बीकानेर निवासी दानवीर सेठ अमरचन्द बांठिया भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में राजस्थान के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी तथा प्रथम शहीद थे। उनकी योग्यता, ईमानदारी, न्यायप्रियता और सुयष से प्रभावित होकर तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राजा जयाजीराव सिंधिया ने उनको समृद्ध ‘गंगाजली’ कोष का खजांची नियुक्त कर दिया। इस कोष पर हमे सषस्त्र सिपाहियों का पहरा रहता था। उन्हीं दिनों भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का सूत्रपात हो गया था। गंगाजली के कोषाध्यक्ष होने के कारण राज्य और सेना के उच्च पदस्थ व्यक्तियों से उनका परिचय बढ़ने लगा था। अधिकारियों तथा अन्य लोगों से उन्हें अंग्रजों के द्वारा भारतवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों के समाचार मिलते रहते थे। भारतवासियों पर अत्याचार की खबरें सुनकर उनके मन में भारत को स्वतंत्र कराने की भावना प्रबल हो उठती थी।
उस समय जहाँ कहीं युद्ध होता तो अंग्रेज भारतीय सैनिकों को युद्ध की आग में झोंक देते थे। भारतीय सैनिकों को जब गाय-बैल की चर्बी और पषु चर्बी लगे कारतूस मुँह से खोलने का आदेष दिया जाता तो वे मना कर देते। इसी प्रकार गौवंष के प्रति विषेष आदर के कारण एक बार बंगाली सैनिकों ने बैलों की पीठ पर बैठने के लिए मना कर दिया। कहते हैं, इस प्रकार की मनाही पर अंग्रेजों ने सात सौ बंगाली सैनिकों को गोलियों से भूनकर मौत के घाट उतार दिया। यह सुनकर बांठियाजी की आत्मा मातृभूमि की रक्षार्थ तड़प उठी। उन्होंने ठान लिया कि भारतमाता के लिए सर्वस्व समर्पित करना है।
इधर, रानी लक्ष्मीबाई के सैनिक और क्रांतिकारी देष की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने लगे। लेकिन उन्हें भयावह आर्थिक संकट से जूझना पड़ रहा था। उन्हें कई महीनों से वेतन नहीं मिल रहा था। राषन-पानी के अभाव में उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी। ऐसे विकट समय में देषभक्त अमरचन्द बांठिया ने क्रांतिकारियों की आर्थिक मदद शुरू कर दी। देषभक्तों के लिए उन्होंने अपना निजी धन दिया और राजकोष भी खोल दिया। पुष्करवाणी ग्रुप ने जानकारी देते हुए बताया कि यह धनराशि उन्होंने 8 जून 1858 को उपलब्ध कराई। उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे और क्रांतिकारियों को देष के लिए संघर्ष करने हेतु मुक्त आर्थिक सहयोग किया। नाना साहेब पेषवा के भाई रावसाहेब के जरिये वे आर्थिक सहयोग भिजवाते थे। वे हर प्रकार से देषभक्तों की मदद करते थे। उनके नियोजित और समयोचित सहयोग के फलस्वरूप वीरांगना लक्ष्मीबाई दुष्मनों के छक्के छुड़ाने में सफल रहीं।
ब्रिटिष शासन ने देषभक्त अमरचन्द बांठिया के सहयोग को राजद्रोह माना। फिरंगियों (अंग्रेजों) ने बांठियाजी को तरह-तरह की बर्बर यातनाएँ दीं। क्रूर ब्रिटिष शासकों ने खौफ पैदा करने के लिए बांठियाजी के दस वर्षीय पुत्र को तोप से उड़ा दिया। सोलहवीं सदी में वीर माता श्राविका पन्नाधाय ने कर्Ÿाव्य की बलिवेदी पर अपने पुत्र का बलिदान अपने सामने देखा। उन्नीसवीं सदी में वीर पिता श्रावक अमरचन्द बांठिया ने भारतमाता की सेवार्थ अपने पुत्र का बलिदान अपने सामने देखा। अपने प्राणप्यारे मासूम पुत्र के बलिदान का दारूण कष्ट भी बांठियाजी को धर्म और राष्ट्रधर्म से नहीं डिगा पाया। परिणामस्वरूप फिरंगियों ने बांठियाजी को मौत की सजा सुनाई। फिरंगियों ने बांठियाजी पर दोहरा देषद्रोह का आरोप लगाया। पहला यह कि उन्होंने गंगाजली कोष का बहुत सारा धन रानी लक्ष्मीबाई के सिपाहियों को बाँटा, जो कि ग्वालियर स्टेट के विरुद्ध अपराध है। दूसरा - ब्रिटिष शासन का विरोध करने वाले ‘देषद्रोहियों’ को धन दिया। बांठियाजी ने जवाब दिया कि जब कोष से धन दिया गया, तब कोष रानी के ही नियंत्रण में था। अतः उनका वैसा करना ग्वालियर स्टेट के विरुद्ध कदम नहीं था। दूसरे आरोप के जवाब में बांठियाजी ने कहा कि फिरंगी हमारे देष के दुष्मन हैं। देष और देष की आजादी के लिए मर मिटने वालों की मदद करना देषद्रोह नहीं है। क्रूर फिरंगियों ने बांठियाजी के न्यायोचित निर्भीक उŸार को सुनकर भी अनसुना कर दिया।
फिरंगियों की क्रूरता तब भी कम नहीं हुई। उन्होंने लोगों में खौफ बनाये रखने के लिए ग्वालियर में सर्राफा बाजार स्थित उनके घर के सामने ही नीम के पेड़ की शाखा से लटकाकर खुले में बांठियाजी को फाँसी देने का फैसला किया। फाँसी से पहले भगवान महावीर के वीर उपासक बांठियाजी मन ही मन नवकार महामंत्र का स्मरण कर रहे थे। इस दौरान उनका फन्दा कई बार टूट गया। इससे हैरान होकर फाँसी देने वाले ब्रिगेडियर नैपियर ने अमरचन्दजी से उनकी अन्तिम इच्छा के लिए पूछा। धर्मनिष्ठ श्रावक बांठियाजी ने सामायिक करने की इच्छा जताई। देष के लिए समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करने से पहले उन्होंने सामायिक की और 22 जून 1858 को वे फाँसी के फन्दे पर झूलकर देष के लिए मर मिट गये। उनकी इस शहादत के चार दिन पूर्व ही रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई थीं। फिरंगियों की बर्बरता तब तक भी कम नहीं हुई थी। उन्होंने अमर शहीद बांठियाजी के शव को तीन दिन तक नीम के पेड़ पर ही लटकाये रखने का आदेष दिया। परिजनों ने अंत्येष्टी के लिए पार्थिव शरीर मांगा, लेकिन फिरंगियों ने उनकी मांग ठुकरा दी। फिरंगियों के सिपाही नीम के पेड़ पर लकटते उस पार्थिव शरीर पर पहरा लगा रहे थे। उन तीन दिनों तक, अंत्येष्टी होने तक, उस खौफनाक एवं दुःखद माहौल में बांठियाजी के परिजनों, रिष्तेदारों और देषभक्तों ने अन्न-जल ग्रहण नहीं किया।
स्वतंत्रता सेनानी अमरचन्द बांठिया को इतिहासकारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राजस्थान का प्रथम शहीद माना। उस ऐतिहासिक शहादत का साक्षी वह नीम का पेड़ कुछ समय पूर्व तक विद्यमान था। वर्तमान में वहाँ अमर शहीद अमरचन्द बांठिया की प्रतिमा लगी हुई है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जैन धर्मावलम्बियों का भी तन, मन, धन से सहयोग रहा। इतिहास की किताबों और पाठ्य पुस्तकों में उन्हें भी उचित सम्मान मिलना चाहिये।
- डाॅ. दिलीप धींग, एडवोकेट
(निदेशक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)
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