विशेष : रामवृक्ष के नाम पर कटेगी वोटों की फसल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 12 जून 2016

विशेष : रामवृक्ष के नाम पर कटेगी वोटों की फसल

विधानसभा चुनाव भले अभी दूर है, लेकिन यूपी में सियासी दलों के जीत के समीकरण का पैमाना अभी से बनने लगा है। सपा-बसपा ने अधिकांश सीटों पर अपने प्रत्याशी तय कर दिए हैं तो भाजपा-कांग्रेस अभी जिताउं उम्मीदवार की तलाश में है। किस दल का क्या चुनावी मुद्दा होगा? तो कुछ का एजेंडा अंतिम चरण में हैं तो कुछ का तैयार हो चुका हैं। लेकिन दादरी में बिसाहड़ा कांड की जांच में बकरी नहीं प्रतिबंधित मांस की बात सामने आने पर अखिलेश सरकार की जमकर हो रही छिछालेदर की आग अभी थमी भी नहीं थी कि फिर से मथुरा में हुए बड़े बवाल ने विरोधियों को खराब कानून व्यवस्था का बड़ा मुद्दा दे दिया है। मतलब साफ है बिहार की तर्ज पर यूपी में भी जंगलराज-महागुंडाराज, बीफ, विकास, राम मंदिर जैसे मुद्उे खूब गूजेंगे। तो फिर सवाल यही है क्या यूपी में इस बार रामवृक्ष के नाम पर कटेगी वोटों की फसल  

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बेशक, सियासी दलों ने समाजवादी पार्टी को घेरने की तैयारी अभी से तेज कर दी है। आरएलडी से गठबंधन कर फिर से सत्ता में आने का ख्वाब देख रहे सपा को बिसहड़ा व मथुराकांड ने जोर का झटका धीरे से दिया है। यानी अजीत-मुलायम का गठजोड़ खटाई में पड़ गया है। दरअसल, अपनी नाकामी को छिपाने के लिए सपा ने पश्चिमी यूपी में अपनी स्थिति सुधारने के लिए आरएलडी प्रमुख अजित सिंह से गठबंधन की बात कर रही थी। क्योंकि मथुरा और पश्चिमी यूपी में जिन जाट वोटों की सियासत चैधरी अजित सिंह करते हैं, वह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से ही सपा सरकार के इन्हीं कदमों से बिदकता रहा है। कई जाट नेता खुद भी सरकार पर सवाल खड़े करते आए हैं। मथुरा में सबसे ज्यादा जाट ही हैं। जहां तक कानून व्यवस्था का सवाल है मथुरा में दो पुलिस अधिकारियों समेत करीब 27 लोगों के मारे जाने से फिर अखिलेश सरकार के कामकाज पर सवाल उठने लगे हैं। अखिलेश के पूरे कामकाज पर कानून व्यवस्था का मुद्दा भारी पड़ रहा है। बीते कई बार से ये मुद्दा उठता तो पश्चिमी यूपी से है पर असर पूरे यूपी में डालता है। सरकार का कोई भी कदम पश्चिमी यूपी की करीब 110-120 सीटों पर सीधा असर डालता है। मथुरा कांड कानून-व्यवस्था को लेकर सरकार पर सीधा असर डालेगा। वैसे भी सपा सरकार अब तक के कार्यकाल में पुलिस पर हमलों को लेकर सवालों में घिरी रही। वर्ष 2012 में सरकार बनने के बाद से अबतक पुलिस पर हमले के 1100 मामले हो चुके हैं। खासतौर से जब जगजाहिर हो गया है कि मथुरा के कई उच्च पुलिस अधिकारी दिल्ली के एक बड़े सपाई नेता के दरबार के चाकर हैं और उनकी जनसामान्य के प्रति तटस्थता व् इकबाल पर पहले से ही प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था। उनकी प्रशासनिक छमता की कमी व् खराब रणनीति भी उक्त घटना का कारण हो सकती है। पुलिस प्रशासन की हिम्मत नहीं थी कि वे इस अतिक्रमण को हटा देते, जब भी प्रयास किया जाता उक्त नेता का फोन आ जाता था कि रामबृक्ष को न छुएं। 

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ऐसे में सवाल यही है कि आखिर प्रशासन ने सत्याग्रहियों की हमलावर शैली को नजरअंदाज क्यों किया? जबकि 4 अप्रैल को सदर तहसील में सत्याग्रहियों ने खूनी हमला बोला था। सत्याग्रहियों की संख्या का आंकलन लगाने के लिए पुलिस ने ड्रोन कैमरा दो बार उड़ाया। हर बार कैमरा पेड़ों के झुरमुट में उलझा और सही तस्वीरें नहीं आई। इसके बावजूद प्रशासन और खुफिया तंत्र ने अपनी रणनीति में इसे शामिल क्यों नहीं किया? मतलब साफ है कथित सत्याग्रही जितने जुर्रती थे, उतने ही शातिर दिमाग भी। अपने आकाओं के बूते सरकारी तंत्र के आगे यूं ही सीना नहीं फुला रहे थे। वे बहुत ही खुशफहमी में थे कि पुलिस के ऑपरेशन को तो चुटकियों में उड़ा देंगे। उनका ये घमंड भी बेजा नहीं था। कई दशकों से दुर्लभ प्रजाति के फल-फूलदार वृक्षों के अलावा मनमोहक खुशबू महकाते पौधों की इस विशाल बगिया को जंग का मैदान बना रखा था। मैदान में दिखावे के लिए स्कूल चलता था, बाजार सजता था, मगर इसकी आड़ में बारूद का भंडार भी था, ऐसा भंडार जो कुछ भी तबाही कर सकता था। कौन है इनका आका, कहां से सप्लाई किया जाता था ये बारूदी भंडार, कौन दे रहे ते इनको ट्रेनिंग और कौन कर रहा था मॉनीटरिंग, जवाहरबाग से ऑपरेशन के दौरान उठे शोले और धमाकों में ये अपने हाथों से बगावत के नेटवर्क को भी स्वाहा कर गए। सत्याग्रहियों के इरादों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस तरह से जवाहरबाग से शोले उठ रहे थे, धमाके हो रहे थे, वो आम नहीं थे। करीब दस किमी दूर से लपटें दिखाईं पड़ रही थीं। वह एंटी माइंस की ओर ईशारा कर रही थी। शासन-प्रशासन ने मंशा पाली थी कि थोड़ा-बहुत हमले के बाद ज्यादातर सत्याग्रहियों को पकड़ लेंगे। इनके हथियार, विस्फोटक सामग्री को कब्जे में कर लेंगे और इसके बाद इनके नेटवर्क का पर्दाफाश कर दिया जाएगा, मगर सत्याग्रहियों ने इस मंसूबे को ध्वस्त कर दिया। वे माइक पर चीख-चीख कर कहते थे कि हमसे कोई टकराकर तो दिखाए। ये उनका दावा भी था। खुफिया रिपोर्ट कुछ भी रही हों, जिला व पुलिस प्रशासन की छठी इंद्रिय कह रही थी कि ये कथित सत्याग्रही नक्सली जैसे हैं और इनका पलटवार महंगा पड़ सकता है। इसके बावजूद कोई दिमाग लगातार आला अधिकारियों को बार-बार रिहर्सल करने और उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर करने पर जोर तो दे रहा था, लेकिन यह गलत रणनीति भी बन गई थी। खुफिया स्तर पर एक बड़ी चूक हो गई। जिला व पुलिस प्रशासन आशंकित तो था, पर यह पुख्ता तौर पर मानने को तैयार नहीं था कि इन माओवादी मानसिकता के कथित सत्याग्रहियों पर चाकू, फरसे के अलावा गोला-बारूद भी हो सकता है। कट्टे, पिस्तौल और रिवॉल्वर भी हो सकते हैं। 

चार अप्रैल को तहसील पर कथित सत्याग्रहियों के हमले के बाद ऑपरेशन की बड़े पैमाने पर तैयारी कीं लेकिन प्रशासन आखिरी वक्त पर नाकाम रहा। 31 मई व पहली जून को प्रशासन की रिहर्सल में सत्याग्रहियों ने अफसरों को घेरकर फरसे लहराए। एक घंटे तक पसीना बहाने के बाद भी प्रशासन कथित सत्याग्रहियों की ताकत की टोह लेने में नाकाम रहा। रिहर्सल के दौरान सत्याग्रहियों के अगुआ रामवृक्ष यादव ने अफसरों को खरी खोटी सुनाने के साथ धमकी भी दी थी। उसने कहा था कि पीछे से क्यों आए हो? आगे से आते तो पता चलता। कथित सत्याग्रहियों ने जवाहरबाग में प्रवेश के सभी संभावित स्थानों पर कंटीले तार लगा दिए थे। महिलाएं भी मैदान में आ गईं थीं। बड़ी संख्या में हथियार और पत्थर भी जमा कर रखे थे। मगर प्रशासन उनकी तैयारियां भांप नहीं सका और मात खा गया। कथित सत्याग्रहियों की तैयारी को भांपते हुए पीएसी के एक जवान ने आपत्ति जताई थी। एक अधिकारी ने डपटते हुए कहा था कि डरते हो तो पीछे ही रहा करो। 

देशद्रोही मंसूबे 
जवाहरबाग में जमे लोगों के मंसूबे समाज और राष्ट्र की खिलाफत के थे। यह गहरी साजिश थी। इन्हें निश्चित तौर पर सपा का पूरा संरक्षण प्राप्त था। पावन ब्रज भूमि पर आतंक मचाने के पीछे किस-किस का हाथ था, ये सामने आना ही चाहिए। सबसे अहम मसला यह है कि शहीदों के परिवारों को इंसान मिलना चाहिए। इंसाफ के मायने यह कतई नहीं कि सहायता राशि बढ़ा दी जाए। अटपटी मांगों को पूरी कराने की जिद पर अड़े कथित सत्याग्रही किसी दहशतगर्द से कम नहीं थे। वह जवाहरबाग में ठहरने के बाद लगातार हिंसा कर रहे थे। कई बार उनका पुलिस से संघर्ष हुआ तो उद्यान विभाग और कलक्ट्रेट के कर्मचारी भी नहीं बख्शे। सागर मप्र से दिल्ली कूच के दौरान 18 अप्रैल 2014 को जवाहर बाग में विश्रम के बहाने कथित सत्याग्रही रुके और फिर आगे नहीं बढ़े। यहां अपनी समानांतर सरकार चलाने लगे। अपनी बात मनवाने के लिए अंदाज बातचीत का नहीं बल्कि हमले का होता था। इनकी मांगें बड़ी अजीब थीं। एक रुपये में साठ लीटर डीजल चाहते थे तो 12 रुपये तोले सोना बेचने का दावा करते थे। इसके साथ ही स्वाधीन भारत की करेंसी चलाने की मांग करने वाले कथित सत्याग्रहियों का मुखिया गाजीपुर का रामवृक्ष यादव था। उन्होंने प्रशासन से दो दिन प्रवास की अनुमति मांगी थी लेकिन फिर कब्जा हटा ही नहीं। कब्जे की पहली रात से अब तक 18-19 अप्रैल 2014 की रात राजकीय जवाहरबाग के स्टोर पर कब्जा कर लिया। 29 अप्रैल 14 को उद्यान विभाग ने नोटिस जारी किया कि उद्यानों की नीलामी नहीं हो पा रही। इससे करीब 18 लाख रुपये का उद्यान विभाग को नुकसान हुआ। राजकीय नलकूप पर कब्जा। अब तक करीब तीन लाख रुपये की उद्यान विभाग की बिजली खर्च कर दी। फिर चोरी से बिजली जलाई। सरकारी कार्यालयों में कार्यदिवस के दिन लाउडस्पीकर लगाकर तेज आवाज में प्रवचन करना और कर्मचारियों को डराना-धमकाना, पहले से ही जारी रहा। 

क्या शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचेंगी कमिश्नरी जांच 
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मथुरा के जवाहरबाग को लेकर यूपी की सियासत का पारा मौजूदा तापमान से भी अधिक गरमाई हुई है। सत्ता पक्ष तर्क दर तर्क देंकर बचाव की मुद्रा में है तो विपक्ष सवालों की बौछार कर जानना चाह रहा है यह सबकुछ किसके दम पर हो रहा था। जबकि आम जनमानस लेकर प्रशासनिक अमला सीधे-सीधें अखिलेश सरकार को कटघरे में खड़ा रहा है। यूपी का हर सख्श जानना चाहता है कि जवाहरबाग पर ढाई साल तक रहे कब्जे का सच क्या है? ऐसी कौन सी मजबूरियां थी जिसे देश तोड़ने की हद तक गंभीर हालात को बनने दिया गया? क्या जवाहरबाग के मास्टरमाइंड रामवृक्ष की पहुंच सूबे के मुखिया या यूं कहें शीर्ष नेतृत्व या कुनबे तक थी। अगर नही ंतो क्यों उसके उटपटांग हरकतों-गतिविधियों को चलते देने रहने के लिए अधिकारियों पर फोन के जरिए दबाव बनाया जाता रहा। वह कौन कैबिनेट मंत्री है जिसके एक फोन पर विभाग द्वारा काटी गयी बिजली को तत्काल जोड़ने, खाद्यान मुहैया कराने से लेकर पेंशन की राशि तत्काल पहुंचाई जाती रही। वह कौन शख्स है जो रामवृक्ष नाम के देशद्रोह की खेती को तमाम झांझावतों के बावजूद सींच रहा था? इसका जवाब मुख्यमंत्री को देना ही होगा। बेशक, यूपी में मथुरा के जवाहरबाग में जो खूनी खेल खेला गया उसमें एक-दो नहीं बल्कि दो जांबाज अफसरों समेत 27 लोगों की जिंदगिया स्वाहा हो गयी। इस हिंसा का मास्टरमाइंड रामवृक्ष भी मारा जा चुका है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि यह सब किसके संरक्षण व शह पर होने दिया गया। ‘आजाद भारत विधिक वैचारिक क्रांति सत्याग्रही संगठन के बैनरतले रामवृक्ष यादव कैसे इतना ताकतवर हुआ? कैसे उसने शासन-प्रशासन के नाक के नीचे अपनी समानांतर सत्ता खड़ी कर ली। सपा के किस शीर्ष नेता के संरक्षण में पल-बढ़ व फल-फूल रहा था रामवृक्ष। जबकि जवाहरबाग से सटा डीएम-एसपी कार्यालय है और उसके गतिविधियों की पुख्ता जानकारी समय-समय पर अफसरों एवं खुफिया तंत्र ने लखनउ को पत्र के जरिए अवगत भी कराया गया। इसके बावजूद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस वाकये को बहुत बड़ी चूक बताकर प्रशासनिक अधिकारियों पर तोहमत लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना चाहते हैं। पुलिस के मुखिया जावीद अहमद भी अफसोस जता चुके है। मगर हकीकत ये है कि ये चूक मुख्यमंत्री की नाक के नीचे उनके ही अधीनस्थ अफसरों से लेकर शीर्ष नेतृत्व ने की है। सूत्र बताते है कि इन अफसरों को न सिर्फ फाइलों को दबाएं रखने की निर्देश दिए गए बल्कि हिदायत भी दी गयी गयी कि रामवृक्ष को किसी भी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए। इसकी गवाही खुद मथुरा में बैठे आफिसर भी दे रहे है कि विभाग द्वारा जब कभी बिजली काटी गयी, लखनउ से तत्काल जोड़ने की निर्देश दिए गए है। यहां तक खाद्य सामाग्रियों के साथ उसके पेंशन भी पहुंचाने पड़ते थे। सच तो यह है कि अगर पूरे जय गुरुदेव की वारिश बनने को लेकर हुई रामवृक्ष यादव की तकझक से लेकर जवाहरबाग में ठहरने व उसके गतिविधियों की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई द्वारा कराई जाएं तो साफ हो जायेगा कि इस पर्दे के पीछे कौन धन-दौलत इकठ्ठा करते हुए खून की होली का सियासत कर रहा था। इतना ही नहीं अगर जांच गंभीरता से हुई तो वह भी तहखाने व राज बाहर आ जायेंगे जहां इस तरह की गतिविधियां बालू खनन से लेकर अन्य कुकर्म बाहुबलि जनप्रतिनिधियों द्वारा चलाएं जा रहे है। जहां इतने बड़े पैमाने पर सत्ता एवं उसके शीर्ष निर्देशन में सबकुछ धडल्ले से चल रहा हो वहां रामवृक्ष के संरक्षणदाता तक पुलिस व स्थानीय जांच एजेंसिया तो दूर सीबीआई के हाथ पहुंच पाएंगे, इसमें भी संदेह है। क्योंकि संरक्षणदाता कोई और नहीं बल्कि अखिलेश सरकार के शीर्ष नेतृत्व के लोग ही है। जिसके आगे मथुरा के कई उच्च पुलिस अधिकारी दुम हिलाते नजर आते है। 

वह सफेदपोश कौन है जिसने जय गुरुदेव की पापर्टी विवाद सलटाया 
क्या पुलिस जांच के दौरान उस हस्ती तक पहुंच पायेगी जिसने जयगुरुदेव की मृत्यु के पश्चात जयगुरुदेव के ड्राइवर पंकज यादव को 42 हजार करोड़ रियल एस्टेट का उत्तराधिकारी बनवाया है। ऐसा इसलिए क्योंकि मथुरा घटना का खलनायक रामबृक्ष यादव भी जयगुरुदेव की संपत्ति का प्रवल दावेदार था। लेकिन उसी शीर्ष नेतृत्व ने समझा-बूझाकर मामले को न सिर्फ रफा-दफा करवाया बल्कि मथुरा के जवाहरबाग पार्क में रहने एवं कब्जा की अनुमति भी दिलवाई। हाईकोर्ट का आदेश नहीं होता कुछ हो भी नहीं पाता। क्योंकि इसके पहले जब भी पुलिस जिला न्यायालय के आदेश पर कब्जा हटाने गयी उसी वक्त उक्त शीर्ष नेतृत्व का फोन आता था कि वहां किसी भी प्रकार का बखेड़ा नहीं खड़ा होना चाहिए, पुलिस लौट जाया करती थी। आगरा के कमिश्नर ‘प्रदीप भटनागर‘ से जांच छीनकर अलीगढ के कमिश्नर को दिया जाना इसी कड़ी का हिस्सा है। यहां जिक्र करना जरुरी है कि अधिवक्ता विजय पाल सिंह तोमर ने प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हुए जब हाईकोर्ट में अपील की, तो 20 मई 2015 को हाईकोर्ट ने प्रशासन को जवाहरबाग खाली कराने के आदेश जारी किए। इस आदेश के बाद पूर्व पत्रों के साथ ही हाईकोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए जिलाधिकारी राजेश कुमार ने शासन में सभी उच्चाधिकारियों को फिर पत्र भेजा। लेकिन हुआ तो कुछ भी नहीं, उल्टे सत्याग्रहियों की हरकतें अराजकता की पराकाष्ठा करती दिखीं। जवाहरबाग में इनके इंतजामों, इरादों से प्रशासन बुरी तरह से घबरा गया था। इस दौरान सत्याग्रहियों की हरकतों से तहसील, कलक्ट्रेट का कार्य प्रभावित होने लगा। राजनीतिक दल भी आवाज उठाने लगे। इधर, बाग खाली न होने पर याची के अनुरोध पर 22 जनवरी 2016 को हाईकोर्ट ने प्रशासन को अवमानना नोटिस जारी कर दिया, जिस पर प्रशासन ने अपना जवाब कोर्ट में दाखिल किया। साथ ही शासन को फिर भेजे पत्र में जवाहरबाग के हालात काफी स्पष्ट कर दिए थे। मुख्यमंत्री सचिवालय, मुख्य सचिव सहित सभी उच्चाधिकारियों को भेजे गए इस पत्र में कहा गया था कि सत्याग्रहियों को यहां से हटाना अब अपरिहार्य हो गया है। इनकी करतूतों से पूरा जिला परेशान है। इनकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। खुफिया रिपोर्ट के आधार पर जवाहरबाग को खाली कराने के लिए सुरक्षा बल और अन्य संसाधनों की मांग भी की गई थी। मगर सकारात्मक सक्रियता जैसी कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसके बाद प्रशासन ने उद्यान विभाग के उच्चाधिकारी को भी पत्र लिखा, इस मंशा से कि विभाग अपनी परेशानी से शासन को अवगत कराए, तो शायद वह हरकत में आए, मगर उद्यान विभाग भी खामोश बना रहा। इसके बाद जब हाईकोर्ट ने फिर से अवमानना नोटिस भेजा तो दबाववश वर्तमान एसएसपी व जिलाधिकारी सामने तो नहीं आएं लेकिन कार्रवाई के नाम शहीद अफसरों को भेज दिया। सूत्र बताते है कि इन अफसरों को पता था कि सफलता तो मिलेगी नहीं और इसी से मेल खाती जवाब हाईकोर्ट में दाखिल कर दिया जायेगा। मगर जब जांबाज अफसर शहीद हो गए तो पुलिस भी अपनी आपा खो बैठी और जो खूनी मंजर हुआ उससे अब पूरा देश वाकिब तो हो गया, लेकिन इस पर्दे के पीछे कौन शख्स है उसकी असलियत आना अभी बाकी है।

सीबीआई जांच से बेनकाब होंगे सफेदपोश 
सीबीआइ जांच होने पर कई अधिकारी बेनकाब तो होंगे ही सत्ता के शीर्ष पर बैठे उस सख्श का भी चेहरा सामने आ जायेगा जिसके निर्देशन में सबकुछ होने दिया गया। जहां तक प्रशासन की नाकामियों का सवाल है शहीद एसपी सिटी के मोबाइल फोन का कॉल रिकार्डर ही ऑपरेशन जवाहर बाग की नाकामी की हकीकत को उजागर कर देगा। सूत्रों के अनुसार, एसपी सिटी के मोबाइल में ऑटोमेटिक कॉल रिकार्डर है। एसपी सिटी को जिस मोर्चे से जवाहर बाग में दाखिल होने के लिए कहा जा रहा था, उस समय ही उन्हें ये भी जानकारी मिल गई थी कि फीरोजाबाद से आया फोर्स वापस बुला लिया गया है। इतना ही नहीं, आगरा और मैनपुरी के मथुरा आने वाले फोर्स को भी रोक दिया गया था। इसके लिए एक वरिष्ठ अधिकारी का आदेश बताया जा रहा है। इसके बाद भी पुलिस को रिहर्सल के लिए भेजा गया था, उस समय प्रशासनिक अधिकारी नहीं भेजे गए थे। यहां तक कि जवाहर बाग को खाली कराने के लिए पहले ही जोन और सेक्टर मजिस्ट्रेट नियुक्त किए जा चुके थे। लेकिन ऐनवक्त पर उसी शीर्ष नेतृत्व के फोन पर उच्च अधिकारी सीथिल पड़ गए। जबकि शहीद अफसर बलि का बकरा बन गए। इधर, सवाल यह खड़ा हो रहा है कि तीन हजार लोगों को पुलिस ने जवाहर बाग घटनाक्रम में अपराधी बनाया है, तो फिर ऑपरेशन के बाद पकड़े गए लोगों को भागने के लिए किसके इशारे पर रास्ता दिया गया। यह गुत्थी अभी तक अनसुलझी है। वैसे भी नक्सली और माओवादी अंदाज में लगातार ताकत बढ़ा रहे कथित सत्याग्रहियों के इरादे भयानक थे। तमाम खुफिया रिर्पोटों में कथित सत्याग्रहियों के लिए नक्सली शब्द का प्रयोग करने से बचते हुए प्रशासन के साथ-साथ बाग के भीतर चलने वाले इनके क्रिया-कलाप के फोटोग्राफ्स तक गृह सचिव (गोपन) को भेजे थे। जैसा कि ऑपरेशन के दौरान हुआ, उसकी आशंका खुफिया एजेंसियों ने पहले ही जता दी थी। रिपोर्ट में यहां तक कहा गया था कि इनके पास स्वयं के लाइसेंसी हथियार तो हैं ही, ये लोग अवैध असलहा, विस्फोटक सामग्री भी इकट्ठा कर रहे हैं। लोकल इंटेलीजेंस की एक रिपोर्ट में आगाह किया गया था कि हमेशा असलहों व लाठी-डंडे से लैस रहने वाले ये लोग मरने-मारने पर उतारू रहते हैं और परिसर खाली कराए जाने के दौरान जन हानि की भी आशंका है। मंडलायुक्त ने भी इन्हीं रिपोर्ट के आधार पर इस प्रकरण को बेहद गंभीर माना था। इसके साथ ही यह भी आशंका जताई गई थी कि वे अपने लोगों और जवाहर बाग कॉलोनी समेत आसपास के लोगों को घायल कर और मारकर इसका पुलिस पर बर्बरता का आरोप मढ़ दें। मगर अफसर शीर्ष नेतृत्व के दबाव में इस इनपुट की अनदेखी करते रहे। यही अनदेखी प्रशासन को भारी पड़ गई। 

साजिश व संरक्षण का खेल है जवाहरबाग 
बेशक, कृष्ण की नगरी मथुरा यूं नही दहली, बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साजिश व सत्ता संरक्षण का खेल है। इसकी बड़ी वजह है कि कब्जाई वाली 280 एकड़ भूमि जिला प्रशासन यानी डीएम-एसएसपी के बंगले से सटा हुआ है। पूरा गांव सत्याग्रहियों के आतंक से त्रस्त था। सवाल यह है कि जब वहां का हर सख्श त्रस्त था, ये एसडीएम समेत कई सरकारी आफिसरों-कर्मचारियों पर धावा बोल चुके है। बावजूद इसके डीएम-एसएसपी को इनकी ताकत व कार्यप्रणाली का अंदाजा नहीं लगा, यह किसी के गले नहीं उतर रहा। मतलब साफ है इन्हें सरकार के किसी बड़े नेता का संरक्षण प्राप्त था इंकार नहीं किया जा सकता। रहा सवाल जांच के आदेश का तो आगरा के कमिश्नर से जांच छीनकर सत्ता के चहेते अलीगढ़ कमीश्नर से जांच करवाने की मंशा भी लोग समझ गए है कि जांच जिस स्तर की होनी है। वैसे भी दो पुलिस अफसरों समेत 25 लोगों की जिंदगिया काल कलवित होने के बाद सरकार एवं पुलिस की तरफ से जो सफाई दी जा रही है वह समझने के लिए काफी है मामले की लीपापोती शुरु हो चुकी है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर पुलिस सुराग लेने ही गई थी तो क्या इसकी सूचना रामवृक्ष को दी थी क्या कि हम कब्जा हटाने आ रहे है। तुम लोग हमले के लिए तैयार हो जाओं। जबकि सच तो यह है कि दो दिन के लिए धरना देने के नाम पर जवाहर बाग में डेरा डालने वालों को दो साल तक बने रहने के लिए न सिर्फ उन्हें खाद, पानी-बिजली तक मुहैया कराया गया, बल्कि पेंशन, राशन कार्ड से लेकर मतदाता सूची में नाम तक दर्ज करवाया गया। सूत्रों पर यकीन करें तो रामवृक्ष 2017 में टिकट के लिए प्रबल दावेदारों में से एक था, शीर्ष नेतृत्व द्वारा तैयारी का आश्वासन भी मिला हुआ था। रामवृक्ष का मनोबल बढ़ने का शायद यही वजह भी है, जिसने हरियाणा के उस रामपाल को भी पीछे छोड़ दिया जिससे निपटने में खट्टर सरकार के पसीने छूट गए थे। यह अकल्पनीय नही ंतो और क्या है कि अजीबों-गरीब मांगें रखने वाला कोई शख्स प्रशासन के नाक के नीचे और डीएम-एसपी के बंगले से सटे चहारदीवारी के बीच न सिर्फ असलहों का जखीरा इकठ्ठा कर लें बल्कि 5 हजार से अधिक समर्थक भी तैयार कर ले। लेकिन संरक्षण का ही वरदान था कि रामवृक्ष यादव ने जवाहर बाग में काबिज होकर हर किसी को चुनौती देता रहा, लेकिन स्थानीय पुलिस-प्रशासन उसे वहां से निकालने में नाकाम रहा। यदि उच्च न्यायालय ने दखल नहीं दिया होता तो संभवतः अभी भी मथुरा पुलिस की ओर से कोई कार्रवाई करने की बात तो दूर अदालत के कड़े रुख से पहले इस जमीन को पट्टे पर दिए जाने की कोशिशें की जा रही थीं। खास बात यह है कि जिन लोगों के जरिए इस जमीन पर कब्जा किया गया था, उन्हें भी यहां यह कहकर लाया गया था कि उन्हें न सिर्फ वहां घर मिलेगा बल्कि आजीवन भोजन और पेंशन भी मिलेगी। बता दें, बागवानी की इस जमीन को लगभग 27 महीने पहले दो दिन के लिए कथित तौर पर सत्याग्रहियों को यहां रुकने के लिए अनुमति दी गई थी। लेकिन इसके बाद लंबे समय तक इस जमीन को खाली कराने की कोशिश ही नहीं की गई। नतीजा यह हुआ कि इस जमीन पर कब्जा करने वालों ने न सिर्फ इस पूरे एरिया में रहने के लिए झुग्गियां बना लीं बल्कि कई और सुविधाएं भी जुटा लीं। सवाल है कि जब यह सब कुछ हो रहा था, उस समय स्थानीय प्रशासन इस ओर आंखें क्यों मूंदे रहा।

जयगुरुदेव की तर्ज पर आश्रम बनाने की था इरादा 
रामकृष्ण जयगुरुदेव की तरह ही आश्रम बनाना चाहता था लेकिन इसके कब्जे के खिलाफ मामला इलाहाबाद कोर्ट में चला गया। हाईकोर्ट ने इसे खाली करने का आदेश दिया। रामवृक्ष यादव इस आदेश के खिलाफ कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज करते हुए उस पर 50 हजार का जुर्माना भी लगा दिया। कोर्ट के आदेश के बाद लगातार तीन दिन से पुलिस इस जगह को खाली करने की घोषणा कर रही थी। इस दौरान रामवृक्ष यादव शूटरों और अपराधियों को अपने कैंप में रखने लगा। कहा जाता है कि 5 हजार लोग उसके लिए काम करते थे। उसी कहने के पर इस पूरी झड़प को हिंसक रुप से अंजाम दिया गया। पुलिस के साथ हिंसप झड़प में ये मारा गया है जिंदा है ये अब पहेली बन गया है। ऑपरेशन जवाहर बाग की सारी योजना फेल हो गई। दो पुलिस अधिकारियों की शहादत और 22 अन्य मौतों के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि मथुरा में बड़ी चूक हुई है। वहीं, पुलिस महानिदेशक जावीद अहमद का बयान इसके एकदम उलट था। उन्होंने किसी गलती को सीधे खारिज कर दिया। कहा कि पुलिस ऑपरेशन नहीं, रेकी करने गई थी। ऑपरेशन दो-तीन दिन बाद होना था, मगर उपद्रवियों ने अप्रत्याशित हमला बोल दिया। उपद्रवियों से भारी संख्या में हथियार मिले हैं। अंदर नक्सलियों की तर्ज पर गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग दी जाती थी। वहीं, शासन ने एक दिन बाद ही जांच कमिश्नर आगरा प्रदीप भटनागर से लेकर कमिश्नर अलीगढ़ चंद्रकांत को सौंप दी गई। 

सपा प्रत्याशी की सूची में शामिल था रामवृक्ष 
खुद को जयगुरुदेव का समर्थक बताने वाले रामवृक्ष यादव की राजनैतिक क्षेत्र में इतनी अच्छी पैठ हो गई थी कि उसे 2017 में चुनाव लड़ने का आॅफर मिल गया। यह आॅफर कहीं और से नहीं बल्कि संरक्षणदाता एवं सरकार के शीर्ष नेतृत्व की ओर से था। संरक्षण का ही तकाजा रहा कि दो साल तक जवाहर बाग में कोई टस से मस नहीं कर पाया था। यहां तक कि एक साल तो हाईकोर्ट के आदेश भी कुछ न कर सके। यह पहली बार नहीं है जब कानून एवं व्यवस्था के मामले में अखिलेश यादव सरकार कठघरे में खड़ी हुई हो। ऐसा रह-रहकर होता रहता है। राज्य के विभिन्न हिस्सों में ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं जिनसे यही पता चलता है कि राज्य सरकार कानून एवं व्यवस्था के प्रति उतनी सजग-सक्रिय नहीं जितना उसे होना चाहिए। ऐसा तब है जब यह धारणा पहले से ही बनी हुई है कि सपा जब भी सत्ता में आती है तो कानून एवं व्यवस्था के समक्ष चुनौतियां बढ़ जाती हैं। सबसे खराब बात यह है कि न केवल किस्म-किस्म के अपराधी तत्व बेलगाम होते दिखते हैं, बल्कि उनके दुस्साहस का शिकार पुलिस भी बनती है। यह सामान्य बात नहीं कि पिछले चार वर्षो में पुलिसकर्मियों पर हमले की एक हजार से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें कई पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सपा के नेताओं को इस सवाल का जवाब देना होगा कि आखिर उनके सत्ता में आने पर ही ऐसी स्थिति क्यों बनती है? इसके साथ ही इस सवाल का भी जवाब खोजने की कोशिश करनी होगी कि सनकी और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपने अनुयायी कैसे तैयार कर लेते हैं? 

खुफिया व प्रशासनिक रिर्पोटों की अनदेखी की सरकार 
एसएसपी नितिन तिवारी ने जवाहर बाग को कथित सत्याग्रहियों से खाली कराने की योजना बनाई, लेकिन शासन स्तर से हरी झंडी नहीं दिखाई गई। डीएम बी. चंद्रकला के तबादले के बाद डीएम राजेश कुमार की नियुक्ति की गई। इसी बीच कथित सत्याग्रहियों ने उद्यान कर्मियों से मारपीट कर दी। एसएसपी मंजिल सैनी ने इनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराकर तीन सत्याग्रहियों को जेल भेज दिया। इसी के साथ कथित सत्याग्रहियों से जवाहर बाग को खाली कराने के लिए पुलिस फोर्स की मांग तेज कर दी गई, मगर मंजिल सैनी का इटावा ट्रांसफर हो गया और इनके स्थान पर डॉ. राकेश कुमार सिंह को इटावा से मथुरा भेजा गया। अप्रैल के पहले सप्ताह में तहसील पर हमला करने पर वर्तमान जिलाधिकारी राजेश कुमार और एसएसपी डॉ. राकेश सिंह ने ऑपरेशन जवाहरबाग की रूपरेखा बनानी शुरू की। बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष विजय पाल तोमर ने 20 मई 2015 को जवाहर बाग को खाली कराने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। कार्रवाई न होने पर कोर्ट ने अवमानना की कार्रवाई शुरू कर दी। हाईकोर्ट के आदेश का अनुपालन कराने के लिए जिला प्रशासन ने प्रमुख सचिव गोपनीय (गृह) को पत्र लिखा। एसएसपी डॉ. राकेश सिंह ने एडीजी कानून व्यवस्था, आइजी और डीआइजी से फोर्स की मांग की। आइजी पीएसी एसबी शिरोड़कर की रिपोर्ट पर डीआइजी अजय मोहन शर्मा ने आगरा, मैनपुरी और फीरोजाबाद का फोर्स आवंटित कर दिया, जबकि पीएसी भी भेज दी गई। लेकिन शासन ने एडीएम, एसडीएम, एसपी, सीओ और महिला पुलिस आवंटित नहीं की। इधर, तहसील पर हमला होने के बाद जवाहर बाग को खाली कराने के लिए आंदोलन शुरू हो गए और प्रशासन पर दबाव बढ़ता चला गया। पांच बार कार्ययोजना भी बनाई गई, लेकिन हर बार फोर्स न मिलने के कारण कार्रवाई नहीं हो सकी। प्रशासन ने सत्याग्रहियों को पुलिस का भय दिखाकर निकालने के लिए दो महीने तक समय दिया। बिजली काट दी गई और दूध की सप्लाई भी दो दिन पहले बंद कर दी गई थी। 

राशन कार्ड के साथ ही मतदाता सूची भी बना 
स्थानीय प्रशासन की बदौलत ही यहां रहने वालों को तो राशन कार्ड तक दिए जा रहे थे। जबकि यह सभी को मालूम था कि ये सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे लोग हैं लेकिन उन्हें इसके बावजूद राशन कार्ड तक दिए जा रहे थे। सपा के एक नेता ने दन सभी का मतदाता सूची में भी नाम दर्ज कराया। इससे पता चलता है कि स्थानीय प्रशासन भी किसी न किसी बड़े राजनेता के इशारे पर ही काम कर रहा था। 

सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है मथुराकांड 
मथुरा की घटना से साफ है कि देश में संगठित अराजकता की न जाने कितनी किस्में सिर्फ मौके की तलाश में हैं। क्यों इसे समय से रोकने की पहल नहीं हो पातीध् क्यों एक छोटी सी फुंसी को नासूर बन जाने के मौके दिए जाते हैं। पहले छोटी-मोटी गड़बड़ियों को अनदेखा किया जाता है, उनके जरिए अपना हित साधने की कोशिश की जाती है, फिर वही चूक पूरे समाज के लिए महंगी साबित होती है। मथुरा में ‘जयगुरुदेव संगठन’ से निकले ‘भारत विधिक संघ’ के कथित सत्याग्रहियों ने करीब दो साल से मथुरा के जवाहर बाग पर कब्जा कर रखा था, जो कि उद्यान विभाग की संपत्ति है। 

यूपी में कब तक चलेगा ‘खूनी खेल‘  
कई बार जहां सिर्फ एक चाकू मिलने मात्र पर पुलिस कई धाराओं में जेल भेज देती है, वहीं भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा के बीचो-बीच सालों से जमंे ‘राम‘ नाम का ‘वृक्ष‘ न सिर्फ पला-बढ़ा बल्कि सरकार के समानांतर अपना नेटवर्क खड़ा कर हथियारों का जखीरा इकठ्ठा किया। बावजूद इसके सबकुछ जानते हुए भी पुलिस प्रशासन आंखे मूंदे बैठी रही। इसे इंटेलिजेंस फेल्योर का नाम दें या फिर जानबूझ कर सच्चाई से मुंह फेरने की लापरवाही। खास यह है कि इस राम नाम के वृक्ष को सत्ता के शीर्ष नेतृत्व का संरक्षण ठीक उसी तरह है जैसा यूपी के अन्य बालू खनन से लेकर लूट, हत्या, डकैती वाले माफियाओं को मिला हुआ है। मतलब साफ है कानून-व्यवस्था में फेल्योर हो चुकी अखिलेश सरकार अब माफियाओं के बूते सत्ता हासिल करने की ताना-बुना बुन रही है बेशक, विपक्ष अगर कह रहा है कि ‘‘यूपी के लिए कलंक है अखिलेश सरकार‘‘ तो यूं नहीं बल्कि इसमें कहीं न कहीं सच्चाई है। भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा के जवाहरबाग में हुए नरसंहार में दो पुलिस अफसरों समेत 22 लोगों का कत्लेआम तो सिर्फ एकबानगी है। इसके पहले भी माफियाओं-बाहुबलि जनप्रतिनिधियों व भ्रष्ट पुलिस व प्रशासनिक आफिसरों की साजिश में एक-दो, चार-छह नहीं बल्कि पुलिस और उपद्रवियों के बीच हुए आमने-सामने की लड़ाई में दर्जनों अधिकारी व हजारों निर्दोश जाने जा चुकी है। यूपी का कोई ऐसा जिला नहीं बचा है जहां कुनबे के अलावा उस इलाके का माफिया खुद मुख्यमंत्री के समानांतर अपना रुतबा न रखता हो और गाहे-ब-गाहे कत्लेआम न कराता हो, कल्याणकारी योजनाओं का बंदरबांट न करता हो, पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को साजिश में लेकर निर्दोष आमजनमानस, सामाजिक, संभ्रांत नागरिक व पत्रकारों की हत्या तथा उत्पीड़न न कराता हो। मतलब साफ है यूपी माफियाओं के बूते ही चल रही है। अगला चुनाव 2017 भी अखिलेश सरकार माफियाओं के बूते ही हासिल करना चाहती है। इसके लिए कई धड़ों में बंटे पूर्वांचल के माफियाओं को एकजूट करने का जिम्मा भदोही के बाहुबलि विधायक विजय मिश्रा को सौंपी गयी है तो प्रतापगढ़, इलाहाबाद, आजमगढ़ समेत पूरे यूपी के जिलों की जिम्मेदारी इलाकाई मंत्रियों, विधायकों व प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकारियों को दी गयी है। शायद यही वजह रहा कि फूटी आंख भी देखना पसंद न करने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भदोही में बाहुबलि विधायक विजय मिश्रा की न सिर्फ कसीदें पढ़ी बल्कि उसे क्रांतिकारी नेता का दर्जा भी दे दिया। यह अलग बात है कि समाचार पत्रों की सुर्खिया बनने के बाद इलाहाबाद की सभा में अखिलेश ने माफिया अतीक अहमद को मंच से नीचे उतार दिया और माफिया विनीत सिंह के खिलाफ कार्रवाई इसलिए की गयी कि वह बसपा करीबी है और माफिया विधायक विजय मिश्रा की पत्नी रामलली के खिलाफ चुनाव लड़ा है। 




(सुरेश गांधी)

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