भारत के भीड़तंत्र ख़ास तौर पर अपने गुरुओं पर अपार आस्था रखने वाले श्रधालुओं की मानसिकता की थाह लेना सरल कार्य नहीं है।जाने यह सबक इन श्रधालुओं ने कहां से सीख लिया है कि दुष्कर्म करने वाले बलात्कारी और कानून द्वारा घोषित अपराधी के पक्ष में खड़े हो जाओ,आगजनी और उपद्रव करो और सत्ता को चिनौती दो।भर्त्सना अथवा निंदा करने के बजाय अपराधी के पक्ष में उतरो और सामाजिक मूल्यों और न्याय-प्रक्रिया की धज्जियां उडाओ।पब्लिक के इस अविवेकपूर्ण गुंडेपन को देख हमारी अदालतों का सहम/सिहर जाना स्वाभाविक है और यह हमारी न्यायपालिका के कार्य-निर्वहन के लिए कोई सुखद स्थिति नहीं है।पापी को दंड देना न्यायालय का काम है और उस दंड को कार्यान्वित करवाना सरकार का काम।अगर इसी तरह से दबंगई का सहारा लेकर लोगबाग अपराधी का साथ देने लगें तो फिर न्यायप्रक्रिया की ज़रूरत ही क्या है?हमारी न्याय व्यवस्था में दोषी को पूरा अवसर दिया जाता है कि वह अपनी बेगुनाही साबित करे।गंभीर आरोपों के चलते ही सज़ा सुनाई जाती है।
दरअसल,इस तरह के अनियंत्रित उपद्रव बिना कारण परवान नहीं चढ़ते।राजनीतिक पार्टियों,धर्म-गुरुओं और श्रधालुओं के बीच एक मौन-सहमति बनी रहती है--वोट लेने-देने के मामले को लेकर।धर्मगुरु जानता है कि उसके पास श्रधालुओं की अकूत शक्ति रूपी जादुई चिराग है और वोट-लोलुप राजनीतिक पार्टियाँ भी अच्छी तरह से जानती हैं कि धर्म-गुरु उनका त्राता है।यदि वह उनके पक्ष में फ़तवा या फरमान जारी करे तो राजनीतिक रण में उन्हें भारी लाभ हो सकता है।यों,धर्म-गुरु भी हवा का रुख देखकर अपनी वफादारियां बदलते रहते हैं।श्रधालुओं में अपनी आशातीत लोकप्रियता और मज़बूत पकड़ को वे भुनाने का भरसक यत्न करते हैं।इस प्रक्रिया में वे अपनी हर तरह की इच्छा-पूति के लिए हर तरह का उचित-अनुचित काम करते हैं और आश्वस्त रहते हैं कि सत्ताधारी पार्टी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती।मगर,वे यह नहीं जानते कि अंततः जीत हमेशा सत्य की होती है, असत्य की नहीं।देर से ही सही, पाप ने हमेशा पुण्य से शिकस्त ही खायी है. ‘सत्यमेव जयते नानृतम’ मुण्डक उपनिषद का यह आप्त-वचन राजनेताओं,धर्मगुरुओं और श्रधालुओं पर समान रूप से लागू होता है।
शिबन कृष्ण रैणा
अलवर
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