आलेख : हर “वीआईपी कल्चर” पर लगे प्रतिबंध - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 22 अप्रैल 2017

आलेख : हर “वीआईपी कल्चर” पर लगे प्रतिबंध

सरकार वाकई वीआईपी संस्कृति समाप्त करना चाहती है तो उसे सिर्फ लाल बत्ती ही नहीं, बल्कि मंत्रियों व अधिकारियों के बड़े बड़े बंगले, सरकारी बैठकों व सेमिनारों, संसद और धान सभा समितियों के दौरों और सुरक्षा के नाम पर होने वाले करोड़ों-अरबों के खर्च पर भी प्रतिबंध लगानी होगी। माना लाल बत्ती हटाकर गैर लोकतांत्रिक तौर तरीकों पर चोट तो की गयी है, लेकिन इसकी सार्थकता तभी होगी जब हर तरह के वीआईपी संस्कृति पर रोक लगे 





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बेशक, मोदी कैबिनेट ने देश भर में लालबत्ती के इस्तेमाल पर रोक लगाकर साबित कर दिया है कि उसकी निगाह में हर नागरिक विशिष्ट है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या लाल बत्ती पर रोक लगा देने से यह समानता आ पायेगी, जैसा मोदी सोच व बोल रहे हैं? जवाब होगा नहीं, क्योंकि लाल बत्ती ही नहीं बल्कि मंत्री-अफसर समेत अन्य तरह के जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा से लेकर उनके रहने, खाने एवं आवागमन पर भी हर साल लाखों करोड़ों फूंका जाता है। मतलब साफ है नव सामंतवाद का प्रतीक बन चुके इस वीआईपी कल्चर को खत्म करने के लिए लाल बत्ती के साथ साथ बाकी के भी सुख सुविधाओं पर रोक लगानी होगी। मंत्री, सांसद, विधायकों व अफसरों के बंगले, उनके ठहरने तथा आवागमन, बैठकों सेमिनारों समेत अन्य सुविधाओं के नाम पर होने वाले करोड़ों के खर्च पर भी नकेल कसनी होगी। क्योंकि इन पर होने वाला खर्च आखिर भुगतना तो आम जनता को ही पड़ता है। संसद और विधानसभा की समितियों के दौरों पर खर्च होने वाली राशि को जोड़ी जाएं तो यह रकम खरबों में पहुंचती है। विशिष्ट लोगों की सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में पुलिस बंदोबस्त का क्या कहना, यहां तक की एक्स, वाई और जेड श्रेणी की विशिष्ट सुरक्षा को भी मनमाने तरीके से इन मंत्री-विधायकों, सांसदों व अफसरों को मुहैया कराने के नाम पर लाखों-करोड़ों खर्च किया जाता है। जबकि हर एक लाख भारतीयों की सुरक्षा पर महज 137 पुलिसकर्मी हैं। कहा जा सकता है रंगीन बत्तियां हटाकर गैर लोकतांत्रिक तौर तरीकों पर चोट तो की गयी है, पर सबसे जरुरी है मंत्रियों, विधायकों, अफसरों समेत आला लोगों और आम नागरिकों में समानता को लेकर सकारात्मक सोच पैदा हो। मौजूदा फैसले ने सोच के लिए एक नई जमीन बनाई है, जिस पर हम अपने लोकतंत्र को हम और मजबूत बना सकते हैं। 

बता दें, लाल बत्ती पर रोक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर भी लागू होगी। आपात सेवा के वाहन जैसे पुलिस, फायर बिग्रेड और एंबुलेंस को नीली बत्ती लगाने की छूट रहेगी। यह फैसला देश के सभी राज्य सरकारों पर लागू होगा। सरकार मोटर व्हीकल एक्ट के उस प्रावधान को खत्म कर रही है जो केंद्र-राज्य के कुछ लोगों को लालबत्ती का हक देता है। कहा जा सकता है लाल बत्ती का किस्सा खत्म कर देना केंद्र सरकार का एक हनकदार फैसला है। लेकिन जरूरत सिर्फ इस फैसले के रूप को नहीं, इसकी आत्मा को स्वीकार करने की है। हकीकत में यह तब नजर आएगा, जब खासकर सत्तारूढ़ दलों के नेता हर मौके पर धीरज के साथ अपनी बारी आने का इंतजार करेंगे। हालत यह है कि जिस दिन लाल बत्ती हटाने का फैसला टीवी की सुर्खियों में था, उसी दिन यह खबर भी चल रही थी कि बीजेपी के एक विधायक ने एक टोल बूथ पर खुद को तुरंत आगे न निकलने देने से नाराज होकर एक टोलकर्मी को थप्पड़ मार दिया। समय आ गया है कि राजनेताओं के दिमाग में जल रही इन लाल बत्तियों को भी तुरंत प्रभाव से उतरवा दिया जाए। याद रहे, सुप्रीम कोर्ट ने लाल बत्ती कल्चर पर नाराजगी अब से चार साल पहले जताई थी। फिर यह निर्देश भी दिया था कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और राज्यों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को छोड़कर और किसी को भी गाड़ी पर लाल बत्ती लगाकर चलने की इजाजत न दी जाए। लेकिन अदालती फैसलों और निर्देशों को टालने की स्थापित सरकारी परंपरा के तहत इसे कहीं भी सख्ती से लागू नहीं किया गया। इस दिशा में अगला कदम उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने उठाया, और अब केंद्र सरकार ने आगे बढ़कर मोटर वीइकल्स एक्ट के नियम 108 (1) और 108 (2) में बदलाव करके लाल बत्ती वाली गाड़ियों को ट्रैफिक नियमों से छूट देने की व्यवस्था ही खत्म कर दी। इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग राज्यों की राजधानियों में देखने को मिल रहा था, जहां सत्तारूढ़ दलों के छुटभैये नेता भी अपनी गाड़ियों पर लाल बत्ती और हूटर लगाकर चल रहे थे। बदलाव का अगला चरण यह हो सकता है कि वीआईपी राजनेताओं के साथ चलने वाले गाड़ियों के काफिले का आकार निश्चित किया जाए। वीआईपी कल्चर खत्म करने से देश में कोई बड़ा बदलाव भले न आए, पर इससे आम लोगों के मन से खास लोगों का खौफ कुछ कम जरूर होगा।


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फिरहाल, केंद्रीय कैबिनेट में लालबत्ती पर बैन के फैसले ने वीआईपी कल्चर को लेकर नये सिरे से बहस छेड़ दी है। आम भारतीय जनमानस में वीआईपी की जो छवि है, उसमें लालबत्ती सबसे पहले आती है। लालबत्ती का एक प्रतीकात्मक महत्व है, जो पुराने जमाने के सामंतवाद से मेल खाती है। लालबत्ती के अलावा कारों का काफिला, सायरन का उपयोग कई ऐसी चाजें है, जो वीआईपी कल्चर के प्रतीक है। भारत में वीआईपी कल्चर की जड़े काफी गहरी है। देश आजाद होने के बाद उसकी जड़ें और भी गहरी होते गयी लेकिन दुनिया के कई अन्य देश हैं, जहां यह खत्म होने के कगार पर है। स्वीडन और नार्वे जैसे देशों में वीआईपी कल्चर लगभग नहीं के बराबर है। वहां प्रधानमंत्री आम ट्रेनों में सफर करते हैं। बिना काफिला के एक जगह से दूसरे जगह जाते हैं। कॉफी शॉप के दुकानों में आम शख्स के साथ बैठकर बातें करते हैं। यह अलग बात है दुनिया में बढ़ते आतंकी खतरों को देखते हुए लोग सुरक्षा कर्मी अपने साथ रखते हैं। नीदरलैंड्स की गिनती दुनिया के सबसे अमीर देशों में होती है और कुल घरेलू उत्पाद में उसका स्थान दुनिया में 16वां है। लेकिन उनके प्रधानमंत्री देश में ही नहीं विदेशी दौरों में भी पूरी कोशिश करते है कि वो साइकिल पर ही चलने की परंपरा जारी रखें। दुनिया के सबसे ताकतवर समझे जाने वाले देश अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के दौरान कई बार वाशिंगटन और दूसरे शहरों के प्रमुख रेस्तराओं में खाना खाया है। वो कई बार वाशिंगटन के ‘बेंस चिली बोल‘ में अपने परिवार के साथ खाना खाते देखे गए हैं। अपनी वियतनाम की सरकारी यात्रा के दौरान ओबामा ने अपनी गाड़ियों का काफिला रुकवा कर हनोई के एक मामूली रेस्तरां में प्लास्टिक के स्टूल पर बैठ कर वहां के मशहूर व्यंजन ‘बन शा‘ का आनंद लिया था। क्या इस बात की कल्पना भी की जा सकती है कि भारत के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री देश के किसी रेस्तरां में खाना खाएंगे?

यहां जिक्र करना जरुरी है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ कोई लाव-लश्कर नहीं चलता था। सिर्फ मोटर साइकिल पर सवार होकर एक सुरक्षाकर्मी पायलट के तौर पर चला करता था। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी की कार के साथ भी सिर्फ एक अतिरिक्त कार चलती थी और सड़क पर चलने वालों के लिए ये देखना आम बात होती थी कि भारत की प्रधानमंत्री अपनी कार में फाइलों को पढ़ती हुई चली जा रही है। एक बार भारत के तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के पास अपनी गाड़ी रुकवा कर गन्ने का रस पिया था। लेकिन इसके बाद तो हालात बदलते चले गए। एक अनुमान के अनुसार इस समय भारत में कुल वीआईपी की संख्या पांच लाख 79 हजार से ऊपर है। जबकि ब्रिटेन में सिर्फ 84, फ्रांस में 109 और चीन में मात्र 425 वीआईपी हैं। भारत में राजनेताओं के अलावा नौकरशाह, जज, सैनिक अधिकारी और यहां तक कि फिल्म कलाकार भी वीआईपी स्टेटस पाने की होड़ में शामिल हैं। सेना के अफसरों की देखादेखी अब पुलिस अधिकारी भी अपनी कार पर स्टार लगाने लगे हैं। सेना में ब्रिगेडियर स्तर का अधिकारी भी एस्कॉर्ट कार के साथ चल रहा है। अक्सर ऐसे लोग भी वाहनों में बत्ती और सायरन लगाते है, जिन्हें कानूनी अधिकार नहीं हैं। लेकिन सवाल है कि हमारे सत्ता तंत्र और समाज में गहरे तक पैठ बना चुके वीआईपी कल्चर का खात्मा क्या इस एक पहल से हो जायेगा, नहीं। क्योंकि बड़े ओहदे से हट जाने या सेवा निवृत्त हो जाने के बाद लोग पद नाम के साथ पूर्व लिख कर गाड़ियों के बोनट पर टांगना अपनी शान समझते हैं। शहरों और कस्बों में ऐसी कारें दिख जाती है जिन पर विधायक पुत्र जैसे स्टीकर चिपके होते हैं। टोल प्लाजा, पार्किंग और ट्रैफिक में रोके जाने पर किसी नेता या बड़े अधिकारी का संबंध होने का धौंस दिखाना जैसे यहां सगल बन गया है। सरकारी गाड़ियों का इस्तेमाल परिवारीजन धड़ल्ले से करते हैं। बारात और उत्सव में भी बत्ती चमकाना आम बात हैं। सड़कों पर जब कोई वीआईपी गुजरता है तो बहुधा आम वाहनों के साथ मरीज ले जा रही एम्बुलेंस को भी रोक दिया जाता है। इस संस्कृति पर भी लगाम लगानी होगी। 



(सुरेश गांधी)

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