हम देखते हैं कि जब भी वर्ष-परिवर्तन होता है तो लोग उसे नव-वर्ष का नाम देते हुये समारोह, नाच-गाना खुशियां मनाने का माहोल निर्मित करते हैं। लेकिन इस सब से मुझे यह सोचने को मजबूर होना पड़ा है कि कोई भी वर्ष लाने के लिये क्या हम सभी को बहुत कुछ मेहनत करनी पड़ी है ? अथवा नव-वर्ष को क्या कहीं से खींच कर लाना पड़ा है ? अथवा नव-वर्ष का आना, क्या हमारी यह कोई उपलब्धि है ? सच तो यह है कि इसे तो आना ही था। कोई लाख कोशिश भी कर लेता तो भी नये वर्ष को आने से रोक नही सकता था और इसी तरह आगे आने प्रत्येक वर्ष नवीनता के स्वरूप मे आते रहेंगे। प्रश्न तो यह है कि नवीनता का आभास क्या किसी दिन, माह या वर्ष के परिवर्तन के कारण ही होता है ? सच तो यह है कि प्रकृति की स्वतः परिवर्तन-प्रक्रिया के परिणामस्वरूप प्रत्येक दिन नवीनता में परिवर्तित होता रहता है। समय का प्रत्येक क्षंण अपने अस्तित्व के साथ व्यक्ति से सार्थक प्रयास की अपेक्षा रखता है। वस्तुतः प्रयास ही नवीनता का स्वरूप है। जिस व्यक्ति के अन्दर सकारात्मक-उत्साह और स्फूर्ति का आभास है, उसका प्रत्येक दिन नवीन है। प्रत्येक आने वाले नव-वर्ष के लिये हमे अपने नवीन संकल्प और प्रतिबद्धताओं की ओर भी ध्यान देना है। हमे एक ऐसी जीवन-शैली का निर्माण करना है जो सर्व-जन-हिताय हो, हम अपनी कार्य-शैली से एक ऐसा सन्देश दे पांये जिससे कि समाज मे गिरते हुये नैतिक मूल्यों की पुनस्र्थापना हो सके। यही धर्म-युद्ध है। कहीं ऐसा न हो कि शुभ-कामनाओं का आदान-प्रदान मात्र औपचारिकतायें बन कर रह जायें और नव-वर्ष को एक समारोह के रूप में मना कर हम यथावत हो जायें। एक जनवरी को हू-हल्ला और उसके बाद ‘‘जैसे के तैसे।‘‘ क्यों न नये-वर्ष की शुभकामनायें हम एक-दूसरे को इस रूप में दें कि ‘‘प्रत्येक देशवासी के घर में ईमानदारी के कार्य से ही धनार्जन हो और किसी भी प्रकार के बाहरी या आन्तरिक दबाव के कारण गलत कमाई का प्रवेश न हो, जिससे कि प्रत्येक का परिवार बीमारी व दुखों से बचा रहै‘‘
प्रसंग से जुड़ने के लिए जीवन की कुछ वास्तविकताओं की ओर भी देखना होगा। एक दिन मैं एक धनपति से मिलने किसी सार्वजनिक उद्देश्य हेतु सहयोग के लिए गया था। कहा जाता है कि धनार्जन करने मे उसने अपनी समस्त नैतिकता व ईमानदारी ताक पर रख दी थी। कुछ देर इन्तजार करने के बाद सेठ जी कमर तक झुकी हुई हालत में चलते हुये कमरे में आये और मकान के स्वागत कक्ष में अधलेटी अवस्था में बैठ गए। अपनी बात प्रारम्भ करने के पूर्व मैंने सेठ जी से पूछा कि ‘क्या आप कुछ अस्वस्थ्य हैं ?‘ सुनते ही उन्हाने ने जबाव दिया कि ‘अत्यन्त पीढ़ा से गुजर रहा हूं, बबासीर हो गयी है, इस कारण से न तो बैठ पा रहा हूं और न ही लेट पा रहा हूं। ब्लड प्रेशर रहता है और डायबिटीज भी है, इसलिए न तो मीठा खा सकता हूं और न ही नमकीन, इस कारण छांछ में रूखी रोटी डुबा-डुबा के खाकर आया हूं।’ सेठजी की यह हालत देखकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ जैसा शून्य में देखने लगा और सोचने लगा कि ’हे ईश्वर इस सेठ को तूं ने इतना सब कुछ दिया है कि यदि यह चाहे तो सोने की थाली और कटोरी में भोजन कर सकता है। लेकिन इस की हालत देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस जैसा कंगाल कौन हो सकता है ? जिसे ईश्वर ने भूख तो दी है और अपार धन सम्पदा के साथ समस्त साधन भी दिए हैं लेकिन अपनी मन मर्जी से यह सेठ भोजन भी नहीं कर सकता है।’
नवीनता के स्वरूप मे जहां तक हमारे कर्मक्षेत्र का सम्बन्ध है तो क्यांे न हम इसे अध्यात्म से जोड़ कर देखें ! आध्यात्मिक स्तर पर यदि जीवन की वास्तविकता को देखते हैं तो यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि हमारे कर्म, उससे उत्पन्न हुये परिणाम एवं विचारों का प्रस्फुटन जब निरपेक्ष भाव से होने लगे तो चिन्तन और कर्म-फल का स्वरूप आध्यात्मिक हो जाता है। न किसी से राग, न किसी से द्वेष। तभी तो निष्पक्ष आंकलन होगा और तभी न्याय होगा। कर्मक्षेत्र और उससे उत्पन्न परिणामों का आपस में अटूट सम्बन्ध है। कर्म करने में सापेक्ष एवं सकारात्मक भाव तथा उसके परिणाम जानने में निरपेक्षता के भाव की प्रधानता ही एक सफल और तनावहीन जीवन की विशेषता है। बस, यही गीता का कर्मज्ञान है, यही सत्य है, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा चिन्तन दुःख एवं निराशा से मुक्तिदायक है और दृष्टाभाव से जीवन-यापन का आनन्द देता है। क्यों न हम सब मिल कर नव-वर्ष मे ऐसे ही चिन्तन को अपनी जीवन-शैली का अंग बना कर नवीनता का स्वरूप गृहण कर लें।
राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738
rajendra.rt.tiwari@gmail.com
नोट:- लेखक एक वरिष्ठ अभिभाषक एवं राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक विषयों के समालोचक हैं।

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