प्रद्योत कुमार,बेगूसराय। संस्कृति और सांस्कृतिक विकास का दुष्प्रभाव सबसे ज़्यादा अगर कहीं पड़ा है तो वो है हमारा गांव,जहां से हमारी असली पहचान विलुप्त होती चली जा रही है और हम रोज़ नित्य नये आविष्कार करते जा रहे हैं जिसका परिणाम है कि हमसे देसी चीज़ें दूर बहुत दूर होती जा रही हैं जिससे हमारा वज़ूद जुड़ा हुआ है,जिसमें अपनापन था,असीम प्यार था,प्रतिबद्धता थी और समर्पण था ये सब एक सामाजिक दायरे में,अनुशासन में होता था जो लगभग ख़त्म हो चुका है।हमारी आवश्यकता हमें उस और भगाने लगा और भागते भागते हम इतनी दूर आ गए हैं कि हम हमसे हमारा गंतव्य ही खो गया,हमारा गंतव्य है हमारी देसी चीज़े जैसे देसी भाषा,देसी बातें,देसी लोग,देसी पानी,देसी भोजन,देसी अनाज,देसी सब्ज़ी,देसी शिक्षा,देसी कहानी,देसी व्यवस्था,देसी जायका,देसी पर्व,देसी चिकित्सा,देसी संस्कार,देसी संस्कृति,देसी कला,देसी जानवर,देसी गीत-संगीत,देसी नृत्य और देसी जगह सब विलुप्त होता जा रहा है,उसकी जगह हम पनाह या तरजीह दे रहे हैं हाइब्रिड या संकर नस्ल को।
हर एक राज्य की बोली-भाषा और संस्कृति के हिसाब से वहां का गीत एवं नृत्य होता है,वहां का अपना देसीपन होता है लेकिन संकरपन का भूमंडलीकरण है,ध्रुवीकरण है।हमारे बिहार के देसी पर्व में देव उठौन, जुर सीतल, सुकराती, अदरा, सत्तुवाइन्, मघसाति, सामाचकेव वैगेरह, देसी गीत में चैता,बारहमासा(बारहो महीना का अलग गीत),पराती, निर्गुण,सोहर,कोहबर,भगैत।भगैत में गायक ईश्वरीय शक्ति का आवाह्न करते हैं,सबसे दुःख की बात है कि भगैत का कोई लिखित अभिलेख नहीं है ना ही अभी तक इसको लिपिबद्ध किया गया है,वेद परम्परा के आधार पर ही अभी तक चल रहा है भगैत।भगैत गायक बहुत कम बचे हैं ये शैली उनके साथ ही ख़त्म हो जायेगी।कला की बात करें तो चौका या चौक घर की महिलाएं पिठार और सिंदूर से बनाती थीं (हैं अब कम)देसी पूजा में या पर्व में,देसी कला में आज मिथिला पेंट विश्व विख्यात है।अतिथि के सत्कार में अतिथि को चौका लगाकर आसनी पर खाना देते थे।देसी अनाज में मरुवा, चीन, ज्वार, सामां, कौनी, कुतुरुम, मारही, अल्हुवा, बाजरा, कुर्थी आदि मशहूर है जो लगभग विलुप्त हो चुका है।देसी चिकित्सा भी ख़त्म हो चूका है।देसी नस्ल की गाय तो शायद ही कहीं मिल जाय जबकि देसी गाय के दूध से बहुत सी दवाइयाँ जुड़ी हैं आयुर्वेद में।देसी भाषा में सिरक, पाहुन, बाट, खपरी, ओछौना, गाम, घाम, कलउ, बेरहट, चिलका, इनार, कात, लताम, गाँती,ज रना, भुईंयां आदि,ये शब्द भाषा से विलुप्त होते जा रहे हैं जो चिंता का विषय है,हमारी नई पीढ़ी इसको समझने के लिए तैयार नहीं है।अभी के समय में एक बात लोग बड़ा ही गर्व से बोलते हैं कि ये देसी घी है,ये देसी सब्ज़ी है या ये देसी फलां है,इसका मतलब है देसी चीज़ों में कुछ बात,कुछ दम अवश्य है तो क्यों नहीं हम उनको बचाने का कवायद करें,सोचने या चिंतन का विषय ये है।संकरपन की आयु ज़्यादा लंबी नहीं होती है।संकरपन का प्रभाव इस क़दर फ़ैल चुका है कि देसी चीज़ों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया है।पुरानी संस्कृति का पुनरावृति तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि वो पूरी तरह नष्ट ना हो जाय।


कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें