व्यंग्य : जानलेवा अंध भक्तों का खतरा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

गुरुवार, 31 अगस्त 2017

व्यंग्य : जानलेवा अंध भक्तों का खतरा

आज अंध भक्त युग चल रहा है। श्रद्धा, विश्वास और आस्था का मर्दन हो चुका है। भक्त के स्थान पर अंध भक्त काबिज हो गये है। इन अंध भक्तों के सिर पर मौत का जुनून संवार है। यह किसी भी हद तक जा सकते है। कुछ भी कर सकते है। ऐसी दीवानगी आजतक इससे पहले कभी भी नही देखी गयी। अक्ल के अंधे और दिमाग से पैदल इन अंध भक्तों को हांका जाता है प्रलोभन के डंडे से। यह आंख मूंदकर कतार में चलते है। इनकी फितरत तो देखिये ! ये गाय को मम्मी की तरह मानते है। गौ हत्या की थोड़ी से खबर या अफवाह इनके कानों में पड़ जाये तो इनका पुत्र प्रेम हिलोरे मारने लगता है और खून उबलने लगता है। लेकिन, ये अंध भक्त जिस गाय को मम्मी कहते है उसे खुले में विचरण करते देखते है। कूड़ा निगलने देते है। इन्हें गाय को माता कहना तो मंजूर है पर खुद की माता को गाय कहना कथ्य ही मंजूर नहीं है। ये प्रजाति गंगा को भी मां कहती है। लेकिन, पूरे मन से घर का समस्त कूड़ा-करकट फेंकने से लेकर मृतक अस्थियों का भोग चढाने में जरा भी हिचकती नही है। क्या कोई पुत्र अपनी मां पर ऐसे कचरा डाल सकता है ? अजीब है अंध भक्त ! जाति और धर्म के मद में बावले है। 


आजकल तो घर से निकलते वक्त बड़ा डरा सहमा रहता हूं। न जाने कब इन अंध भक्तों की टोली आकर पेल कर चली जाये। क्या भरोसा इन जानलेवा मजनूंयों का। इन्हें तो खून से खेलने की आदत है। बिना उत्पात मचाये तो इनको रोटी हजम ही नही होती। इनके लिए हिंसा ही परमो धर्मः है। न जाने कितनों को ये अंध भक्त मौत के घाट उतार चुके है। इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इनका विवेक मर चुका है। आत्मा वशीभूत हो चुकी है। दरअसल, ये इंसानियत के नाम पर कलंक है। लोकतंत्र से छिपके वे जोंक है जो खून चूस रहे है। इनकी अंध श्रद्धा भारी पड़ रही है।

दास प्रथा की तरह वर्तमान में अंध भक्त प्रथा चल रही है। दासों का व्यापार होता था। लेकिन, आज के दौर में ये दास भक्त बनकर अपना इतिहास दोहरा रहे है। इन अंध भक्तों में अधिकत्तर वे बेरोजगार युवा है जो हालात और भूख के सताये है। भूखे का हर अपराध क्षम्य है। इनका सियासदान और बाबा बड़े ही चतुराई से अपनी रक्षा के लिए इस्तेमाल कर रहे है। भीड़ के हुजूम में पचास-सौ अंध भक्तों को खड़ा करके पूरी भीड़ को अपने पक्ष में करने की कला उन्हें खूब आती है। ये वे मछली है जो पूरे तालाब को खराब कर रही है। सोचनीय है इन अंध भक्तों के साथ विकास का पहिया कैसे गति कर सकेगा ! जब ऐसे अंध भक्त और अंध श्रद्धा बढ़ती जायेगी तो चोटी क्या बोटी भी कटते समय नहीं लेगी। निश्चित ही काल का ग्रास हावी है। समय की चेतावनी को भांपकर चलना ही श्रेष्यकर है।






liveaartaavart dot com

-- देवेन्द्रराज सुथार--

कोई टिप्पणी नहीं: