आलेख : भाजपा के जन-प्रतिनिधि मोदी के पद चिन्हों को पहचाने - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 6 मई 2016

आलेख : भाजपा के जन-प्रतिनिधि मोदी के पद चिन्हों को पहचाने

शासकीय कोष मे धन का संचय जनता से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर की बसूली के माध्यम से होता है। सरकार की प्रत्येक योजना, विकास कार्य, शासकीय अधिकारियों/कर्मचारियांे के वेतन, विधायकों, सांसदों, मुख्यमंत्री, मन्त्रियों के वेतन, इनकी सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं, इनके वाहनों का ईंधन खर्चा, हवाई जहाज व हेलीकाॅप्टरों मे भ्रमण के खर्च आदि सब कुछ जनता से एकत्रित किये गये लोकधन से ही होता है। जनता से निर्वाचित विधायक और उनसे निर्मित विधायिका के परिणामस्वरूप निर्मित सरकार के द्वारा करों की बसूली जनता से की जाती है। इसीलिये शासकीय राशि को लोक-धन व शासकीय कर्मचारियों और नोकरशाहों को लोक-सेवक कहा जाता है। श्री नरेन्द्र मोदी जी ने सच ही कहा है कि उन्हे प्रधानमन्त्री नही, प्रधान-सेवक समझिये। 

प्रसंग से जुड़ते हुये यहां मैं प्रधानमंत्री श्री मोदी के संदर्भ मे उनकी कार्यशैली का एक नमूना उल्लेख करना उचित समझता हूं। भारत सरकार के दिल्ली स्थित कार्यालय मे पदस्थ एक उच्च अधिकारी मेरे मित्र हैं और उन्होने व्हाट्सएप पर मुझे एक संदेश भेजा था जो मैने अन्य मित्रों को सर्कुलेट किया व फेसबुक पर भी पोस्ट किया है। एक महिला अधिकारी (लेखक ने नाम गोपनीय रखा है), सी.आई.एस.एफ. की एक उच्च अधिकारी हैं और उन्होने मोदी जी के काम करने के तरीके मे किस प्रकार का बदलाव पाया है, इस विषय पर उन्होने बताया कि वह लखनऊ, दिल्ली, जोधपुर और जम्मू एयरपोर्ट की सिक्यूरिटी इन्चार्ज रही हैं। उन्होने प्राईम मिनिस्टर के तौर पर अटल जी का जामाना भी देखा है और डाॅ. मनमोहन सिंह का भी और अब मोदी जी की कार्य-पद्धति भी देख रहीं हैं। उस जमाने मे अटल जी लखनऊ के सांसद थे तो पी.एम. होते हुये जब लखनऊ एयरपोर्ट पर उतरते थे, उनके साथ पूरा प्रोटोकाॅल, सरकारी अमला, व लाव लश्कर बड़े ताम-झाम के साथ होता था। इसके लिये केटरिन्ग की व्यवस्था वहीं एयरपोर्ट का केटरर करता था। उन दिनों अटल जी की एक विजिट पर केटरर का डेढ़ लाख रूपये तक बिल बनता था। कांग्रेस के जमाने मे यदि सोनिया गांधी या राहुल गांधी या प्रधानमंत्री के तौर पर डाॅ. मनमोहन सिंह आते थे, तो केटरर का बिल दस लाख रूपये से ऊपर चला जाता था। लेकिन जब से श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं और 4 या 5 बार कश्मीर का दौरा कर आये हैं व जम्मू, श्रीनगर, कटरा और लेह-लद्दाख आते-जाते रहते हैं। एक बार के केटरर का बिल सिर्फ 3500 रूपये मात्र बना था तथा इसका भुगतान भी सी.आई.एस.एफ. व एयर इण्डिया ने किया था क्यांेकि उनके स्टाफ के लिये चाय-नाश्ता केन्टीन से आया था। मोदी जी जब भी ऐसी किसी विजिट पर जाते हैं तो ट्रान्जिट मे चाय अपने पैसे से पीते हैं। उनके साथ अमले मे जो लोग होते हैं वो भी चाय नाश्ता अपने पैसों से करते हैं क्योंकि उन्हे अपनी ड्यूटी पर रहते हुये टी.ए. डी.ए. मिलता है। आगे वह बतातीं हैं कि सी.आई.एस.एफ. मे उनकी 22 साल की नौकरी के दौरान प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों की तैयारियों को उन्होने स्वयं देखा है। पूर्व पी.एम. के जहाज जब लोड होते थे, विदेश दौरों के लिये उस पर क्या-क्या लादा जाता था, वह सब पूरा खोलकर लिखने लायक नही है। प्राईवेट न्यूज चेनल के पत्रकारों की एक फौज जाती थी। लेकिन मोदी जी के जमाने मे अब सिर्फ दूरदर्शन के 3 या 4 आदमी जाते हैं। अब प्रधानमंत्री मोदी के दौरों मे दारू की नदियां नही बहती हैं और सभी कर्मचारी अपने ट्रेवलिंग एलाऊन्स मे ही खर्चा करते हैं। अब आप ही सोचिये कि ऐसे माहौल मे मुफ्तखोरों और देश को लूटने वालों के अच्छे दिन कैसे आयेंगे ? विषय से जुड़ते हुये भाजपा के विधायकों को मोदी के पद-चिन्हों की पहचान होना चाहिये। भाजपा के जन-प्रतिनिधियों को मिल कर मोदी जी के आचरण से मेल खाती एक टीम बनाना होगी। इस लेख की विषय-वस्तु ऐसे ही आचरंण का जमीन और आसमान के समान जो अन्तर दिख रहा है, उसी  का विश्लेषंण करते हुये हैं। ऐसा भी नही है कि देश मे ऐसे आचरंण के जन-प्रतिनिधि न हों, जरूरत तो उन्हे हाईलाईट और संगठित हो कर एक टीम बनाने की है।  
 गत समय मध्य-प्रदेश की विधानसभा मे सर्व-सम्मति से समस्त विधायक व मन्त्रियों ने अपने-अपने वेतन-भत्ते बढ़ा लिये हैं। पिछले 10 साल के दौरान तीन गुना वेतन-भत्ते बढ़ चुके हैं। मार्च 2016 के विधानसभा सत्र मे की गई बढ़ोत्तरी के अनुसार प्रति-माह मुख्यमंत्री को पूर्व मे एक लाख 43 हजार मिलता था अब दो लाख रूपये, कैबिनेट मंत्री को पूर्व मे एक लाख 20 हजार, अब एक लाख 70 हजार रूपये, राज्य-मंत्री को पूर्व मे एक लाख 30 हजार और अब एक लाख 50 हजार, विधायकों को पूर्व मे 71 हजार और अब एक लाख 10 हजार रूपये बढ़कर वेतन-भत्ते हो गये हैं। इन सब के अलावा अन्य अनेकों अपार सुविधायें भी इन्हे मुहैया कराई जाती है। जनता के इन तथा-कथित सेवकों ने पूर्व विधायकों की पेशन बढ़ाने मे भी बड़ी दरियादिली दिखाई है। पूर्व की इन्हे 15 हजार मासिक पेशन बढ़ाते हुये 20 हजार रूपये कर दी गई है। इनमे से कोई भी इस हेतु शर्मसार नही है कि ये करोड़पति और अपार धन-सम्पदा के स्वामी होते हुये भी लोक-धन को बढ़ी शान से प्राप्त करते हैं। मध्य-प्रदेश शासन की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि वर्ष 2002-2003 मे कुछ हजार करोड़ का कर्ज इस राज्य पर था जो बढ़ कर 2016 मे डेढ़ लाख करोड़ के कर्ज मे म.प्र. डूबा है और उस पर भी मंत्री व विधायकों की वेतन-भत्तों मे वृद्धि के कारण 31 करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ शासन पर हो गया है। परिणामतः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जनता पर ही बोझ पड़ने वाला होगा।  

गत समय पांच वर्षों मे दूसरी बार उत्तर-प्रदेश मे भी सर्वसम्मति से विधायकों के वेतन-भत्तों मे बढ़ोत्तरी हुई है। इनके विधानसभा क्षेत्र भ्रमण करने पर एवं मेडीकल एलाऊन्स, सेक्रेटरी एलाऊन्स व विधानसभा सत्र चलने के दौरान भत्तों मे बढ़ोत्तरी की गई है। जो लगभग एक लाख रूपये है। जब विधानसभा सत्र नही चल रहा हो तो उन दिनों इनके द्वारा जन-सम्पर्क करने पर 800 रूपये प्रतिदिन का भुगतान होना माना गया है। इन्हे रेल्वे कूपन प्रतिवर्ष ढाई लाख रूपये के पूर्व मे मिलते थे जो बढ़ाकर तीन लाख 25 हजार किये गये है तथा रेल्वे कूपन यदि खर्च नही हो पायें तो उसके बदले मे डीजल अथवा पेट्रोल के लिये एक्सचेन्ज कर सकते हैं। दिल्ली मे विधायकों के वेतन-भत्तों मे अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी गत समय केजरीवाल सरकार ने की है और विधायकों के वेतन-भत्ते दो लाख 10 हजार प्रतिमाह हो गये हैं। कर्नाटक मे विधायकों के वेतन-भत्तों मे गत वर्ष बढ़ोत्तरी होने के कारण सरकार पर अतिरिक्त बोझ 44 करोड़ प्रति वर्ष का बढ़ गया है। हिमाचल प्रदेश मे विधायकों के वेतन-भत्ते एक लाख 15 हजार प्रतिमाह हो गया है तथा पूर्व विधायकों की पेशन 22 हजार रूपये प्रतिमाह कर दी गई है। आसाम मे भी विधायकों के वेतन-भत्ते एक लाख रूपये से भी ऊपर हो गये हैं। इसी प्रकार देश के अधिकांश राज्यों की विधानसभाओं मे विधायकों के वेतन-भत्तो कई गुना बढ़ोत्तरी हो चुकी है। देश के विभिन्न राज्यों मे आयोगों एव निगमों के अध्यक्ष, उपाध्यक्षों की पदस्थापनायें लोकधन के रूप मे रेवड़ियां बांटना ही है।इन्होने चुनावों के पहले जनता के समक्ष यह प्रस्ताव तो नही रखा था कि वे अपने वेतन-भत्ते भी बढ़ायेंगे, फिर नैतिक रूप से उन्हे यह अधिकार किसने दे दिया कि बिना कोई चर्चा और तर्क-वितर्क के अपने-अपने वेतन बढ़ा लें ? विधान-सभाओं मे सत्ता-पक्ष अथवा विपक्ष का एक भी विधायक/सांसद ऐसा नही होता है, जिसने इस पर चर्चा करना अथवा इसका बिरोध करना उचित समझा हो। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की सब से बड़ी बिडम्बना यह है कि जनता से बसूल की गई राशि के ये स्वयं ही मालिक बन गये और स्वयं ही सेवक बन कर अपने वेतन-भत्ते बढ़ा लिये। 

अभी हाल ही मे वर्ष 2016 के लोकसभा सत्र के दौरान राज्यसभा मे यह मांग उठी है कि सांसदो के वेतन-भत्तों मे बढ़ोत्तरी की जाना चाहिये। इस हेतु आदित्यनाथ कमेठी ने सिफारिश की है कि इनके वेतन दो गुने बढ़ा दिये जाना चाहिये। अभी इनका कुल वेतन-भत्ता लगभग दो लाख 70 हजार रूपये प्रतिमाह बनता है। इसके अलावा फ्री मकान, फ्री एसी, फ्रिज, टी.वी. मकान का मैन्टेनेन्स धुलाई आदि भी। उस पर भी हम लोकसभा व राज्यसभा मे हो रही नारेवाजी, हुड़दंग को देख रहे हैं। क्या भारत का संविधान किसी भी वेतनभोगी लोकसेवक को यह अनुमति देता है कि हम हुड़दंग, हू-हल्ला मचायेंगे, न काम करेंगे और न करने देंगे, फिर भी वेतन प्राप्त करेंगे। नो-वर्क नो-पे का सिद्धान्त इन पर क्यों लागू नही है ? 

लेकिन हमे यह जान कर खुश व सन्तोषी होना चाहिये कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी वेतन-भत्तों मे बढ़ोत्तरी से खुश नही हैं और उनका प्रश्नवाचक रूप मे कहना यह है कि सांसद स्वयं ही अपना वेतन क्यों तय करें ? निश्चित ही विधायक व सांसदों के लिये पृथक से कोई वेतन आयोग या ऐजेन्सी होना चाहिये। हमे यह कहने मे कोई संकोच नही होना चाहिये कि आम-जनता व इस राष्ट्र का सच्चा जन-सेवक प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी हैं। इसलिये कहना होगा कि और अन्य नही तो कम से कम भाजपा के विधायक व सांसद प्रधानमन्त्री मोदी से कुछ सीखें, अपनी कार्यशैली और आचरंण के माध्यम से मोदी की टीम बनाने मे सहयोग करें। क्यों कि गत 68 वर्षों मे देश की नैया मे भृष्टाचार रूपी अनेकों छिद्र हो गये हैं और इस नैया का खिवैया व पार लगाने वाला तो समक्ष मे सिर्फ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ही हैं। 

क्या इस तथ्य पर कोई भी विश्वास करेगा कि मंत्री और विधायक गरीब हैं ? क्या यह अनकहा आॅफ दि रिकाॅर्ड का कटु सत्य नही है कि विधायक-निधि एवं सांसद-निधि के वितरण की कसौटी क्या है ? इस पर इन्हे दिखावटी शर्म भी नही आती है। शासन के विकास कार्यों में ठेकेदारों के पीछे से प्रवाहित होने वाली प्राण-वायु और उसका लाभ लेने वाले कौन है, यह किसी से छुपा नही है। स्पष्टतः राजनीति का व्यवसायीकरण हो चुका है और यह तो बड़े ही मजे की जन-सेवा है। धनबल एवं बाहुबल की चुनावी यज्ञ मे आहूति और दिखावटी मुस्कराहट के साथ एक बार विधायक बन जाओं, फिर तो अगली पीढ़ी के लिये भी रास्ता साफ है। किसी तरह भीड़ इकट्ठा कर लो, क्यों कि इन्हे पता है कि भीड़ को देख कर जनता भी भेड़-चाल चलने लगती है। यह किसी मायने मे स्वस्थ प्रजातान्त्रिक व्यवस्था नही कही जा सकती है। राजतन्त्र मे राज्य का राजा जनता से बिभिन्न प्रकार की बसूली कर के स्वयं एवं राज-परिवार के ऐशो-आराम मे राज्य का कोष व्यय करता था और यही स्थिति अब भी प्रजातन्त्र मे है।  
भारत की जनता और देश का बेरोजगार नवयुवक जन-प्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों मे हो रही बढ़ोत्तरी और इन्हे मिल रही अपार सुविधा सम्पन्न व्यवस्थाओं से दुखी है। आने वाले समय मे कहीं ऐसा न हो कि जनता के मन मे यह प्रश्न उठने लगे कि उसके लोक-धन की कहीं लूट तो नही हो रही है ? प्रजातंत्र के इस स्वरूप मे भृष्टाचार आॅफ दि रिकार्ड एवं आॅन दि रिकार्ड के कारण भविष्य की इन आंशकाओं से मुंह नही फेरा जा सकता है कि आने वाला समय कहीं जन-क्रांति मे परिवर्तित न हो जाये।




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लेखक- राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738
ई मेल : rajendra.rt.tiwari@gmail.com
 नोट:- लेखक एक पूर्व शासकीय एवं वरिष्ठ अभिभाषक व राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आध्यात्मिक विषयों 
के समालोचक हैं। 

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