विशेष आलेख : अहंकार, अपरिपक्वता और असंवेदनशीलता ‘आप’ को ले डूबी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 29 अप्रैल 2017

विशेष आलेख : अहंकार, अपरिपक्वता और असंवेदनशीलता ‘आप’ को ले डूबी

जी हां, एमसीडी चुनाव में प्रचार के दौरान सभाओं में जनता को धमकी देते फिर रहे थे, अगर मोदी-मोदी करोंगे तो फ्री का बिजली-पानी बंद कर देंगे। अगर चुनाव हारा तो ईट से ईट बजा दूंगा। उस वक्त तो दिल्ल्ीवासियों ने उनकी धमकी चुपचाप सहन तो करना ली, लेकिन जब मौका मिला ईवीएम से उनकी ही ईट से ईट बजा दी। कहा जा सकता है केजरीवाल जनता के नायक नहीं खलनायक है, जिसका बदला जनता ने ले लिया है। उनके क्रूरता व आरोपों की राजनीति को जनता ने ठुकरा दिया है। मतलब साफ है केजरीवाल की मनमानी, घमंड उन्हें ले डूबी 




kejriwal-defeat
बेशक, अपनी हर नाकामी का ठिकरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर फोड़ने एवं खुद को छोड़ सबकों को बेईमान बताने वाले अरविन्द केजरीवाल को दिल्ली का जनता ने नकार दिया। परिणाम यह हुआ कि 270 में से मात्र 45 सीटों नी ही जीत मिली। जबकि बीजेपी को 181 व कांग्रेस को 30 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। यानी ‘आप‘ पार्टी के मुखिया एवं मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के भरोसे की अगर जमानत जब्त हुई है तो इसके लिए वह खुद जिम्मेदार है, कोई और नहीं। ईवीएम का दोष देना तो सिर्फ और सिर्फ अपनी खींझ निकालना है। जबकि यह लोकतंत्र की बुनियादी मान्यता है कि जब चुनाव नतीजे आ जाएं तो उसके बाद बहानेबाजी छोड़ कर, आरोप-प्रत्यारोप को छोड़कर  जीतने वाली पार्टी और लोगों के जनादेश का सम्मान करना चाहिए। आप पार्टी से निकाले गए योगेन्द्र यादव खुद कहते है ईवीएम से जुड़े सवाल पर अंगूली उठाना लोकतंत्र से मजाक व खतरा दोनों है। बार-बार ईवीएम पर सवाल खड़े करना बहानेबाजी है, यह एक स्वस्थ पार्टी और एक समझदार नेता की पहचान नहीं है। ईवीएम मशीनों में खराबी का रोना रो कर जनता का दिल नहीं जीता जा सकता। जबकि भाजपा की बिहार व पंजाब छोड़ बाकी राज्यों में लगातार प्रचंड जीत ने यह साबित कर दिया है कि आम जनमानस में राष्ट्रवाद एवं श्रीराम मंदिर मुद्दा घर कर गया है। उसके दिलो-दिमाग मोदी राज कर रहे हैं। इस तिलिस्म को तोड़ने के बजाय विपक्ष अपनी ही वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। ईवीएम मुद्दा एक शिगूफा है, जो विपक्ष को राष्ट्रपति के समक्ष प्रतिनिधिमंडल भेजने और संसद में हंगामा करने के लिए एकजुट कर सकता है। दिल्ली में भाजपा की जीत में कांग्रेस से ज्यादा ‘आप‘ को सोचना होगा कि क्या पारम्परिक राजनीति का मुकाबला महज नाटकीयता और अहंकार से किया जा सकता है और उससे कोई नई राजनीति पैदा की जा सकती है? 


गौर करने वाली बात यह है कि ‘आप‘ कभी संघ परिवार की मदद से जंतर-मंतर पर तिरंगा लहराकर कांग्रेस विरोधी आंदोलन से पैदा हुई थी और बाद में उसने आंदोलन को खत्म करके पार्टी का रूप देने का फैसला किया, तब देश-दुनिया के तमाम आंदोलनकारियों और बौद्धिकों का उसको समर्थन मिला और उन्होंने इस पार्टी में भारतीय लोकतंत्र में आमूल परिवर्तन की संभावना देखी थी। लेकिन, ‘आप‘ के नेता इतने बौने साबित हुए कि सत्त मिलते ही उन्होंने न सिर्फ सिद्धांत और संगठन निर्माण से पल्ला झाड़ लिया बल्कि उन साथियों से भी किनारा कर लिया, जिन्होंने उनके संघर्ष में अपना बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था। सत्ता में आने के बाद भी पार्टी का आंदोलन और टकराव का चरित्र नहीं बदला। शीला दीक्षित को जेल भेजने के वायदे के साथ सत्ता में आई आप ने सरकार बनते ही अपना निशाना कांग्रेस की बजाय बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बना लिया। मोदी पर हमला करते हुए मुख्यमंत्री केजरीवाल ने सारी मर्यादाएं लांघ दीं और उन्हें साइकोपैथ तक करार दिया। सिर्फ पीएम ही नहीं, आम आदमी पार्टी और उसके नेता उपराज्यपाल, मीडिया, दिल्ली पुलिस, चुनाव आयोग तक से लड़ते नजर आए। टकराव की इस राजनीति को दिल्ली की जनता ने ईवीएम मशीन की बटन दबाकर नकार दिया। दिल्ली वालों ने बता दिया कि उसके साथ धोखे व वायदाखिलाफी नहीं चलेगी। दो साल पूरे होने के बावजूद महिला सुरक्षा के लिए पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगवाना, राष्ट्रीय राजधानी को वाईफाई जोन में तब्दील करने, दिल्ली में नए स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोलना, संविदा कर्मचारियों को स्थायी करना जैसे वायदे धरा का धरा ही रह गया। भ्रष्टाचार व बलातकार की घटनाओं पर अंकुश लगाने के बजाय आप पार्टी के विधायक, मंत्री पर ही भ्रष्टाचार व बलातकार से लेकर गुंडागर्दी, जबरन घर-मकान, जमीन कब्जाने के आरोप लगते रहे। कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर की फर्जी डिग्री मामले में आरोप साबित होने के बावजूद उसे अंतिम समय तक बचाते ही रहे। संदीप तोमर की सेक्स सीडी ने तो जैसे पार्टी की छवि का बेड़ा गर्क कर दिया। इसी तरह भगवंत मान का संसद में आचरण और निलंबन, विज्ञापनों पर भारी भरकम खर्च, सरकारी दावत में 12 हजार रुपये की थाली जैसे मुद्दे ऐसे रहे जिसने आम आदमी और गरीबों की बात कर सत्ता में आई पार्टी की छवि को बिल्कुल बदलकर रख दिया। 

केजरीवाल को मंथन करना चाहिए कि अगर पानी माफ, बिजली का बिल हाफ के बाद हाउस टैक्स खत्म करने का लुभावना लालच देने के बाद भी जनता ने नकार दिया है तो वह खुश नहीं है। पहले पंजाब और गोवा, फिर दिल्ली विधानसभा की राजोरी गार्डन सीट और अब दिल्ली नगर निगम हार इस बात का संकेत है झूठ, फरेब, आरोप की राजनीति नहीं चलेगी। आप के लिए सबसे ज्यादा कष्टकारी बात यह है कि उसका वोट प्रतिशत पिछले विधान सभा चुनाव के मुकाबले करीब करीब आधा ही रह गया है। तब उसके हिस्से में 53 -54 फीसद वोट आया था लेकिन अब उसके हिस्से में 25-25 फीसद ही आ रहा है। आप उन वार्डों में भी हार गयी है जो झुग्गी झोपड़े के लिए जाने जाते हैं। झुग्गी वाले तो अरविंद केजरीलाल को अपना मसीहा मानते थे। आप वहां भी हार गयी है जो मध्यम वर्ग वोटरों के वार्ड जाने जाते हैं। यह वर्ग मुफ्त पानी और सस्ती बिजली बिल के लिए केजरीवाल का शुक्रिया अदा करता रहा है। आप मुस्लिम बहुल वार्डों में भी हारी जो पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को छोड़कर उसके पास चला गया था। यहां तक कि उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के विधानसभा क्षेत्र पटपड़गंज के चार वार्डों में भी आप को हार का सामना करना पड़ा। जबकि भाजपा ने हैट्रिक लगा दी है। तीनों एमसीडी की 270 सीटों में से 181 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की है। 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में 67 सीटों के साथ रिकॉर्ड जीत हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर की पार्टी बन गई है। कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा और वह इस चुनाव में तीसरे नंबर पर रही।  


कहा जा सकता है आम आदमी पार्टी पर जब भी सवाल उठे तो पार्टी नेताओं ने ईमानदारी से उसका जवाब देने की बजाय आक्रामक तरीके से पलटवार करने का रास्ता चुना। उसके नेता टीवी चैनलों पर बहस के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ-साथ एंकरों-पत्रकारों से भी उलझते रहे। मीडिया को बिकाऊ बताना उनका पसंदीदा जुमला बन गया। उनके इस आचरण ने विपक्ष का काम आसान कर दिया। चुनाव नतीजों के एक दिन पहले खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ये कहना है कि अगर नतीजे उनके पक्ष में नहीं आए तो वो ईंट से ईंट बजा देंगे अपने आप में दंभ की पराकाष्ठा थी। इसमें कोई शक नहीं कि आम आदमी पार्टी ने पिछले दो साल के अपने कार्यका ल में बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं पर उल्लेखनीय काम किया है लेकिन उसके बावजूद अगर दिल्ली की जनता उसे नकारती जा रही है तो इसका मतलब साफ है कि पार्टी के नेता इन कामों के फायदे जनता तक पहुंचाने में नाकाम रहे हैं। ये सब तब हुआ जब पार्टी ने प्रचार पर भारी भरकम खर्च किया। फिरहाल, आम आदमी पार्टी को एमसीडी चुनाव से खासी उम्मीदें थी। लेकिन दिल्ली की जनता के फैसले ने इनपर पानी फेर दिया है। अपने ही गढ़ में मिली मात के बाद अब अरविंद केजरीवाल के लिए सियासी राह और कठिन हो गई है। अपने जन्म के बाद से ही आम आदमी पार्टी असंतुष्टों का सामना करती रही है। पार्टी से बाहर जाने वाले नेताओं का सिलसिला शायद ही कभी थमा है। इस हार के बाद पार्टी के भीतर दरारें और गहरी हो सकती हैं। कई और नेता हवा का रुख भांपते हुए बीजेपी या कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं। अब तक केजरीवाल निर्विवादित तौर पर आम आदमी पार्टी के नंबर-1 नेता रहे हैं। ये मुमकिन है कि इस हार के बाद पार्टी के भीतर केजरीवाल के नेतृत्व और काम करने के तरीकों पर कुमार विश्वास जैसे नेता सवाल उठाएं। पार्टी के नेता भगवंत मान नतीजे आने के बाद पार्टी पर सवाल उठा भी चुके हैं। अन्ना हजारे ने खुद कहा है कि केजरीवाल की कथनी-करनी में अंतर है। आप पार्टी की हार का मुख्य कारण है चुनाव से पहले जनता से जो वादे किए थे उसे पूरा करने के बजाय खुद बंगला, गाड़ी, सैलरी हथियाने लगे। 




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(सुरेश गांधी)

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