समीक्षा : 'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' : जहाँ शब्द कभी बासी नहीं होते - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 31 जनवरी 2016

समीक्षा : 'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' : जहाँ शब्द कभी बासी नहीं होते

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कविता सड़ रहे समय के सबसे अधिक विरुद्ध रहती है। यह किसी भी कवि-समय के लिए सुखद होता है, जब उस कवि की कविताएँ बजबजा रहे समय के मुख़ालिफ़ सीना ताने खड़ी दिखाई देती हैं। अरविन्द श्रीवास्तव समकालीन हिंदी कविता के उन कवियों में हैं, जो पूरी रागात्मकता के साथ कविता को सक्रिय किए रहते हैं और अपने अप्रतिम शब्दवाण से अपने समय के दुखों को भगाते भी हैं। 'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' उनकी ऐसी कविताओं का संग्रह है, जिन कविताओं के शब्द कभी बासी नहीं होते। इसके पूर्व इनके 'क़ैद हैं स्वर सारे', 'एक और दुनिया के बारे में', और 'अफ़सोस के लिए कुछ शब्द' कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इन पूर्व प्रकाशित संग्रहों की कविताएँ भी उतनी ही अनन्य, उतनी ही ताज़ा, उतनी ही आन्तरिक हैं, जितनी 'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' पुस्तक की कविताएँ हैं :

पत्ते कभी पीले नहीं होते
नहीं छिपाना पड़ता
नारियल को अपनी सफ़ेदी
नाटक के सारे पात्र
पत्थरों में आत्मा का संचार करते
नदियाँ रोतीं नहीं
और समुद्र हुँकार नहीं भरते
शब्द बासी नहीं पड़ते
और संदेह के दायरे से प्रेम
हमेशा मुक्त होता ('एक डरी और सहमी दुनिया में'/पृ.9)।

अरविन्द श्रीवास्तव भाँय-भाँय सन्नाटे को तोड़ने वाले कवियों में हैं। इनकी क़लम विद्रोही कवियों वाली क़लम है। इनकी कविताएँ हमारे समय के मनुष्य-समाज को कोई 'नौहा' सौग़ात में नहीं देतीं, न नाराज़गी का कोई गीत बल्कि मनुष्य-समाज की वाणी को एक नया विद्रोही स्वर देती हैं। अरविन्द श्रीवास्तव किसी मनुष्य के हारने पर करुणा तो व्यक्त करते दिखाई देते हैं, परन्तु अवसाद गढ़ते दिखाई नहीं देते। इनकी करुणा व्यवस्था के भीतर जाकर अपना विद्रोह प्रकट करती है। इसलिए कि हमें हमेशा ऐसी व्यवस्था से साबका पड़ता है, जो एक विशाल मनुष्य-समाज को नज़रंदाज़ करती रही है और निरंकुश पूँजीवादी व्यवस्था हम पर थोपती-लादती चली आ रही है :
आदमी परखनली में जन्म ले रहा था
और प्लास्टिक भोजन का ज़ायकेदार हिस्सा थी
मज़बूत बैंक-लाकरों में फ्रीज़ कर दी गई थीं
कोमल भावनाएँ, संवेदनाएँ और मुलायमियत ('इस जंगल में'/पृ.10)

अभी आइसक्रीम को हाथ नहीं लगाया
गाँव से आए दही में मुँह नहीं डाला था
भीगा नहीं था मेघ में झमाझम
धूल-धुएँ से बचाए रखा सबकुछ
बग़ैर किसी चेतावनी के बंद हो गई नाक
कमाल था यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का ('बंद नाक'/पृ.16)

उसकी साँसें गिरवी पड़ी हैं मौत के घर
पलक झपकते किसी भी वक़्त
लपलपाते छुरे का वह बन सकता है शिकार ('शहर जंगल'/पृ.18)।

व्यवस्था के हुक्मरानों से शिकायत करते वक़्त अरविन्द श्रीवास्तव का लहजा थोड़ा-सा अलग तरीक़ाकार इख़्तियार कर लेता है। इस तरह इनका लहजा इनके काव्यशिल्प को एक नए मुकाम तक ले जाता है। जब इनकी 'लपट पश्चिम से उठी है पेट की/टोह में तस्कर सारे'('खींचता हूँ आख़िरी काश'/पृ.11) या 'चूँकि पहन रखे थे सबने हाथों में दस्ताने/सो संदेह की हल्की परत/हमेशा की तरह/स्पर्श के बीच क़ायम थी ('चर्चे की समाप्ति पर'/पृ.12) या 'पहले दबोचा/फिर नोचा कुछ इस तरह/कि/मज़ा आ गया('बाज़ार'/29) आदि कविता-पंक्तियों से गुज़रते हुए आप भी यही महसूस करेंगे। अरविन्द श्रीवास्तव समकालीन हिंदी कविता को कुछ इस तरह विस्तारते दिखाई देते हैं, जैसे बढ़ई चीज़ों को नया आकार देते हुए बड़े लगन और जतन से इस पूरे समय तक को ठोक-पीटकर दुरुस्त करता चलता है। यह कवि की उस आस्था को भी प्रकट करता है, जो एक सच्चे कवि की आस्था होनी चाहिए। इनकी 'एक नवजात की शवयात्रा में', 'साँकल', 'विचार', 'कवि की हत्या', 'घटनाएँ बग़ैर कौतूहल', 'राजधानी में', 'क़िस्से का एक मामूली आदमी', 'पुतली', 'पीठ' शीर्षक आदि कविताएँ जहाँ हमारे आसपास की समस्याओं से मुठभेड़ करती हैं, वहीं संग्रह की 'आधा सेर चाउर', 'बूँद', 'राजधानी में एक नाइज़ेरियाई लड़का', 'यूनेस्को की गाड़ी', 'अंटार्कटिका का एक हिमखंड', 'सुखद अंत के लिए' आदि कविताएँ कवि की रागात्मकता को अभूतपूर्व तरीक़े से प्रकट करती हैं।

अरविन्द श्रीवास्तव की कविताओं को हमारे समय के आलोचक-समालोचक नोटिस में लें, न लें, इनकी कविताएँ कवि के विकास को स्पष्ट दर्शाने में सफल दिखाई देती हैं। अरविन्द श्रीवास्तव का यह संग्रह 'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' इनका प्रस्थानबिंदु सिद्ध होता दिखाई देता है। इस संग्रह की कविताओं में जीवन के जिन स्वप्नों को देखा गया है, वह कवि द्वारा अपने लिए न होकर मनुष्य और मनुष्यता के बचाव में देखे गए सपने हैं। समकालीन कवि होने के नाते अरविन्द श्रीवास्तव को पूरे इस समय के प्रति अपनी गंभीर भूमिका के बारे में पता भी है और चिंता भी :

मैं किसी गल्प के लिए ताना-बाना बुनने
खड़ा नहीं था उस बस-स्टॉप पर
जहाँ अपनी तमाम सभ्यता-संस्कृति
अतीत और वर्तमान को
समेटे खड़ी थी खंडित गणराज्य की
मुकम्मल एक अदद लड़की...शायद स्त्री ('राजधानी में एक उज़बेक लड़की'/पृ.56)।



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'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' (कविता-संग्रह)/कवि : अरविन्द श्रीवास्तव/ प्रकाशक : यश पब्लिकेशन, 1/10753, गली नं. 3, कीर्ति मंदिर के पास, दिल्ली-110032/मोबाइल : 09899828223/मूल्य : 195₹/आवरण : तिमूर आख्मेदोव।



शहंशाह आलम
प्रकाशन शाखा
बिहार बिधान परिषद, पटना- 800015.
मोबाइल- 9835417537.

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