- वैदिक हिन्दू आतंकवाद डस रहा है?
सीआईएसएफ में सेवारत राजस्थान के पाली जिले के खिमाड़ा गांव की दलित वर्ग की नीतू नामक एक युवती हजारों सालों की दमित आकांक्षा को प्रकट करते हुए सरकार से गुहार करती है कि 15 जनवरी, 2016 को मेरा विवाह है, मेरा दूल्हा घोड़ी पर आयेगा, सुरक्षा इंतजाम किये जावें। राष्ट्रीय अजा आयोग ने सुरक्षा के निर्देश दिये। विवाह में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत शामिल थे। सरकारी सुरक्षा प्रबन्ध भी किये गये, लेकिन दूल्हे की हिम्मत नहीं हुई कि वह चाक-चोबन्द सुरक्षा के होते हुए घोड़ी पर सवार हो सके। दूल्हे को भय था विवाह के बाद के आसन्न संकट का।
इसी अवधि में हैदराबाद यूनिवर्सिटी में दलित स्टूडेंट रोहित वेमुला की खुदकुशी की घटना सामने आयी। दोनों घटनाओं के पीछे दलित वर्ग के युवकों के मनोमस्तिष्क में व्याप्त थी भय और आतंक! एक ने युवक अर्थात, नीतू के दूल्हे ने आसन्न संकट को पहले ही भांप लिया और घोड़ी पर चढने से इनकार कर दिया। घोड़ी पर चढ़ने की आकांक्षा छोड़कर खुद को तथा अपने परिवार को सम्भावित भय और आतंक के खतरे से बचा लिया। इसके विपरीत दलित स्टूडेंट रोहित वेमुला ने भय और आतंक के संत्रास और विभेद के विरुद्ध घुटने नहीं टेके और आवाज उठाने का साहस किया। जिसके चलते केन्द्र सरकार के एक मंत्री के लिखित पत्र के प्रभाव के चलते पांच स्टूडेंट को रोड पर रहने को विवश होना पड़ा और अन्तत: एक रोहित वेमुला को आत्महत्या करने विवश कर दिया गया। इन दो घटनाओं से अनेक सवाल खड़े होते हैं!
पहला सवाल, यदि नीतू के दूल्हे ने घोड़ी पर चढने का साहस किया होता तो उसका और उसके परिवार का क्या हाल हो सकता था, इस बात का अनुमान रोहित वेमुला के साहसिक प्रतिरोध के दुखद दुष्परिणाम से आसानी से लगाया जा सकता है।
दूसरा सवाल, वे कौनसे कारण हैं, जिनके चलते एक दलित दूल्हा चाक-चौबन्द सुरक्षा के बीच भी घोड़ी पर चढने का साहस नहीं कर पाता है और दूसरा युवक रोहित वेमुला अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता है तो मरने को मजबूर कर दिया जाता है। इस दूसरे सवाल का जवाब तलाशने के लिये हमें उस भय और आतंक के पीछे निहित कारणों को जानना और समझना होगा।
भारत में मनुवादी व्यवस्था के संचालक ब्राह्मणी वैदिक ग्रंथों को धर्म ग्रंथों का नाम देकर हजारों सालों से इस प्रकार की मनमानी व्यवस्था संचालित की जा रही है, जिसके तहत भारत की 90 फीसदी आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। वैदिक हिन्दू धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही सामाजिक और धार्मिक सम्मान के हकदार हैं। शेष बहुसंख्यक आबादी को शूद्र का दर्जा दिया गया है। विधर्मियों को म्लेच्छ कहा गया है। वैदिक हिन्दू धार्मिक व्यवस्था के अनुसार शूद्र और म्लेच्छ त्याज्य, अछूत, अपवित्र, अस्पृश्य और हीन नागरिक हैं। जिन्हें सामाजिक सम्मान, बराबरी और स्वाभिमान से जीने का कोई हक नहीं हैं।
इन सब मनमानी धार्मिक व्यवस्थाओं के समर्थन में वैदिक हिन्दू व्यवस्था के पोषक ब्राह्मणों द्वारा लिखित दर्जनों ऊलजुलूल वेद, उपनिषद, पुराण आदि कथित धार्मिक ग्रंथ धड़ल्ले से छापे, बेचे और सार्वजनिक रूप से महिमामंडित करके पढे जा रहे हैं। बावजूद इसके कि ये सभी ग्रंथ संविधान के भाग तीन में प्रदत्त मूल अधिकारों का सरेआम उल्लंघन करते हैं। इस कारण इनका प्रकाशन, विक्रय और पठन-पाठन संविधान के अनुच्छेद 13 (1) एवं 13 (3) (क) के तहत असंवैधानिक है। लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने इन्हें प्रतिबन्धित करने का साहस नहीं किया। उत्तर प्रदेश की दलित मुख्यमंत्री मायावती की सरकार ने भी इस दिशा में कभी कोई कदम नहीं उठाया।
तीसरा सवाल, इन कथित धार्मिक ग्रंथों में आखिर ऐसा क्या है कि इनका प्रकाशन, विक्रय और पठन-पाठन संविधान के अनुच्छेद 13 (1) एवं 13 (3) (क) के तहत असंवैधानिक है? इन ग्रंथों में भारत की 90 फीसदी वंचित आबादी को भयभीत करने, हीन बनाने और अमानव बनाने के समस्त प्रावधान धर्म के नाम पर मौजूद हैं। इन्हीं कथित धर्म ग्रंथों के चलते 90 फीसदी आबादी पल-प्रतिपल घुट-घुट कर और भयाक्रांत एवं आतंकित होकर जीने को विवश है। इन्हीं कथित धर्म ग्रंथों के कारण आये दिन दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों पर धार्मिक, जबकि अल्पसंख्यकों पर साम्प्रदायिक हमले होते रहते हैं।
इन कथित धर्म ग्रंथों के कारण हजारों सालों से भारत के बहुसंख्यक लोग मर-मर की जी रहे हैं। जी क्या रहे हैं, आतंकित जीवन जीने को विवश हैं! इन्हीं धर्मग्रंथों के कारण वैलेंटाईन डे को रोकने के लिये संविधानेत्तर धार्मिक पुलिस के लोग युवक-युवतियों का सार्वजनिक रूप से अपमान और तिरस्कार करते हैं। इन्हीं धर्मग्रंथों के प्रभाव से स्थापित ब्राह्मणी भगवानों के मन्दिरों में वंचित वर्गों के लोगों से लाखों करोड़ का धार्मिक राजस्व वसूला जाता है। इन्हीं धर्मग्रंथों के कारण लोगों के मनोमस्तिष्क में स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय व्याप्त है।
कुल मिलाकर इस वैदिक हिन्दू धार्मिक व्यवस्था के चलते देश की 90 फीसदी आबादी आजन्म आतंकित और भयभीत जीवन जीने को विवश है। इसके उपरान्त भी इस व्यवस्था के संचालकों के विरुद्ध आज तक सार्वजानिक रूप से आतंकवाद फैलाने का कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ। जबकि वास्तविक सच्चाई को सामने लाया जाये तो संसार में जितनी आतंकवादी घटनाएं होती हैं, उनमें मारे गये लोगों से हजारों गुने अधिक लोग मनुवादी आतंकी व्यवस्था के कारण हर दिन मारे जाते हैं। बल्कि सारा जीवन घुट घुट कर जीने को विवश हैं।
चौथा सवाल, अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार क्या वैदिक हिन्दू वर्ण व्यवस्था आतंकवाद की श्रेणी में आती है? इस सवाल का जवाब जानने के लिये हमें आतंकवाद को समझना होगा। आगे बढने से पहले 14 नवम्बर, 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस बयान को भी शामिल करना जरूरी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि एक बार फिर से संयुक्त राष्ट्रसंघ को आतंकवाद की नयी परिभाषा तय कर लेनी चाहिये। ऐसे सु-अवसर का लाभ उठाकर संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष भारतीय मनुवादी व्यवस्था को भी आतंकवाद में शामिल करवाने के लिये प्रयास किये जाने चाहिये। क्योंकि मनुवादी व्यवस्था और आतंक की परिभाषा में कोई भिन्नता नहीं है।
आतंकवाद के विशेषज्ञ वाल्टर लेक्यर ने अपनी पुस्तक “टेररिज़्म: फनाटिसिज़्म एंड द आर्म्स ऑफ मास डिस्ट्रकशन” में 100 से अधिक परिभाषाएं एकत्र की और कहा कि ''एक ही सामान्य लक्षण पर सहमत हुआ जा सकता कि आतंकवाद में हिंसा और इसकी आशंका पायी जाती है।'' मनुवादी व्यवस्था के कारण वंचित वर्गों के विरुद्ध आये दिन हिंसा होती रहती है और वंचित वर्गो को हमेशा ही हिंसा के साये में जीवन जीने को विवश होना पड़ता है। पाली की नीतू के दूल्हे द्वारा घोड़ी पर सवार नहीं होना, इसी हिंसा की आशंका का जीवन्त और ज्वलन्त उदाहरण है। जबकि इसी के साथ रोहित वेमुला द्वारा हिंसा की परवाह नहीं करने पर केन्द्र सरकार के एक मंत्री के सहयोग से उसको मरने को विवश कर दिया जाना हिंसा का स्पष्ट उदाहरण है।
इसी आतंकी व्यवस्था के तहत वंचित दलितों और आदिवासियों को जिन्दा जाला दिया जाता है। औरतों को सरेराह नंगा किया जाता है। औरतों के साथ सार्वजनिक रूप से गैंग रैप किये जाते हैं। कार्यवाही के नाम पर सात दशक से केवल जांच होती रहती हैं। क्योंकि अपराध करने वाले, जांच करने वाले, न्याय करने वाले और विभेदकारी, आतंकी, असंवैधानिक कथित वैदिक हिन्दू धार्मिक व्यवस्था के संचालक ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का त्रिगुट है। इन्हीं का मीडिया और देश की पूंजी पर कब्जा है। इन्हीं का सरकार के सभी संस्थानों पर एक छत्र कब्जा है!
चौथा सवाल, इस व्यवस्था को आतंकवाद क्यों न माना जाता? इसका सीधा सा जवाब तो यही है कि इस आतंक से पीड़ित लोगों ने इसे कभी आतंक ठहराया ही नहीं। देश की 90 फीसदी आबादी खुद धर्मभीरू है। स्वर्ग की आकांक्षा से सम्मोहित है और नर्क के भय से आतंकित है। सम्मोहित और आतंकित मनोदशा के लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है? ऐसे में पूना पैक्ट के लोकतान्त्रिक उत्पाद राजनैतिक दलों के गुलाम वंचितों के जनप्रतिनिधियों से इन वंचितों को अपनी मुक्ति की उम्मीद थी, लेकिन राजनैतिक दलों के गुलाम जो खुद ही मुक्त नहीं, अपने वंचित समाज की मुक्ति के लिये क्या कर सकते थे? अत: जनप्रतिनिधि, दल प्रतिनिधि और धन प्रतिनिधि बनकर आतंकियों के गिरोह में शामिल हो गये।
दूसरी आशा उन लोगों से थी जो तुलनात्मक रूप से (मैरिट के आधार पर) कम योग्य होकर भी प्रशासन में अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व करने के संवैधानिक प्रावधान के तहत अजा एवं अजजा के प्रमाण-पत्रों के बलबूते उच्चतम प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। लेकिन इनमें से अधिकतर ने वंचित वर्गों से दूरी बना ली और शोषक वर्गों के गुलाम बन गये। इनमें से अनेक ने अकूत धन सम्पदा कमा ली, जिसे बचाने के लिये इन पहले से गुलाम बने इन गुलामों को सेवानिवृति के बाद विधायिका में ले जाकर पक्के गुलाम बनाने का राजनैतिक षड़यंत्र भी संचालित हो रहा है। भोली वंचित जनता इन दोहरे गुलामों की हकीकत को जानने के बजाय वैदिक हिन्दू धार्मिक व्यवस्था के आतंक से इतनी आतंकित और भयाक्रांत है कि उसे इस कड़वी संवैधानिक सचाई का कुछ ज्ञान ही नहीं है। इन हालातों में वैदिक हिन्दू आतकं द्वारा दस लिए गए संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी आम जनता को ही लेनी होगी। अन्यथा संविधान रोता रहेगा और वैदिक हिन्दू आतंकवाद डसता रहेगा!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-
फैमिली काउंसलर,
9875066111,
baasoffice@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें