मजदूर दिवस: मालिक मालामाल, मजदूर फटेहाल - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 3 मई 2017

मजदूर दिवस: मालिक मालामाल, मजदूर फटेहाल

मालिक मजदूर का चोली-दामन का साथ है। बगैर एक-दुसरे के कोई एक कदम भी नहीं चल सकता। लेकिन मालिक मालामाल होते चले जा रहे है, मजदूर जस का तस फटेहाल मुफलिसी की जिंदगी जीने को विवश है। मजदूरों की वही स्थिति है जो आजादी के पूर्व थी। इतने सालों बाद भी अगर मजदूरों में कोई बदलाव नहीं आया तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? प्रधानमंत्री, नीतियां और कानून! या फिर राजनीतिक उपेक्षा! हो जो भी सच तो यह है कि इसके लिए कहीं न कहीं देश में गंदी राजनीति ही मजदूरों को हासिए पर ला खड़ा किया है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है, फिर किस आधार पर राजनेता देश को औद्योगिक राष्ट्र बनाने का सब्जबाग दिखाते हैं, जबकि करोड़ों मजदूर कष्ट में हैं?





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जी हां! हर साल की तरह पहली मई को एक और मजदूर दिवस दिवस बित जायेगा। नेता से लेकर मंत्री-अफसर तक मजदूरों के हक में लंबी-लंबी डींगे हाकेंगे। लेकिन इस दिवस की उन लाखों-करोड़ों मजदूरों के लिए कोई अहमियत नहीं है जो रोज कमाते-खाते हैं। मजदूरों की बड़ी आबादी इस दिन काम की तलाश में भटक रही होगी। यह दिवस तो सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं और बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों के लिए है। वे ही विभिन्न तरीकों से इस दिवस को सार्थक बनायेंगे। जबकि मजदूर चिलचिलाती धूप में मिट्टी और सीमेंट में सन कर भूखे-प्यासे किसी निर्माण कार्य में लगे होंगे। नारा था- ‘दुनिया के मजदूरों एक हों’ लेकिन इसके बदले में दुनिया भर के पूंजीपति एकजुट हो गए। आज हालत यह है कि कभी 1 मई को पूरे विश्व में किसी त्योहार की तरह धूमधाम से मनाया जाने वाला ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ यानी मई दिवस महज एक रस्म बन कर रह गया है, जबकि दुनिया भर के मजदूरों का घोषित-अघोषित ठेका वामपंथियों ने ही ले रखा है। हालात यहां तक पहुंच गयी है कि हरियाणा के श्रम राज्य मंत्री नायब सिंह सैनी जैसे लोग कहते है पहली मई को मजदूर दिवस नहीं मनाएंगे। मजदूर दिवस विश्वकर्मा दिवस पर मनाया जाएगा जो दीवाली के अगले दिन होता है। क्योंकि विश्वकर्मा जी, जिनके नाम से इस सृष्टि की रचना हुई, जिन्होंने इस सृस्टि का निर्माण किया है, ऐसे व्यक्ति के नाम से हम यह दिवस मनाए तो यह सबके लिए बड़ा अच्छा रहेगा। उनका मकसद यह है कि जिसने संसार की रचना की है, उस व्यक्ति के नाम पर हमें कुछ करना चाहिए। स्थिति तो यहां तक पहुंच गयी है कि इक्का-दुक्का कर्मकांड छोड़ दें तो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मजदूर दिवस पर खबरें तो दूर चर्चा तक नहीं होती, जबकि इनमें काम करने वाले भी अधिकांश त्रिशंकु मजदूर ही हैं। ये न संगठित क्षेत्र में आते न असंगठित क्षेत्र में। सोशल मीडिया में जरूर कुछ वामपंथी सिम्पैथाइजर हुंकार भरते और क्रांतिकारी कविताएं पोस्ट करते नजर आ जाएंगे। लेकिन सोशल मीडिया की गली से कौन-सा मजदूर गुजरता है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। 

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मौजूदा उत्पादन प्रणाली ने तो खुद मजदूरों को इस बात का भान नहीं रहने दिया कि यह पूरे विश्व के मेहनतकशों की जीत का दिन है। एसी कमरों में बैठे चंद एहसानफरामोश भी भूल गए कि आठ घंटा काम करने का सुख वे इसी ‘मजदूर दिवस’ की बदौलत भोग रहे हैं। बात इस एक दिन की छुट्टी की भी नहीं है। छुट्टी तो हमारे यहां बीच सड़क पर क्रिकेट खेलने का सुनहरी मौका लेकर आती है। बात इस दिवस के महत्त्व और महानता की है जो हमें मई 1886 में शिकागो के हेमार्केट स्क्वैयर में हुए उस आन्दोलन की याद दिलाता है, जिसमें मजदूर वर्ग ने कई सालों के अपने जुझारू संघर्षों की जीत के रूप में आठ घंटे का कार्यदिवस हासिल किया था और अपने 4 शीर्ष नेताओं की फांसी देखी थी। आज 130 सालों बाद भी हेमार्केट स्मारक पर खुदी हुई यह इबारत पढ़ी जा सकती है- ‘वह दिन जरूर आएगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से भी ज्यादा बुलंद होगी जिन्हें आज तुम दबा रहे हो।’ विडंबना यह है कि ‘अखिल भारतीय पूंजीपति संघ’, ‘पूंजीवादी ट्रेड यूनियन’ अथवा ‘इंटरनेशनल कैपिटलिस्ट फोरम’ जैसी कोई काल्पनिक संस्था तक हमने कभी नहीं देखी-सुनी फिर भी प्राकृतिक संसाधनों एवं करदाताओं के पैसों की लूट के लिए मामला गिरोहात्मक क्रोनी कैपिटलिज्म तक जा पहुंचा है। दूसरी तरफ भारत में मजदूरों को जोड़ने के लिए कम से कम 11 संगठन ऐसे हैं जिन्हें केंद्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है। इन संघों और यूनियनों का दावा मजदूरों की भलाई करने का है लेकिन मजदूरों की सूखी रोटी के नाम पर इन्होंने हमेशा मलाई चखी है। भारत के मजदूरों को एक करने की जगह इन्होंने मजदूरों की बंदरबांट कर डाली। इन यूनियनों और संघों ने मजदूरों को मजदूर नहीं रहने दिया बल्कि उन्हें उनके धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की चिलमन में बिठाकर गहरी फूट डाली तथा उन्हें वामपंथी और दक्षिणपंथी जमूरों में बदलकर राज करने की कोशिश की। यह चमत्कार करने वालों में भारतीय मजदूर संघ, हिंद मजदूर संघ, आल इंडिया ट्रेड यूनियन, लेबर प्रोग्रेसिव यूनियन, इंडियन ट्रेड यूनियन, इंडियन ट्रेड यूनियन काउंसिल, सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन, टेलीकॉम प्रोग्रेसिव यूनियन आदि शामिल हैं। 


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12 से 14 घंटे तक काम करने को मजबूर 
साल 2012 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में मजदूरों की कुल संख्या 4 करोड़ 87 लाख थी जिनमें 94 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र के थे। इनके उद्धार का दावा करने वाले श्रमिक संगठनों की संख्या भी हजार से ऊपर है, लेकिन मजदूरों की जिंदगी ‘राम की गंगा’ से भी बदतर है। आज असंगठित क्षेत्र का मजदूर 12 से 14 घंटे तक काम करने को मजबूर है। उसकी कोई मजदूरी तय नहीं है। ठेकेदार (कॉंट्रैक्टर) मजदूर की मजबूरी का फायदा शीतल छाया में बैठकर उठाते हैं। बैंक जाकर पेंशन उठाना मजदूर के सपने में भी नहीं आता। उसके लिए सातों दिन भगवान के हैं। जिस दिन काम पर नहीं निकलेगा उस दिन बीवी-बच्चों के साथ उसका भूखा सोना तय है। सामाजिक सुरक्षा किस चिड़िया का नाम है, उसे नहीं पता। अशिक्षित होने के चलते उसे हर दम असुरक्षा सताती रहती है। यह भारत की 94 प्रतिशत असंगठित लेबरफोर्स का हाल है। बाकी बचे 6 प्रतिशत संगठित क्षेत्र के मजदूरों को भी हूरों के सपने नहीं आते। वे सरकार द्वारा चलाए जा रहे निजीकरण के बुल्डोजर से हर पल भयभीत रहते हैं। वीआरएस के हथियार से उन्हें किसी भी वक्त कत्ल किया जा सकता है। काम के बोझ से उनकी कमर कमान बनी रहती है लेकिन कम तनख्वाह की महाभारत खत्म होने का नाम नहीं लेती। ऊपर से उन्हें छोटे-छोटे लाभों से वंचित रखने की साजिशें लगातार चलती रहती हैं। 

1886 से मनाया जा रहा है मजदूर दिवस 
केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मजदूर दिवस की महत्ता को समाप्त करना चाह रही है, जोकि दुनियाभर के करोड़ों मजदूरों के बलिदान का प्रतीक है। बड़ी शहादत के बाद मजदूर दिवस पर खेतों, कारखानों, फैक्ट्रियों और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने का अवसर होता है, परंतु इस पर भी पाबंदी लगाना कहीं कहीं गरीब लोगों का शोषण करना है। जबकि मजदूर कड़ी मेहनत कर देश और समाज के विकास में योगदान भी करता है, लेकिन मजदूर की ओर किसी का कोई भी ध्यान नहीं हैं। बता दें, अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर दिवस की शुरुआत 1 मई 1886 से हुई। इस दिवस को मनाने के पीछे उन मजदूर यूनियनों की हड़ताल है जो कि आठ घंटे से ज्यादा काम ना कराने के लिए की गई थी। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेय मार्केट में बम ब्लास्ट हुआ था। जिससे निपटने के लिए पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी जिसमें सात मजदूरों की मौत हो गई। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में जब फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए। साथ ही अमेरिका में मात्र 8 घंटे ही काम करने की इजाजत दे दी गई। भारत में मजदूर दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर मनाया जाता था भारत समेत लगभग 80 मुल्कों में यह दिवस पहली मई को मनाया जाता है। इस दिन देश के अस्सी देशों में छुट्टी रहती है। यूरोप में यह दिन ऐतिहासिक रूप से ग्रामीण पगन त्‍योहारों से जुड़ा है। भारत में पहली बार 1 मई 1923 को हिंदुस्तान किसान पार्टी ने मद्रास में मजदूर दिवस मनाया था। 

निरर्थक है मजदूर संगठनें 
मजदूरों के कल्याण के लिए सरकारें और यूनियनें तरह-तरह की योजनाएं बनाने का दम भरती हैं लेकिन आज आप किसी भी शहर में चले जाइए, मजदूरों के श्रम का शोकगीत सुबह से शाम तक बजता रहता है। चैक-चैराहों पर ये भेड़-बकरियों की तरह झुंड में खड़े मिल जाएंगे। इनमें कुशल कारीगर और अकुशल श्रमिक सब मिल जाएंगे। अपने बच्चों को कटहल की तरह गले से टांगे श्रमिक महिलाएं खड़ी दिख जाएंगी। गर्मी हो, ठंड हो या बारिश, काम के इंतजार में खड़े रहना इनकी मजबूरी है। ये भवन निर्माण, पल्लेदारी, पत्थर तोड़ने, रेत-गिट्टी उठाने, ईंट बनाने से लेकर घर की नालियां साफ करने तक के लिए खुद को सपर्पित किए रहते हैं। इनके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमदेव जयते’ कार्यक्रम का कोई अर्थ नहीं है। भले ही धूप में पसीना बहाते किसी ‘श्रमदेव’ का नाम दीनदयाल ही क्यों न हो! पीएम साहब ने 2014 में ‘श्रम सुविधा’ नामक एकीकृत श्रम पोर्टल तथा पीएफ के लिए यूनिवर्सल एकाउंट नंबर और यूनिक लेबर आइडेंटीफिकेशन नंबर जारी करने की शुरुआत भी की थी लेकिन ट्विटर एवं तकनीक प्रेमी पीएम साहब को शायद यह भान नहीं है कि जो मजदूर अपने बाप का नाम तक नहीं लिख पाता हो। उसके सामने इन हाईटेक फुलझड़ियों का क्या औचित्य है! उन्हें समझ लेना चाहिए कि राजीव गांधी वाले 100 में से 10 पैसे वाले डायलॉग की ही तरह दिल्ली में बैठे आला अफसरान द्वारा रची गई ऐसी तमाम कल्याणकारी योजनाएं मजदूर तक पहुंचते-पहुंचते अकल्याणकारी हो जाती हैं।

महत्वहीन है श्रम कानून 
विश्व बैंक की नई रिपोर्ट बताती है कि भारत के श्रम कानून दुनिया के सर्वाधिक अवरोधी कानून हैं। ये लाइसेंस राज के पिट्ठू का काम करते हैं। यह बात काफी हद तक सच भी हो सकती है क्योंकि आज केंद्र सरकार के पास श्रम से संबंधित 50 और राज्य सरकारों के पास करीब 150 विभिन्न तरह के कानून हैं. कुछ कानून तो ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने के भी हैं। लेकिन विश्व की अंधाधुंध अराजक पूंजी को भारत में लाने और संगठित मजदूरों की कमर तोड़ कर असंगठित क्षेत्र की संख्या बढ़ाने में कानून बाधा बनेंगे तो यह विश्व बैंक को खटकेगा ही। आखिरकार एनडीए सरकार की मंशा के तहत भारत साल 2020 तक विश्व की अधिकाधिक लेबर जरूरतें पूरी करने का बीड़ा जो उठा चुका है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो केंद्र सरकार भारत को कृषि प्रधान देश की जगह मजदूर प्रधान देश बनाना चाहती है। उसे तथाकथित कुशल श्रमिकों की यह सच्चाई नहीं मालूम कि देश भर के सैकड़ों इंजीनियरिंग और आईटीआई संस्थान अनाड़ियों की ऐसी फौज तैयार कर रहे हैं, जिन्हें कुशलता से एक कील ठोकना भी नहीं आता। नास्कॉम की ताजा रपट में ऐसे संस्थानों को कुकुरमुत्ता बताया गया है। इन अधकचरा उत्पादों को विश्व बैंक के भक्त तक नहीं पूछने वाले! वामपंथियों, दक्षिणपंथियों और उनकी ट्रेड यूनियनों के अलावा सरकारें भी समय-समय पर श्रम सुधार की कसरत करती नजर आती हैं तथा इसके नाम पर अब तक भारत में दो आयोग भी बन चुके हैं। 

नरेगा से है उम्मीदें 
यह अलग बात है कि दूसरे आयोगों की परंपरा के अनुसार इन आयोगों की सिफारिशों को भी कूड़ेदान में शरण मिली। पिछले लगभग 2 दशकों में सरकारों ने मजदूरों के पेट का ध्यान रखकर भोजन का अधिकार, काम का अधिकार, नरेगा और अन्य योजनाओं की फसल बोई लेकिन मजदूरों को अपने पैरों पर खड़ा होने का कोई ठोस काम किसी ने नहीं किया। मजदूरों को कुशल बनाने, पेशे के अनुसार उनको आधारभूत शिक्षा देने, उनके काम की जगहों को सुरक्षित बनाने तथा ‘पसीना सूखने से पहले मजदूर की मजदूरी मिलने’ का कोई मंजर नजर नहीं आता। सरकारें योजनाओं को जमीन पर लागू करने वालों की नीयत नहीं बदल पाईं और ट्रेड यूनियनों में यह दम नहीं कि मालिक को अपना दफ्तर चमकाने की जगह मजदूर का जीवन चमकाने पर मजबूर कर सकें। ऐसे में साम्यवादी मजदूर को पूंजीवाद के चंगुल से निकलने के लिए यह सामंतवादी दर्शन खुद समझना होगा कि बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं मिलता। सब स्वारथ के साथी हैं। उसे अपनी मुक्ति और संघर्ष का रास्ता खुद तय करना होगा। यह मुक्ति अकेले संघर्ष करके नहीं मिल सकती क्योंकि हमेशा की तरह दुश्मन आज भी बेहद ताकतवर है। इस संघर्ष का सही रास्ता उसे ‘मजदूर दिवस’ की विरासत और शहादत ही दिखा सकती है। 




(सुरेश गांधी)

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