विशेष : चंबल घाटी मे हिमालियन गिद्ध बना रहे है बसेरा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 14 जून 2017

विशेष : चंबल घाटी मे हिमालियन गिद्ध बना रहे है बसेरा

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इटावा 13 जून, खूंखार डाकुओं की कभी पनाहगाह रही चंबल में एक वक्त खासी तादात में गिद्ध पाये जाते थे। वक्त की मार ने यहां से गिद्धों का सफाया कर दिया लेकिन एक बार फिर से चंबल में गिद्धों के अाने का सिलसिला शुरु हुआ है। इस दफा हिमालियन गिद्ध यहां अपना बसेरा बना रहे हैं जो उनकी वापसी के शुभ संकेत दिख रहे हैं। इटावा स्थित सामाजिक वानिकी की लखना रेंज के उप रेंज अधिकारी विवेकानंद दुबे ने  बताया कि चंबल इलाके में संकेत मिले हैं जिससे यह बात स्पष्ट रुप से कही जा सकती है कि हिमालियन इलाके में पाये जाने वाले गिद्ध चंबल को अपना बसेरा बना रहे रहे है।  गत छह जून को लवेदी क्षेत्र के महात्मा गांधी इंटर कालेज परिसर में मिले दुर्लभ प्रजाति के गिद्ध का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि यह गिद्ध आम गिद्धों से अलग हट कर है क्योंकि इस इलाके में पहले जो गिद्ध पाये जाते थे वे इस गिद्ध से अलग थे। उन्होंने बताया कि लवेदी मे मिला यह गिद्ध करीब छह माह से अधिक का नहीं लग रहा है अभी यह बच्चा ही है इसके फोटोग्राफ पर्यवर्णीय विशेषज्ञों के अलावा वन अधिकारियों को भेजे गये। अधिकारियों ने इसकी पुष्टि हिमालियन गिद्ध के तौर पर की है। फिलहाल इस गिद्ध को लखना वन रेंज पर पूरी तौर पर सुरक्षित रखा गया है । इसकी भोजन की पूरी व्यवस्था की जा रही है । इस गिद्ध को बकरे का मांस दिया जा रहा है ।


पहले दिन जब इसे यहां लाया गया था तब इसमें इतनी तीव्रता नहीं थी लेकिन अब काफी सख्ती का एहसास किया जा रहा है क्योंकि एक दिन इसको छोड़ दिया गया तो पकडने के लिए काफी मशक्कत करनी पडी । इसी कारण इसको जब अब बाहर निकाला जाता है तो फिर प्लास्टिक की रस्सी से बांधकर रखा जाता है क्योकि भाग जाने पर कुत्ते आदि इसको शिकार बना सकते हैं। श्री दुबे ने बताया कि लखना रेंज के ही सारंगपुरा के बीहडों में भी पिछले साल 23 दिसंबर को इसी प्रजाति का एक विशाल गिद्ध मिला था जो चलने फिरने से काफी लाचार था । माना जा रहा है कि उसे जंगली जानवरों के झपट्टे के बाद चोट आई होगी । तब यह माना गया था कि हिमालयी इलाके से भटककर चंबल में यह गिद्ध आ पहुंचा है लेकिन 25 दिसंबर को उसकी मौत हो गई थी । यह गिद्ध करीब आठ फुट लंबा और 15 किलो वजन का था। उन्होंने बताया कि 23 दिसंबर को यह गिद्ध बकेवर इलाके के सांरगपुरा गांव के पास देखा गया जो चलने फिरने की स्थिति में नहीं था जिसे वन विभाग के कर्मचारियों ने अपने कब्जे में लेने के बाद उपचार करवाया लेकिन उसकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ । बाद में इटावा जिला मुख्यालय पर पशु चिकित्सा केंद्र में उसका पोस्टमार्टम कराया गया था । श्री दुबे का दावा है कि छह जून को चलने में अस्मर्थ जो गिद्ध मिला है वो इसी इलाके में कहीं जन्मा है क्योंकि जितना छोटा यह गिद्ध है वह हिमालियन क्षेत्र से भटककर चंबल इलाके तक नहीं आ सकता है। गत 23 दिसंबर को मिले गिद्ध से निश्चित तौर पर इसको कोई ना कोई कनेक्शन माना जा सकता है । यह गिद्ध उसी परिवार का सदस्य हो सकता है ।

उनका दावा है कि किसी हिमालियन गिद्ध का परिवार चंबल में अपना घाेंसला बनाया है जिसकी यह प्रजाति यहॉ पर देखी जा रही है । उन्होंने कहा कि वनकर्मी गिद्ध के आशियाने को खोजने की कोशिश करेंगे। इस गिद्ध को एक दरोगा के साथ पकडने गये वन कर्मी श्रीराम का कहना है कि यह गिद्द एक बार में करीब 250 ग्राम मांस खा रहा है और फिलहाल पूरी तरह से स्वस्थ है । उनका कहना है कि पिछले दिनों मृत्यु मौत का शिकार हुआ गिद्ध भी इसी से जुडा हुआ लग रहा है। इटावा के आसपास पर्यावर्णीय दिशा में काम करने वाले सोसाइटी फार कंजर्वेशन संस्था के सचिव संजीव चौहान का दावा है कि ऐसा हो सकता है कि सर्दी के मौसम में हिमालय क्षेत्र से किसी तरह गिद्ध का जोडा चंबल में आ गया और बाद में उसने यहॉ पर प्रजनन करने के बाद इस बच्चे को जन्म दिया हो । यह बच्चा उसी का हो और जिस युवा गिद्ध की मौत हो गई है वो उस गिद्ध परिवार का मुखिया हो। सफाईकर्मी के रूप में प्रचलित गिद्ध पर संकट 1990 के बाद से शुरू हुआ माना जाता है । चंबल में इससे पहले 2003 तक गिद्धों की तीन प्रजातियों को देखा जाता रहा है, इनमें लांगबिल्डबल्चर, वाइटबैक्डबल्चर, किंगबल्चर है,जो बड़ी तेजी से विलुप्त हुये जबकि इजफ्सियनबल्चर लगातार देखे जाते रहे हैं, इन पर किसी तरह का प्रभाव नजर नहीं आया। गिद्ध के संरक्षण की दिशा में काम कर रही वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन की पहल के बाद वर्ष 2002 में इसे वन्य जीव अधिनियम के तहत इसके शिकार को प्रतिबंधित करते हुए इसे शेड्यूल वन का दर्जा दिया गया। अस्सी के दशक में एशियाई देशों में गिद्धों की सर्वाधिक संख्या भारत में ही थी। शोध के मुताबिक भारत, नेपाल और पाकिस्तान में गिद्धों की संख्या सिमट कर महज तीन हजार रह गई है जबकि अस्सी के दशक में गिद्धों की संख्या साढ़े आठ करोड़ थी। जानकार बताते हैं कि जिस तेजी के साथ बल्चर गायब हुआ ऐसा अभी तक कोई जीव गायब नहीं हुआ । ताज्जुब यह है कि पिछले एक दशक के दौरान ही गिद्ध की संख्या में अप्रत्याशित रूप से 99 फीसदी की गिरावट आई है।

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