की सिर्फ घोषणां और उसका प्रमाणपत्र दिखा कर सुखियों मे आने का सस्ता व सुलभ रास्ता है। इनकी असहिष्णुता और सम्मान बापिसी का मुद्दा तब कहां था जब देश के अन्दर कांग्रेस की सत्ता को बचाने के लिये सन् 1975 मे ऐमरजेन्सी थोपी गई थी और हजारों नेताओं को जेल मे ठूंस दिया था, श्री जय प्रकाश नारायंण पर लाठियां बरसाईं थीं। सन् 1985 मे सिक्खों का कत्लेआम हुआ था। तब इतने असंवेदनशील क्यों हो गये थे ?  

देश के समक्ष प्रश्न तो यह है कि सम्मान बापिसी के इनके मुद्दे क्या हैं ? एक तो उ.प्र. का दादरी काण्ड है, जहां मोहम्मद अखलक नामक व्यक्ति के घर पर हमला होने का आरोप इस आधार पर बताया गया है कि उसके घर मे गाय का गोश्त खाया जा रहा था। यद्यपि इस अपराध मे उ.प्र. पुलिस ने गिरफ्तारियां भी कर ली हैं। सम्मान बापिसी की दौड़ मे लगे ये साहित्यकार इस ओर सोच ही नही रहे हैं कि दादरी काण्ड उत्तर-प्रदेश का है, स्थानीय स्तर पर कानून और व्यवस्था को बनाये रखने की प्राथमिक जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन और राज्य-शासन की होती है। यद्यपि स्वंय मोदी और भाजपा के नेताओं ने दादरी काण्ड की कड़ी निंदा की है। सम्मान बापिसकर्ताओं को उत्तर-प्रदेश मे जातिगत राजनीति से उत्पन्न आतंक व अपराध बढ़ने के कारण और अपराधों के प्रेरकों पर चर्चा करने मे भय लगता है। 

इस दिशा मे उनकी संवेदनशीलता क्यांे प्रकट नही होती है ? इतनी भी हिम्मत नही कर सके कि उ.प्र. मे बढ़ रहे अपराधों पर चर्चा भी करते। सम्मान बापिसी के कारण की दूसरी घटना दिनांक 12 अक्टूबर 2015 को मुम्बई मे शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने सुधीन्द्र कुलकर्णी के मुुंह को काला करने की बताते हैं। इस घटना के पीछे का कारण पाकिस्तान के पूर्व विदेश मन्त्री खुर्शीद कसूरी की किताब का विमोचन होना शिवसेनिकों को गवंारा नही था। गौर करना होगा कि पाकिस्तान के मुद्दे पर, चाहे क्रिकेट मैच हो या गुलाम अली का गायन, शिवसेना का विरोध होता ही रहता है। इस घटना की घोर निंदा महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री देवेन्द्र फड़नवीस ने की थी। इस घटना मे भाजपा के कार्यकर्ताआंे की कोई भूमिका नही रही है। 

गत समय स्वंय को इतिहासकार होने का क्लेम करने वाले इरफान हबीब ने दो बाते अत्यन्त आपत्तिजनक कही हैं, प्रथमतः राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ व आई.एस.आई.एस. मे कोई खास अन्तर नही है। द्वितीयतः स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन मे आर.एस.एस. ने क्यों भाग नही लिया। इरफान हबीब साहब, आप अपना यह मत एक मात्र इसी कारण व्यक्त कर रहे हैं कि भारत मे लोकतन्त्र है और  राष्ट्रीय-स्वयं-सेवक-संघ जैसे शान्तिप्रिय व राष्ट्रवादी संगठन का वृहद रूप मे फैलाव है जिसकेे सायें मे प्रजातन्त्र सुरक्षित हैं। इरफान हबीब साहब, यदि हिम्मत है तो आई.एस.-आई.एस. वाले क्षेत्र मे जा कर इस आंतकवादी संगठन के खिलाफ कुछ बोल कर दिखाओ। इरफान हबीव मे यदि हिम्मत है तो आंतकवादियों के खिलाफ पाकिस्तान मे जा कर आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ  कहें। तब उन्हे पता चलेगा कि संघ और आई.एस.-आई.एस. मे क्या अन्तर है। 

सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की गुदगुदी मे रहते हुये भारत ही एक ऐसा स्थान है, जहां पूर्वाग्रह व राजनीति से प्रेरित हो कर साहित्य जगत के कथित सम्मानित बुद्विजीवी खुल कर प्रधानमन्त्री को गालियां देते हैं। इरफान हबीब साहब जैसे अनेकों कथित आधुनिकतावादियों को ज्ञात होना चाहिये कि संघ एक सामाजिक एवं राष्ट्रवादी चिन्तन का संगठन है। संघ का एक ही धर्म है, ‘‘राष्ट्रवाद’’ संघ की एक ही जाति है, ‘‘राष्ट्रीयता’’ संघ की एक ही सोच है कि जो ‘‘भारत माता’’ को अपनी मां, भारत की धरती को अपनी जन्म भूमि, कर्म भूमि व मातृ भूमि मानते हैं, वे राष्ट्रवादी विचारधारा के हैं और इसके विपरीत जो रहते तो भारत मे हैं, भारत का हवा पानी अन्न ग्रहण करते हैं और अन्दर ही अन्दर से राष्ट्र बिरोधी गति विधियों मे लिप्त है, उन्हे भारत के हितैशी नही माना जा सकता।
इरफान हबीब साहब जैसे इतिहास के अल्पज्ञानियों को यह ज्ञात नही है कि स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोेलन मे संघ की महात्वपूर्ण भूमिका थी। संघ के प्रथम सर-संघचालक डाॅ. हेडगेवार जन्म से ही देश-भक्त थे। विदेशी सत्ता का विरोध व चरित्र निर्माण के लिये उन्होंने नव-युवकों  में देश-भक्ति का बीजारोपण करने के उद्देश्य से संघ की स्थापना की थी । महात्मा गान्धी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के फलस्वरूप सन् 1921 में जब डाॅ. हैडगेवार जेल में थे तो उनके मन में स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से एक ऐसे देश-व्यापि अभेद्य संगठन की रचना का बिचार आया था, जो दुर्बलताओं से मुक्त हो। उस समय कांग्रेस, स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन का एक मंच था। डाॅ. हेडगेवार ने स्वराज आन्दोलन में भाग लिया था और उन्होने ने ब्रिटिश न्यायाधीश के समक्ष अपना जो कथन दिया था, उसकी प्रतिक्रिया में न्यायाधीश ने उन पर ‘ब्रिटिश शासन का राजद्रोही’ की टिप्पणीं की थी तथा सन् 1921 में एक वर्ष के कठोर कारावास के लिए जेल भेजा था। संघ की स्थापना के पांच वर्ष बाद सन् 1930 में डाॅ. हैडगेवार के साथ संघ के स्वयं सेवक भी सत्याग्रह में शामिल हुये थे और जेल गए थे। तत्समय संघ के प्रत्येक स्वयं सेवक को शपथ लेनी होती थी कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्वतन्त्रता  के लिये कार्य करेगा । जब कांगे्रस ने सन् 1930 के लाहौर अधिवेशन मे ‘पूर्ण-स्वराज’ की घोषणंा की थी तब डाॅ. हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं को निर्देश दिये थे कि सभी स्वयं सेवक कांगे्रस पार्टी को ‘पूर्ण-स्वराज’ के प्रस्ताव पर वधाई संदेश भेजें।


     

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राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, दतिया
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नोट:- लेखक एक वरिष्ठ अभिभाषक एवं राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक विषयों के समालोचक हैं।

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