विशेष आलेख : काशी में तीन रुपों में विराजमान हैं ‘मां लक्ष्मी‘ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 11 सितंबर 2017

विशेष आलेख : काशी में तीन रुपों में विराजमान हैं ‘मां लक्ष्मी‘

चमत्कार के ढेरों कहानियां अपने अंदर समेटे काशी में विराजमान है माता लक्ष्मी। वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन रुपों में भक्तों को दर्शन देती है मां माता लक्ष्मी। पहला मां लक्ष्मी, दुसरा मां काली और तीसरा मां सरस्वती, जिन्हें सोरहिया के रुप में भी जाना जाता है। खास बात यह है कि माता ज्यूतियां भी इन तीनों माताओं के साथ है इस बार 12 एवं 13 सितम्बर यानी मंगलवार व बुधवार को मां के तीनों रुपों की अंतिम पूजा होगी। इस दिन सौभाग्यवती महिलाएं व्रत रखकर माता लक्ष्मी, माता काली माता सरस्वती व हाथी पूजन करती हैं


lakshmi-pooja-in-kashiमान्यता है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी से क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तक संतान सुख से वंचित कोई भी महिला मां का व्रत रख सोरहिया मेले के दिन विधि-विधान से सोलहों श्रृंगार में सज-धज पूजन-अर्चन व व्रत का पारण किया उसे मिल जाता है पुत्र रत्न प्राप्ति का वरदान। इतना हीं नहीं इस दौरान सोलहों दिन कोई भी भक्त माता के दरबार में पांच फेरे लगाकर मत्था टेकता है तो मां उसकी सभी बाधाएं दूर हो जाती है। मां भर देती है धन संपदा से उसकी झोली। यह दिव्य एवं मनोरम स्थल है तीनों लोकों में न्यारी धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के लक्शा स्थित लक्ष्मी कुंड के पास। यहां माता लक्ष्मी का भव्य मंदिर है। मंदिर से सटा विशाल तालाब है, जिसे लक्ष्मी कुंड के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर अत्यंत सुंदर, आकर्षक और लाखों लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। इस मंदिर को शक्तिपीठ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यहां माता महालक्ष्मी की पूजा यूं तो सालों भर होती है लेकिन श्राद्ध के दिनों में इसका महत्व बढ़ जाता है। इन दिनों में मां प्रसन्न होकर सुहागिनों को पति के साथ-साथ पुत्रों की लंबी उम्र का वरदान देती हैं। इस मंदिर की एक बड़ी ही रोचक मान्यता है कि माता को सिंदूर, बिंदी, महावर सहित सोलहों श्रृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित की जाती हैं। इनमें एक सोलह गांठों वाला धागा भी शामिल होता है। मंदिर के पूजारी इस धागे को माता का स्पर्श करवाकर श्रद्धालु को देते हैं। माना जाता है कि इस धागे में माता की कृपा होती है जो भक्त को आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त होता है। आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं पुत्र की दीर्घायु की कामना के साथ महिलाएं जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत भी रखती है। लक्ष्मी कुंड या नदियों, सरोवरों में स्नान कर पूजन-अर्चन करती हैं। 

शक्तिपीठ का है दर्जा 
इस मंदिर को शक्तिपीठ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यहां माता महालक्ष्मी की पूजा यूं तो सालों भर होती है लेकिन श्राद्ध के दिनों में इसका महत्व बढ़ जाता है। इन दिनों में मां प्रसन्न होकर सुहागिनों को पति के साथ-साथ पुत्रों की लंबी उम्र का वरदान देती हैं। इस मंदिर की एक बड़ी ही रोचक मान्यता है कि माता को सिंदूर, बिंदी, महावर सहित सोलहों श्रृंगार की अन्य वस्तुएं अर्पित की जाती हैं। इनमें एक सोलह गांठों वाला धागा भी शामिल होता है। मंदिर के पूजारी इस धागे को माता का स्पर्श करवाकर श्रद्धालु को देते हैं। माना जाता है कि इस धागे में माता की कृपा होती है जो भक्त को आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त होता है। आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं पुत्र की दीर्घायु की कामना के साथ महिलाएं जीवित्पुत्रिका का निर्जला व्रत भी रखती है। लक्ष्मी कुंड या नदियों, सरोवरों में स्नान कर पूजन-अर्चन करती हैं। 

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मां का विग्रह रुप 
लक्ष्मीकुंड मंदिर में मां लक्ष्मी का विग्रह रुप है। इस मंदिर परिसर में भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी से क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि तक 16 दिन तक मेला लगता है। इन 16 दिनों तक महिला-पुरुष रखते हैं व्रत। इसके अलावा पहले ही दिन 16 गांठों वाले धागे की माला धारण करते हैं। मंदिर के गुंबद में आज भी माता पार्वती के हाथों निर्मित 16 जड़ित कलश आज भी मौजूद है। महिलाएं दिन भर कठिन व्रत रख सूर्यास्त के बाद एक अन्न ग्रहण कर पारण करती है। यह सिलसिला सोलहो दिन पूजन-अर्चन के साथ चलता है। महालक्ष्मी का पूजन अर्चन करने वालों के लिए मान्यता यह है कि पखवारे भर वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जमीन पर कंबल पर रात्रि में शयन करते हैं। एक वक्त भोजन किया जाता है। क्वार कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि के जीवित पुत्रिका व्रत वाले दिन ही इस सोरहिया मेले का समापन होता है। इस दिन महालक्ष्मी मंदिर से लगायत लक्सा तिराहे तक मेला लगता है। 


यहां मां पार्वती ने भी किया है व्रत 
मंदिर के पुजारी अविनाश पांडेय बताते है कि यहां माता पार्वती ने पुत्र श्रीगणेश व श्री कार्तिकेय की दीर्घायु के लिए सोलह दिन का व्रत रखकर पूजन-अर्चन की थी। इस कठिन व्रत के बाद भगवान श्री गणेश देवों में प्रथम पूज्य कहलाएं। मान्यता है कि यहां जो भी महिलाएं विधि विधान से 16 दिन का उपवास रख पुत्र कल्याण व धन्यधान की मन्नतें मांगती है वह पूरा हो जाता है। कहते है जब माता पार्वती यहां सोलहों दिन का उपवास रखी थी। उसी दौरान भ्रमण पर निकली माता लक्ष्मी यहां पहुंची थी। माता लक्ष्मी के विशेष आग्रह के बाद भी जब माता पार्वती उनके साथ नहीं गयी तो वह भी यहीं विराजमान होकर पूजन-अर्चन करने लगी। उनकी तपस्या से ही खुश होकर मां काली और मां सरस्वती भी आ गयी और माता पार्वती के संग श्री गणेश व कार्तिकेय  की दीर्घायु के लिए व्रत रखा। उसी के बाद से यहां 16 दिन का सोरहिया मेले का आयोजन होता चला रहा है।  

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पौराणिक मान्यताएं 
मान्यता है कि मां लक्ष्मी को धन की देवी है। महालक्ष्मी की पूजा घर और कारोबार में सुख और समृद्धि‍ लाने के लिए की जाती है। महालक्ष्मी‍ मंदिर के मुख्य द्वार पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं की आकर्षक प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर के गर्भगृह में महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती तीनों देवियों की प्रतिमाएं एक साथ विद्यमान हैं। तीनों प्रतिमाओं को सोने एवं मोतियों के आभूषणों से सुसज्जित किया गया है। यहां आने वाले हर भक्त का यह दृढ़ विश्वास होता है कि माता उनकी हर इच्छा जरूर पूरी करेंगी। महालक्ष्मी व्रत से आप साल भर की आमदनी का इंतजाम कर सकते हैं। महालक्ष्मी व्रत पूरे 15 दिन चलता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत से गरीबी हमेशा-हमेशा के लिए चली जाती है। महालक्ष्मी के महाव्रत से आप अपने घर के आंगन में धन की बरसात भी कर सकते हैं। इस अवधि में शक्ति पीठों में शक्ति मां मौजूद रहकर जन कल्याण के लिये भक्त जनों का परिपालन करती है। काशी की शक्ति पीठं बहुत ही सुप्रसिद्ध है क्योंकि यहां जो भी अपने विचारों को प्रकट करता है वो तुरंत मां जी के आशीर्वाद से पूरा हो जाता है या उस व्यक्ति मुक्ति पाकर उसका जनम सफल हो जाता है। भगवान विष्णु के पत्नी होने के नाते इस मंदिर का नाम माता महालक्ष्मी से जोड़ा हुआ है और यहां के लोग इस जगह में महाविष्णु महालक्ष्मी के साथ निवास करते हुए लोक परिपालन करने का विशवास करते है। मंदिर के अन्दर नवग्रहों, भगवान सूर्य, महिषासुर मर्धिनी, विट्टल रखमाई, शिवजी, विष्णु, तुलजा भवानी आदी देवी देवताओं को पूजा करने का स्थल भी दिखाई देते हैं। इन प्रतिमाओं में से कुछ 11 वीं सदी के हो सकते हैं, जबकि कुछ हाल ही मूल के हैं। इसके अलावा आंगन में स्थित मणिकर्णिका कुंड के तट पर विश्वेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित हैं।

लक्ष्मी व्रत एवं पूजन विधि 
महालक्ष्मी व्रत के दौरान शाकाहारी भोजन करें। पान के पत्तों से सजे कलश में पानी भरकर मंदिर में रखें। कलश के ऊपर नारियल रखें। कलश के चारों तरफ लाल धागा बांधे और कलश को लाल कपड़े से अच्छी तरह से सजाएं। कलश पर कुमकुम से स्वास्तिक बनाएं। स्वास्तिक बनाने से जीवन में पवित्रता और समृद्धि आती है। कलश में चावल और सिक्के डालें। इसके बाद इस कलश को महालक्ष्मी के पूजास्थल पर रखें। कलश के पास हल्दी से कमल बनाकर उस पर माता लक्ष्मी की मूर्ति प्रतिष्ठित करें। मिट्टी का हाथी बाजार से लाकर या घर में बना कर उसे स्वर्णाभूषणों से सजाएं। नया खरीदा सोना, हाथी पर रखने से पूजा का विशेष लाभ मिलता है। माता लक्ष्मी की मूर्ति के सामने श्रीयंत्र भी रखें। कमल के फूल से पूजन करें। सोने-चांदी के सिक्के, मिठाई व फल भी रखें। इसके बाद माता लक्ष्मी के आठ रूपों की इन मंत्रों के साथ कुंकुम, चावल और फूल चढ़ाते हुए पूजा करें। इन आठ रूपों में मां लक्ष्मी की पूजा करें- श्री धन लक्ष्मी मां, श्री गज लक्ष्मी मां, श्री वीर लक्ष्मी मां, श्री ऐश्वर्या लक्ष्मी मां, श्री विजय लक्ष्मी मां, श्री आदि लक्ष्मी मां, श्री धान्य लक्ष्मी मां और श्री संतान लक्ष्मी मां। 

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पूजा में 16 अंकों का विशेष महत्व
पूजा के दूसरे दिन सप्तमी को मां का विशेष भोग लगाया जाता है। इसमें 16 अंकों का विशेष महत्व होता है। 16 प्रकार के आभूषण से मां का श्रृंगार होता है। इस दिन 16 प्रकार के सब्जियों से मां को भोग लगाया जाता है। वहीं, 16 प्रकार के पुष्प और पत्तियां अर्पण कर महाआरती की जाती है। इसके दौरान अतिरिक्त दाल, चावल, रोटी, पूरणपोली, विशेष प्रसाद अंबील अनिवार्य रूप से भोजन में बनाने की परंपरा है। भोजन सामग्री में एक बार थाली में आ पाना संभव नहीं होने के कारण पुरातन परंपरा के अनुसार कमल के पत्ते में भोजन ग्रहण करने एवं देवी मां को नैवेद्य चढ़ाने का विधान है। सोरहिया मां का पूजा करने के बाद लक्ष्मी जी का दर्शन का विधान है। इसमें 16 पेड़ा, 16 दुब की माला, 16 खड़ा चावल, 16 गांठ का धागा, 16 लौंग, 16 इलायची, 16 पान, 16 खड़ी सुपारी, श्रृंगार का सामान मां को अर्पित किया जाता है। यहां आने वाली महिलाएं बताती है की जिन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं होता है वो यहां आती है उन्हें संतान सुख प्राप्त होता है और हमारे घर में लक्ष्मी का वास होता है। अगर आप भी समृद्धि और सौभाग्य की देवी मां लक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहती हैं तो सोरहिया पूजन जरूर करें। सोरहिया व्रत एवं पूजन 16 दिनों तक चलता है, जिसकी शुरुआत भाद्रपद के शुक्लपक्ष की अष्टमी से होता है। विवाहित महिलाएं व्रत का संकल्प लेकर 16 दिनों तक इसे धारण करती हैं। स्नान के बाद महालक्ष्मी मंदिर में पूजन कर सोलह गांठ का धागा पूजती हैं। धागे को बांह में बांधने के साथ ही 16 दिन का अपना व्रत शुरू कर देती हैं। मिट्टी की बनी मां लक्ष्मी की मूर्ति की पूजा कर उसे अपने साथ घर ले जाती हैं। अंतिम 16 वे दिन जिउत पुत्रिका लोकाचार में जिवतिया पर्व के साथ इस कठिन व्रत तप की समाप्ति होती है।

कलेवा भी बांधते हैं
तीन दिवसीय उत्सव के दौरान तीसरे दिन बच्चों की सुख-समृद्धि की कामना के लिए घर की महिलाएं दोपहर को पोथी का वाचन कर कथा श्रवण करती हैं। बच्चों तथा घर के अन्य सदस्यों के हाथों में हल्दी से भीगा कलेवा (धागा) बांधा जाता है। इसी दिन शाम को सुहागिनों का हल्दी व कुमकुम कार्यक्रम होता है। परंपरा के अनुसार एक परिवार में किसी एक को सामान्यतः बड़े पुत्र को इस आयोजन का दायित्व परंपरागत तरीके से सौंपा जाता है।

लक्ष्मी कुंड 
पुराणों के अनुसार, प्राचीन लक्ष्मीकुण्ड की स्थापना अगस्त ऋषि ने की थी। व्रत से जुड़ी मान्यता है कि महाराजा जिउत की कोई संतान नहीं थी। महाराज ने मां लक्ष्मी का ध्यान किया और मां लक्ष्मी ने सपने मे दर्शन देकर सोलह दिनों के इस कठिन व्रत का अनुष्ठान करने को कहा। महाराजा जिउत ने ठीक वैसे ही 16 दिनों तक व्रत रखा और मां लक्ष्मी की पूजा की। कुछ दिनों बाद ही उन्हें संतान के साथ समृद्धि और ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हुई, तभी से इस परम्परा का नाम सोरहिया पड़ा।  

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मां जीवित्पुत्रिका देती है पुत्ररत्न का वरदान 
संतानों के स्वस्थ, सुखी और दीर्घायु के लिए माताएं जीवित्पुत्रिका व्रत करती हैं। इसे ‘जिउतिया‘ भी कहा जाता है। यह व्रत आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनी अष्टमी के दिन किया जाता है। यह व्रत तीन दिन तक चलता है। जिसमें एक दिन महिलाएं निर्जला उपवास करती है। मान्यता है इस व्रत को करने से पुत्र पर आने वाली सभी बाधाएं दूर हो जाती है, संकट के समय रक्षा भी करते करते हैं। यहां तक कि अकाल मौत भी टल जाती है। इस व्रत को सिर्फ और सिर्फ विवाहित महिलाएं करती हैं। खास यह है कि इस व्रत को करने से व्रतियों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मान्‍यता है कि इस व्रत को करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी होती है। यह व्रत यूपी, बिहार समेत पूरे पूर्वांचल में घर-घर में किया जाता है। इस बार यह व्रत 13 सितम्बर, दिन बुधवार को मनाया जायेगा। बताते है कि एक बार कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुना रहे थे। कथा के दौरान भोलेनाथ ने कहा, आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है। वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है। यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है। इस व्रत को माताएं अपने बेटे की लम्बी आयु के लिए रखती है। कामना करती है कि उसका बेटा सही रास्ते पर चले और अपनी जिन्दगी में सही रास्ते से अपनी मंजिल तक पहुंचे। गरुड़ का वरदान है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को जो माताएं भगवती दुर्गा की जीवित्पुत्रिका के रूप में और राजा जीमूतवाहन का कुश की आकृति बनाकर पूजा करेगी उनके सौभाग्य व वंश की बढ़ोतरी होगी। इस व्रत का उल्लेख पुराणों में भी है। पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने माता पार्वती से कहा है कि यह दिन बड़ा ही उत्तम है। इस दिन जो माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं, उनकी संतान के जीवन पर आने वाला संकट टल जाते है। संतान का वियोग नहीं सहना पड़ता है। इसलिए इस दिन माताओं को निर्जल रहकर पूरे दिन व्रत रखना चाहिए। क्योंकि इस दिन के देवता जिमूतवाहन भगवान हैं। 

महाभारत में भी है इस व्रत का उल्लेख 
एक अन्य कथानुसार, महाभारत युद्ध के बाद द्रोणपुत्र अश्वथामा ने द्रौपदी के पांच पुत्रों को पाण्डव समझकर उनका वध कर डाला। दूसरे दिन अर्जुन कृष्ण भगवान को साथ लेकर अश्वथामा की खोज में निकल पड़े। भीषण युद्ध के दौरान अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र और अर्जुन ने पाशुपतास्त्र का प्रयोग कर दिया। जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गयी। देवताओं के बीच बचाव के बाद अर्जुन ने अपना पाशुपतास्त्र तो वापस ले लिया। लेकिन अश्वत्थामा को अपना ब्रह्मास्त्र वापस लेने का ज्ञान नहीं था। अंत में उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर उत्तरा की रक्षा की। किन्तु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न हुआ बालक मृत था। जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने  प्राण दान दिया। वही पुत्र पाण्डव वंश का भावी कर्णाधार परीक्षित हुआ। परीक्षित को इस प्रकार जीवनदान मिलने के कारण इस व्रत का नाम ”जीवित्पुत्रिका“ पड़ा। 

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लोककथाएं भी प्रचलित 
इनमें से एक कथा चील और सियारिन की है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में एक जंगल में चील और सियारिन रहा करती थीं। दोनों एक दूसरे के मित्र भी थे। दोनो ने एक बार कुछ स्त्रियों को यह व्रत करते देखा तो स्वयं भी इस व्रत को करना चाहा। दोनों ने एक साथ इस व्रत को किया। लेकिन सियारिन इस व्रत में भूख के कारण व्याकुल हो उठी। भूख उसे सही नहीं गई। इस कारण सियारिन ने चुपके से खाना ग्रहण कर लिया, किंतु चील ने इस व्रत को पूरी निष्ठा के साथ किया। परिणाम यह हुआ कि सियारिन के सभी जितने भी बच्चे हुए वह कुछ ही दिन में मर जाते। जबकि चील्ह के सभी बच्चों को दीर्घ जीवन प्राप्त हुआ। एक अन्या कथानुसार एक स्त्री के पुत्र को अजगर ने निगल लिया था। उसने जिउतिया व्रत रखा और जैसे जैसे गर्म दूध के साथ जाई निगलती गई, अजगर के पेट में दाहा बढ़ता गया। अंततः उसने पुत्र को जीवित उगल दिया। जाई को चबाया नहीं जाता जिसका कारण यह है कि मेमना चबाना भी सियारन के व्रत भंग का एक कारण था। एक अन्य कथा के अनुसार, स्त्रियां व्रत के दिन बरियार नामक पौधे का पूजन करती हैं। राजा रामचन्द्र के पास अपने पुत्र की मंगल कामना हेतु सन्देश भेजती हैं। परीक्षित पुत्र जनमेजय का नाग यज्ञ प्रसिद्ध है। जीमूतवाहन की कथा भी नागों से सम्बन्धित है। एक प्रश्न मन में उठता है कि क्या परीक्षित का कोई दूसरा पुत्र भी था जिसने भाई जनमेजय द्वारा प्रतिशोध स्वरूप आयोजित नागों के सम्पूर्ण विनाश यज्ञ में नागों का पक्ष ले उन्हें बचाया था जिसकी स्मृति आज भी बरियार (बली) पुत्र के रूप में परम्परा में मिलती है? यह व्रत नाग परम्परा का बदला हुआ रूप है जिसके मूल में वंश संहार की त्रासदी का सामना करने और उससे उबरने के स्मृति चिह्न हैं। हो सकता है कि नागों ने वन में बरियार के झाड़ झंखाड़ो  की आड़ ले स्वयं को बचाया हो। वनवासी राम का जंगली जातियों से स्नेह सम्बन्ध जगप्रसिद्ध है। आज भी वर्ण व्यवस्था से बाहर की कितनी ही जनजातियों के लिये राम आराध्य हैं। 

पुत्रों की संख्या दर से बनती है जिउतिया 
मान्यता यह भी है कि माताएं रसोईघर की चैखट को अन्नपूर्णा और मातृपक्ष के पितरों की स्मृति में टीका देती हैं। पुत्रवती होने के प्रतीक स्वरूप गले में धागे से बनी जिउतिया पहनती हैं, जिसमें पुत्रों की संख्या से एक अधिक गांठ लगाई जाती हैं। अधिक वाली गांठ जिउतबन्हन की गांठ कहलाती है जिसे जीमूतवाहन नाम से समझा जा सकता है। स्वयं पहनने के पहले उसे कुछ देर पुत्र को पहना कर रखा जाता है। उसके बाद विविध पकवानों के साथ पारण किया जाता है। 






(सुरेश गांधी)

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